वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 177
From जैनकोष
णाणाइचउसहावं अक्खयमविणासमच्छेयं।।177।।
कारणपरमात्मतत्त्व व कार्यपरमात्मतत्त्व की समानता का प्रतिपादन—इस गाथा में सिद्ध प्रभु और आत्मस्वभाव का स्वरूप बताया गया है। जैसे निर्मल जल स्वरूप रखता है वैसे ही जल का स्वभाव अपना स्वरूप रखता है। स्वच्छ पानी कैसा है? उत्तर मिलेगा निर्दोष, निर्मल, कीचड़रहित, साफ, स्वच्छ। और गंदा जल कटोरे में भरकर लाकर दिखायें और पूछें कि इस जल का स्वभाव कैसा है? तब भी उत्तर मिलेगा निर्मल, निर्दोष, कीचड़रहित, साफ, स्वच्छ। जो जल का स्वभाव है वह स्वभाव सदा निर्मल है, पर उस गंदे जल में मिट्टी का संयोग है इस कारण उसकी यह स्वच्छता तिरोहित हो गयी है, पर जल का स्वभाव और निर्मल जल का स्वरूप एक समान है, ऐसे ही सिद्धभगवान और यहाँ हम आप सब आत्मावों का स्वभाव भी समान है, इसी दृष्टि से कहा है कि—‘मैं वह हूँ जो हैं भगवान, जो मैं हूँ वह हैं भगवान।’ मैं वह हूँ जो भगवान है, सिद्ध है, परमात्मा है, जो परमात्मा है सो मैं हूँ। दृष्टिविवेक—यद्यपि सर्वथा यह बात ठीक न बैठेगी कि मैं व प्रभु समान ही हूँ, क्योंकि व्यवहारदृष्टि से जब देखते हैं हम अपना और प्रभु का परिणमन, तो वहाँ अंतर प्रतीत होता है। और वह अंतर है—‘अंतर यही ऊपरी जान। वे विराग यहाँ राग वितान।।’ परिणमन की दृष्टि से, अनुभवन की दृष्टि से यह अंतर है। वह वीतराग है और यहाँ राग का फैलाव है, किंतु अंत:स्वरूप सहजभाव की दृष्टि से अपने को निरखें तो अपने में और परमात्मा में अंतर नहीं है। इस स्वभावदृष्टि से हममें और प्रभु में ही क्या, पेड़ कीट जैसे जीवों में और प्रभु में भी अंतर नहीं है। जब इस गाथा में आत्मस्वरूप का वर्णन आये तब तो स्वभावदृष्टि करके सुनना और जब सिद्ध भगवान का वर्णन आये तब सर्वदृष्टियों से सुनना। जन्मजरामरणरहितपने की प्रभुता—यह भगवान जन्म, जरा, मरण से रहित हैं। अब भगवान का न जन्म होगा, न बुढ़ापा आयेगा। शरीर ही नहीं है तो बुढ़ापा कहाँ से आये? बुढ़ापा तो अरहंत भगवान के भी नहीं होता। कोई बूढ़ा मुनि अरहंत बन जाय तो अरहंत होने पर उनका शरीर बूढ़ा नहीं रह सकता। उनका शरीर कांतिमान, युवा, हृष्ट पुष्ट हो जाता है, यह प्रताप है कैवल्यप्राप्ति का। यह शरीर परमौदारिक हो जाता है। शरीर पुष्ट हो गया इतना ही नहीं, किंतु कोई मुनि रुग्ण हो, कोढ़ निकल आया हो या कोई शारीरिक रोग फोड़ा, फुँसी, खाज, खुजली कुछ हो गयी हो, अथवा कोई अंगुली आदि में विरूपता आ गयी हो अथवा कोई अंग टेढ़ा-मेढ़ा हो गया हो, बेडौल शरीर हो जाय, ऐसी भी स्थिति पहिले हो, किंतु वह योगिराज जब कैवल्य प्राप्त कर लेता है तो उसके भी शरीर पुष्ट और दर्शनीय हो जाता है। कुछ ऐसा भी विचारो कि किसी साधु का अंग बेडौल हो, बूढ़ा हो और वह अरहंत हो जाय और ऐसा ही बूढ़ा, हड्डी निकली, टेढ़े-टाप्टे हाथ-पैर भगवान के रूप में दिखे तो क्या कुछ भला सा जँचेगा? भक्तों की श्रद्धा जिन भगवान में है वे भगवान परमौदारिक शरीर वाले होते हैं, उनके बुढ़ापा रोग, आदिक भी नहीं हैं। आत्मतत्त्व की परमस्वभावता—जैसे सिद्ध भगवान में जन्म, जरा, मृत्यु—ये तीन रोग नहीं हैं ऐसे ही हम आपके आत्मपदार्थ में जन्म, जरा, मरण नहीं हैं। इस आत्मस्वभाव की तीक्ष्ण प्रज्ञा से हमें सबकी अटकें त्यागकर