वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 184
From जैनकोष
धम्मत्थि कायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति।।184।।
सिद्धक्षेत्र से ऊपर जीव व पुद्गलों के गमन के अभाव का वर्णन—जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों का गमन लोक में ऊपर सर्वत्र वहाँ तक है जहाँ तक धर्मास्तिकाय का द्रव्य है। सिद्ध भगवान लोक के अग्रभाग से ऊपर क्यों नहीं हैं, इसका उत्तर इस गाथा में किया गया है। धर्मास्तिकाय का अभाव होने पर उससे ऊपर सिद्ध भगवान नहीं जाते हैं। लोक उसे कहते हैं जहाँ तक छहों द्रव्य देखे जायें। लोक से बाहर केवल आकाश ही आकाश है, अन्य कोई पदार्थ नहीं है। वैसे भी विचारो कि ये स्कंध कहीं न कहीं तो अपनी सीमा रखते होंगे। यह समस्त महास्कंध अर्थात् स्कंधों का समूह भी किसी हद तक है, उससे बाहर के केवल आकाश ही आकाश है। न स्कंध है, न जीव है, न धर्म अधर्मकाल है। जीव के गमन में सहकारी धर्मद्रव्य है, वह धर्मद्रव्य जहाँ तक है वहाँ तक ही सिद्धभगवान की गति है।
जीव की स्वभावगति व विभावगति—जीव में स्वाभाविक क्रिया तो सिद्धगति है और वैभाविकी गतिरूप क्रिया 6 उपक्रम वाली क्रिया है। संसार अवस्था में यह जीव एक देह त्यागकर जब दूसरे देह को ग्रहण करने जाता है तो उसकी गति पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व, उत्तर से दक्षिण, दक्षिण से उत्तर, ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर यों 6 क्रमों से गति होती है। इन 6 क्रमों का नाम उपक्रम है अर्थात् जीव की गति का शुद्ध क्रम तो नीचे से ऊपर का है। जब यह जीव कर्मों से, शरीर से रहित होता है तो इसकी गति स्वभावत: नीचे से ऊपर की ओर हो जाती है पर कर्मबंधन-बद्ध होने से इस जीव के उस शुद्ध क्रम की पद्धति बिगड़ गई है। इस संसार अवस्था में भी जब कभी ऊपर उत्पन्न होना हो और यहाँ से ऊपर भी जायें तो भी उसकी यह ऊर्ध्वगति स्वाभाविकी गति नहीं है। जैसे यह संसारी जीव कर्मों का प्रेरा मरण करके ऊपर से नीचे की ओर जाता है अथवा पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व, दक्षिण से उत्तर, उत्तर से दक्षिण की ओर जाता है इस ही प्रकार कर्मों से प्रेरा हुआ ही यह जीव संसार अवस्था में नीचे से ऊपर की ओर भी जाता है। संसार अवस्था में जो ऊर्ध्वगति है वह भी स्वभावगति नहीं है, यों जीव में दो प्रकार की गति हुई, स्वभावगति और विभाव गति। सिद्ध जीवों की गति स्वभाव गति है और संसारी जीवों की गति विभाव गति है। पुद्गल द्रव्य की स्वभावगति व विभावगति—पुद्गल द्रव्य में भी दो प्रकार की गति है—स्वभावगति और विभावगति। पुद्गल में शुद्ध पदार्थ है पुद्गल परमाणु। पुद्गल परमाणु की गति स्वभावगति है। पुद्गल में स्वभावगति की यह विशेषता नहीं है कि वह ऊपर ही जाय; ऊपर जाय, नीचे जाय, दिशाओं में जाय। दूसरे द्रव्य के संबंध के बिना एक समूहात्मक की प्रेरणा बिना जो अविभागी पुद्गल परमाणु की गति होती है वह पुद्गल की स्वभावगति है और परमाणुवों के मेल से बने हुए इन स्कंधों का जो गमन होता है वह विभाव गति है। सबसे छोटा स्कंध द्वयणुक कहलाता है, अर्थात् दो परमाणुवों के बंध से बने हुए स्कंध। और बड़े स्कंध अनंत परमाणुवों के मेल से बने हुए होते हैं, इनके मध्य में अनेक प्रकार की संख्या में मिले हुए परमाणुवों का भी स्कंध होता है। उन सब स्कंधों की गति विभावगति है। ये स्कंध चाहे गोल चलें, तिरछे चलें, किसी भी दिशा की ओर चलें वह सब गमन पुद्गल की विभावगति का गमन है। सिद्ध की गति का कथन—इस प्रकरण में मुख्य बात यह कही जा रही है कि धर्मद्रव्य चूँकि लोकाकाश के ही भीतर है, बाहर नहीं है, इस कारण जो भी निकटभव्य जीव चारघातिया कर्मों का नाश करके अरहंत हुआ और फिर शेष चारघातिया कर्मों का भी क्षय करके जब सिद्ध होता है, गुणस्थानातीत होता है तो वह स्वभाव से ऊपर चला जाता है। वह कहाँ तक ऊपर जाता है? इसका उत्तर इस गाथा में है। जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहाँ तक सिद्ध भगवान जाते हैं। सिद्ध प्रभु को लोक के शिखर तक जाने में अधिक समय नहीं लगता। एक समय ही लगता है, अथवा इसी कारण इसे गति भी नहीं कहिये। जहाँ दो तक भी समय लगे वहाँ तो गति का अनुमान बन सकता है। पहिले समय में यह चला और दूसरे समय में यह पहुँच गया। जहाँ तक वर्णन हो कि पहिले ही समय में गया और पहिले ही समय में पहुँच गया वहाँ गति का स्पष्ट अंदाजा नहीं होता। सिद्धों की ऊर्ध्वगति का प्रथम कारण—प्रभु कर्मयुक्त होकर ऊपर ही क्यों जाते हैं? इसका उत्तर तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय में दिया गया है। इसके चार कारण और चार दृष्टांत बताये गये हैं। पहिला कारण तो यह है कि मुनि अवस्था में इस महात्मा ने सिद्ध लोक में विराजे हुए, सिद्ध प्रभुवों का ध्यान किया था। सिद्ध प्रभु लोक के अग्र भाग में विराजे हैं, वहाँ तक भावना और दृष्टि बनी रहा करती थी। इस पूर्वप्रयोग के कारण लोक के शिखर पर इसका ध्यान बना रहा करता था। इस संस्कार के कारण जब यह जीव अभी मुक्त हुआ है तो वहाँ ही सीधा पहुँचता है, इसका दृष्टांत दिया है कि जैसे कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को जिस चाक पर रखता है उस चाक को एक डंडे से घुमाता है। एक मिनट तक तेज घुमा लेने के बाद डंडे को छोड़ देता है और वह अपना काम करता रहता है वह चाक तीन चार मिनट तक घूमता रहता है। चाक को अब घुमाया नहीं जा रहा है। चाक को पहिले घुमाया था, पर ऐसे चाक के घूमने में उसकी वासना के कारण अब वह चाक स्वयमेव घूम रहा है, ऐसे ही साधुसंत महात्मावों ने सिद्ध प्रभु लोक के अंत में विराजमान् हैं इस रूप से ध्यान किया था और वहाँ ही उनका चित्त बना रहता था तो अब कर्मयुक्त होने के बाद यह स्वभावत: उसी दिशा को ऊपर की ओर ही जाता है। सिद्धों की ऊर्ध्वगति के तीन अन्य कारण—सिद्ध प्रभु पूर्ण नि:संग हो गये हैं, इस कारण सिद्धों की गति ऊर्ध्व ही होती है। जैसे कीचड़ से लिपटा हुआ तूमा पानी में मग्न रहता है। जब तूमा से कीचड़ का संग हट जाता है, तूमा नि:संग हो जाता है तब तूमा ऊपर ही जल पर आ जाता है। प्रभु के अष्टकर्मों का बंधन दूर हो गया है सो बंधच्छेद के कारण वे ऊपर ही जाते हैं, जैसे कि एरंडबीज का छिलका फटे तो वह ऊपर को उचटता है। अथवा आत्मा की स्वभावत: ऊपर ही गति होती है, या तो कर्मप्रेरित होकर यत्रतत्र जाता था, अब विरुद्ध प्रेरणा रही नहीं इससे स्वभावत: यह पावन आत्मा ऊपर ही जाता है, जैसे अग्नि ज्वाला की गति स्वभावत: ऊपर ही चलती है। सिद्धक्षेत्र की सिद्धभगवंतों से व्यापकता—जो आत्मा सिद्ध हुए हैं वे ढाई द्वीप के क्षेत्र में से ही हुए हैं। जितना ढाई द्वीप का विस्तार है उतना ही विस्तार सिद्ध लोक का है। वह मुड़कर या कुछ अगल बगलहोकर ऊपर नहीं जाता। जो साधु जिस प्रदेश से मुक्त हुए हैं उस ही के ठीक ऊपर प्रदेश पर ऊपर विराजमान् होते हैं। इस ढाई द्वीप में कोई भी ऐसी जगह नहीं बची जिस जगह से अनगिनते सिद्ध मोक्ष न पधारे हों। लोकव्यवहार में ताजी स्मृति रखने के लिए और कुछ अपने धर्म का साधन बनाने के लिए सिद्धक्षेत्र माने गये हैं। इतने महाराज सोनागिरि से मुक्त हुए, इतने महाराज शिखर जी से मुक्त हुए इत्यादिरूप से यों अनेक तीर्थस्थानों का वर्णन आता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि और जगहों से कोई मोक्ष ही नहीं गया। जहाँ आप इस समय बैठे हैं, जहाँ आपकी रसोई बनती है, जहाँ आप अपनी बैठक में बैठते हैं कहाँ तक कहा जाय—इस ढाई द्वीप के अंदर प्रत्येक प्रदेश पर से अनगिनते मुनि, महात्मा, संत मोक्ष गये हैं। इसलिए हम लोगों का यह निवास क्षेत्र एकएक