बहुत अंदर प्रवेश करके निरखना है। जैसे एक्सरे यंत्र चमड़ा, खून, मांस, मज्जा आदि में न अटक कर सीधा भीतर की हड्डी का फोटो ले लेता है ऐसे ही हमें इस सम्यग्ज्ञान के बल से देह में, रागादिक भावों में, तर्क-वितर्क में, कल्पनावों में न अटक कर सीधे अंत:सहज ज्ञानस्वरूप को ग्रहण करना है। यह ज्ञानस्वरूप जन्म, जरा, मरण से रहित है। इस आत्मा का स्वभाव से ही संसरण का अभाव है। ये सिद्ध भगवान उत्कृष्ट हैं और यह कारणसमयसार हम आपका अंत:स्वरूप परमपारिणामिक भाव में स्थित होने से परम है। आत्मतत्त्व की निरुपाधिता—सिद्ध भगवान अब सदा उपाधिरहित रहेंगे। भविष्य में कभी भी कर्मों का रागादिक भावों का संयोग न हो सकेगा और यहाँ आत्मस्वभाव में देखो हम सब अपने आपमें तो यह आत्मा अपने सत्त्व के कारण जैसा स्वयं है तैसा ही है, तैसा ही रहेगा, इस में किसी अन्यतत्त्व का प्रवेश नहीं होता है। यद्यपि इस संसारी अवस्था में इस आत्मस्वरूप का कुछ भान भी नहीं रहा और त्रस, स्थावर की योनियों के रूप में इसका रूपक बना हुआ है फिर भी सत्त्व की महिमा अतुल है। यह जीव अपने स्वभाव से त्रिकाल निरुपाधिस्वरूप है। इस कारण उसमें आठों कर्म नहीं हैं। भगवान सिद्ध तो अष्ट कर्मों के विनाश से ही हुए हैं और यहाँ देखो तो अष्टकर्मों का संबंध होने पर भी जब हम अपने स्वभाव में उतरते हैं तो यहाँ कहाँ कर्म रक्खे हैं, यहाँ तो मात्र यह मैं आत्मतत्त्व हूँ। यों यह कारणपरमात्मतत्त्व अष्टकर्मों से रहित है। सिद्ध भगवान के न ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म हैं, न रागादिक भावकर्म हैं। समस्त कर्मों से रहित होने से अत्यंत शुद्धि व्यक्त हो गयी है। अब जरा अपने आप के अंत:स्वरूप में अपने को देखो। यह मैं आत्मा अपने सत्त्व के कारण जैसा स्वयं हूँ, अमूर्त, निर्लेप, ज्ञानानंदस्वरूप, भावात्मक उसमें भी न द्रव्यकर्म हैं और न रागादिक भावकर्म हैं। दोनों प्रकार के कर्मों से रहित यह मैं कारणपरमात्मतत्त्व शुद्ध हूँ। आत्मतत्त्व की सहजानंतचतुष्टयात्मकता—प्रभु में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत आनंद, अनंत शक्ति प्रकट हुई है। ये अनंत चतुष्टयात्मक कहलाते हैं। यह चारों प्रकार का स्वभाव हम आपमें सहज, अंत:प्रकाशमान है। सहजज्ञान अर्थात् ज्ञान के जितने भी परिणमन होते हैं उन सब परिणमनों की शक्ति रूप, आश्रयरूप जो एक स्वभाव है वह है सहजज्ञान। यह सहजज्ञान हम आपमें अनादि-अनंत अंत:प्रकाशमान है। सहजदर्शन के जितने भी पर्याय हैं उन पर्यायों का आधारभूत सहज दर्शनस्वभाव है। यों ही चारित्रस्वभाव अथवा आनंदस्वभाव और चैतन्यशक्ति हम आपके सहज है। सबमें सहज है। जो सिद्ध प्रभु हुए हैं उनमें यह सहज स्वभाव व्यक्तरूप भी है और हमारा यह सहजस्वभाव शक्ति रूप है। इस तरह यह मैं सहज अनंतचतुष्त्यात्मक हूँ। आत्मतत्त्व की अविनाशिता—प्रभु सिद्ध अविनाशी हैं, इनका अब सिद्धत्व न मिट सकेगा इसलिए वे अक्षय हैं और यहाँ हम आप स्वभावदृष्टि से अपने को देखें तो हम सब भी अक्षय हैं। आत्मस्वभाव में कोई विभाव व्यंजनपर्याय नहीं है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जो कुछ नजर आते हैं, जिन्हें निरखकर लोग जीव कहते हैं वे सब विभाव व्यंजनपर्यायें हैं। विभाव व्यंजनपर्यायों का विनाश होता है जैसा कि आँखों भी देखते हैं, पशु मर गया, पक्षी मर गया, मनुष्य मर गया, अब विभाव व्यंजनपर्याय नहीं रही। देखिये देह भी वहीं पड़ा है, जीव भी कहीं का कहीं चला गया है, मरा कोई नहीं, नष्ट कोई नहीं हुआ, देह में देह है, जीव में जीव है, फिर वहाँ मरना किसका नाम हुआ? अरे ! भले ही देह रहे, भले ही जीव कहीं रहे किंतु अब यह विभाव व्यंजनपर्याय नहीं रही। यह तो मिट्टी है और जीव कहीं है? इसको विभाव व्यंजनपर्याय न कहेंगे। मरण होता है, विनाश होता है तो यहाँ विभाव व्यंजनपर्याय का होता है। जब अपने आत्मा में अंत:स्वभाव को निरखें तो यह निर्णय होगा कि इस स्वभाव में विभाव व्यंजनपर्याय नहीं है। परमात्मतत्त्व की अनादिनिधनता व विभावव्यंजनपर्याय की सादिनिधनता—मैं अनादि हूँ किंतु विभाव व्यंजनपर्याय की तो आदि है। इस मनुष्य की तो आदि है ना। लोग कहते हैं कि तुम्हारी कितनी उमर है? तो बताते हैं कि 49।। वर्ष की मेरी उमर है। अरे, लोक में ऐसी प्रसिद्धि है किंतु जिनकी 49।। वर्ष की उमर कही जाती है उसकी 50 वर्ष की उमर जानो। 9 मास के करीब जो गर्भ में रहा, क्या वह मनुष्य की उमर बिना रहा? इस विभाव व्यंजनपर्याय की आदि है और अंत है, पर मुझ अंतस्तत्त्व की, इस ज्ञानानंदप्रकाश की न आदि है, न अंत है। आत्मा की अमूर्तता व विभाव व्यंजनपर्याय की मूर्तता—यह देह, यह विभाव व्यंजनपर्याय मूर्तिक है, किंतु यह मैं आत्मस्वरूप अमूर्त हूँ। यह देह इंद्रियात्मक है, सर्वत्र इसमें इंद्रियां भरी पड़ी हैं। कान, आंख, नाक, जिह्वा ये तो थोड़ी सी जगह में हैं, किंतु स्पर्शन इंद्रिय सारे शरीर में पड़ी है। स्पर्शनइंद्रिय का कार्य है पदार्थ का ठंडा गर्म, चिकना आदिक स्पर्श जान लेना। इस नाक की चमड़ी से भी चीज छू जाय तो स्पर्श मालूम हो जाता है, हाथ छू जाय तो भी मालूम हो जाता है, पैर से, पीठ से किसी भी स्थान से छू जाय तो स्पर्श मालूम होता है। यह सारा शरीर इंद्रियात्मक है, किंतु यह आत्मा इंद्रियात्मक नहीं है। आत्मा की इंद्रियात्मकविभावव्यंजनपर्यायरहितता—आत्मा में इंद्रियात्मकता की बात कहना तो दूर रहो, इंद्रिय के माध्यम से जानने वाला होकर भी यह इंद्रियों से जानने वाला नहीं हो रहा, किंतु अपने ज्ञानपरिणमन से जानने वाला हो रहा है। ये इंद्रियाँ तो असमर्थ हैं। यह स्पर्शन स्वयं अपने आपको स्पर्शमय बनाने के लिए तैयार है। बुखार चढ़ा हो तो वह बुखार वाला रोगी उसे कितना बुखार है, कितना गर्म शरीर है, इसको वह अपने ही हाथ से अपने ही देह को छुवे बिना नहीं जान पाता। अरे, जब शरीर गर्म हो रहा है तो हाथ पैर न आपस में लगावो और जान जावो कि मेरा शरीर गर्म है, तो नहीं जान पाता है। एक हाथ से अपने ही हाथ को छूकर यह जान पाता है कि मेरा गर्म शरीर है। अरे, जब तेरा यह शरीर गर्म है तो हाथ से हाथ क्यों छूता है, जान जा कि गर्म है, नहीं जान सकता। रसना इंद्रिय, यह जीभ अपने आपके रस का पता नहीं कर सकती कि मैं मीठी हूँ क्या हूँ? इसे अपना स्वाद नहीं आ रहा है, ये इंद्रियाँ खुद का ज्ञान खुद नहीं कर पाती। इस इंद्रियात्मक समस्त विजातीय विभाव व्यंजनपर्याय से मैं रहित हूँ। आत्मा की अविनाशिता व अछेद्यता—मैं अविनाशी हूँ, क्योंकि शुभ, अशुभ गतियों में जाय यही तो इसकी बरबादी है। शुभ-अशुभ गतियों का कारणभूत है पुण्यकर्म और पापकर्म। इसका द्वंद्व मुझमें है ही नहीं। अपने शुद्ध ज्ञानानंद स्वरूप को निरखकर ज्ञानी चिंतन कर रहा है कि प्रभु में ये बातें ही नहीं हैं। वह तो पुण्य, पाप दोनों से रहित है और यह में अपने स्वभाव में पुण्य-पाप कर्मों से रहित हूँ इसलिए मैं बरबादी से परे हूँ। मैं अछेद्य हूँ, मेरा कोई छेदन नहीं कर सकता। जैसे सिद्ध भगवान का कोई छेदन-भेदन नहीं कर सकता। वह तो निर्लेप, अमूर्त, शुद्ध ज्ञानानंदपुंज हैं, वहाँ तलवार कहाँ चलेगी? न आग जला सके, न वहाँ किसी का प्रवेश है। ऐसे ही अपने आत्मा के स्वरूप को देखिये, जो यह शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावमात्र है। उसमें भी न शस्त्र चल सकते न उसे कोई जकड़ सकता, न हवा उड़ा सकती, न पानी डुबो सकता, न आग जला सकती, यह अछेद्य है। यों यह मैं कारणपरमात्मतत्त्व इन समस्त दंदफंदों से रहित हूँ। धर्मपालन के लिये एकमात्र यत्न—जो भव्य जीव ऐसे विशुद्ध आत्मस्वभाव का ध्यान करता है वह ऐसा ही व्यक्त स्वभावपरिणमन प्राप्त कर लेता है। धर्म करने के लिए दसों तरह के काम नहीं करना है केवल एक ही प्रकार का काम करना है। वह है अपने सहज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का दर्शन, आलंबन, आश्रय, ध्यान, यत्न, चिंतन; एक ही निज ज्ञानस्वरूप का आश्रय करना है। व्यवहार धर्म अनेक प्रकार के हैं, उनमें भी यही ध्यान रखिये, पूजा में भी यही करना है, सामायिक आदि जितने भी धार्मिक कार्य हैं उनमें भी यही करना है। समस्त परपदार्थों से विविक्त स्वरूपमात्र निज सहजस्वरूप का आलंबन लेना है। शुद्धोपयोगप्रकाश का विधान—यह मैं कारणपरमात्मतत्त्व स्वरसत: पवित्र सनातन हूँ। कितनी सुविधा है अपने आपको धर्ममय बनाने के लिए। कोइ पराधीनता नहीं है। यह मैं आत्मा अविचल हूँ। अखंड ज्ञायकस्वरूप हूँ, रागद्वेषादिक द्वंद्वों से रहित हूँ। समस्त अघसमूह को जलाने में प्रचंड दावानल समान हूँ। ऐसे दिव्य सुखामृत स्वभावी आत्मतत्त्व को हे आत्मन् ! तू भज। जो तू स्वयं है इस निजस्वरूप का आश्रय कर। बाहर में सब धोखा है, माया है। विनश्वर है, कुछ भी सार नहीं है। समस्त बाह्य पदार्थों से अपना उपयोग हटा। अपने आपके सहजस्वभाव को तू निरख। इस विधि से तुझे यह शुद्धोपयोग प्रकट होगा। शुद्ध अंतस्तत्त्व के आलंबन का अनुरोध—इस शुद्धोपयोग अधिकार में केवलज्ञान और केवलदर्शन का मुख्यरूप से वर्णन चल रहा है। आत्मा में ऐसी ज्ञानशक्ति है कि जिसका पूर्ण विकास हो तो वह समस्त लोकालोक का जाननहार होता है। समस्त लोकालोक का जाननहार बने, इसका उपाय है निज सहज ज्ञानशक्ति का आलंबन करना। अपने आपके स्वरूप में झुके, बाह्य पदार्थों के विकल्प तोड़े, तो यही है वास्तविक धर्मपालन। हिम्मत बनाकर अपने आपमें ही गुप्त इस धर्मपालन का आनंद लूटते जाइए। इससे ही बेड़ा पार होगा। किन्हीं बाह्य पदार्थों की आशा से, आश्रय से, संग से यह आत्मस्वरूप प्रकट न होगा। यों शुद्धोपयोग अधिकार में व्यक्त शुद्धोपयोग का वर्णन करके सहज शुद्धोपयोग का इस गाथा में वर्णन किया है। यह मैं आत्मा ऐसा सहज अविकारी, निरंजन, अखंड, अछेद्य, अविनाशी, जन्मजरामरणादिक रोगों से रहित, द्रव्यकर्म—भावकर्म से रहित, केवल शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहने की बान लिए हुए यह मैं चैतन्य चमत्कारमात्र हूँ। यों जो निज अद्वैत का आश्रय करता है उसके समस्त सिद्धि प्रकट होती है।