कण सिद्धक्षेत्र स्थान है। हम जिस तीर्थस्थान पर जाकर वहाँ भावना भाते हैं—यहाँ से अनंत संत, मुनि मोक्ष पधारे हैं वैसे ही यहाँ भी बैठकर यह भावना भायें कि इस जगह से अनंते मुनि, साधु, संत, महाराज मोक्ष पधारे हैं। सिद्धभगवंतों की त्रिलोकशिखरविराजमानता—ढाई द्वीप से जिस जगह से भी जो मुनिजन मुक्त हुए हैं वे ठीक सीधे उसके ऊपर लोक के अंत में जाकर विराजमान हो जाते हैं, वह स्थान तीन लोक का शिखर है। वैसे भी बात बड़ी अच्छी बन गयी—जो पुण्य आत्मा हुए हैं उनका आसन ऊपर ही होना चाहिए। जो तीन लोक के अधिपति हैं, समस्त जीवों में उत्कृष्ट हैं उनका निवास इस लोक में बिल्कुल अंत में हुआ तो यह बड़ी योग्य बात है। हम लोग भी आदरपूर्वक सर्वोपरि विराजमान सिद्ध प्रभु को नमस्कार करने में अपना विनय ही बढ़ा सकेंगे। तीन लोक के शिखर से ऊपर गति-क्रिया साधु, संत, महंतों की सिद्धदशा होने पर भी नहीं है, क्योंकि उसके ऊपर गमन का कारणभूत जो धर्मास्तिकाय द्रव्य है वह नहीं है। दृष्टांतपूर्वक धर्मास्तिकाय की विशिष्टता का समर्थन—धर्मास्तिकाय के लक्षण के दृष्टांत में यह बताया गया है कि जैसे जल का निमित्त पाकर मछलियों की गति होती है और जल का अभाव होने पर मछलियों की गति-क्रिया नहीं होती है ऐसे ही धर्मद्रव्य होने पर जीव, पुद्गलों की गति होती है और धर्मास्तिकाय का अभाव होने पर उस अभाव क्षेत्र में जीव और पुद्गल की गति-क्रिया नहीं होती है। जैसे पानी में मछली चलती है बड़ी कलासहित किलोल करती हुई बड़ी वेग सहित। क्या कभी जल के बाहर भी इस तरह तैरती हुई, किलोल करती हुई, कला सहित तैरती हुई, क्रीड़ा करती हुई मछली देखी है? अरे, गमन करने की बात तो दूर रही, जल को छोड़कर मछली बहुत देर तक जिंदा भी नहीं रह सकती। तो जैसे मछली के गमन में सहकारी पानी है, वह पानी जबरदस्ती मछली को चलाता नहीं, वह जल प्रेरणा नहीं करता कि तू यहाँ खड़ी क्यों रह गयी? तेरे गमन का कारणभूत यह मैं जल, यहाँ उपस्थित हूँ, तू यहाँ क्यों खड़ी है, ऐसी कोई जबरदस्ती नहीं है। वह पानी तो मछली को चलाने में निमित्तभर है। मछली चलना चाहे तो उस जल में चल सकती है, ऐसे ही इस लोक में धर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य है। तो यह धर्मास्तिकाय इस जीव, पुद्गल को जबरदस्ती चलाता नहीं है, किंतु सुविधा है एक। जीव और पुद्गल जब किसी कारण से चलने लगे तो उनके चलने में यह धर्मास्तिकाय सहायक होता है। अधर्मास्तिकाय की विशिष्टता—जैसे इस लोक में धर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य है जो जीव और पुद्गल के चलने में सहायक है, ऐसे ही इस लोक में अधर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य है जो जीव और पुद्गल को ठहरने में सहायक है, जो जीव और पुद्गल चलते जा रहे हैं, वे चलते हुए जीव और पुद्गल ठहरना चाहें, ठहरें तो ठहर सकते हैं। इस ठहरने में निमित्त कारण है अधर्मद्रव्य। यों जैसे धर्मद्रव्य जबरदस्ती जीव पुद्गल, को चलाता नहीं है ऐसे ही अधर्मद्रव्य जीव, पुद्गल को जबरदस्ती ठहराता नहीं है। यदि यह धर्मद्रव्य चलाने में जबरदस्ती करे, अधर्मद्रव्य ठहराने में जबरदस्ती करे तो किसकी जबरदस्ती की विजय हो, जीव पुद्गल की क्या स्थिति बने? एक जबरदस्ती ढकेले, एक जबरदस्ती रोके तो कुछ व्यवस्था भी बन सकेगी क्या? यह धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में और ठहरने में सहायक मात्र है। यह उदासीन निमित्त है। लोकशिखरस्थ होने पर भी सिद्धों की सिद्धत्व के कारण विशिष्टता—सिद्ध प्रभु उस क्षेत्र तक गमन करते हैं एक ही समय में जिस क्षेत्र तक धर्मास्तिकाय द्रव्य स्थित है। यों ही कोई अशुद्ध जीव, संसारी जीव मरकर अपने उपार्जित कर्म के उदयानुकूल लोक के अग्र भाग तक निगोद देह पाने के लिए गमन करे तो वह भी लोक के अग्र भाग तक पहुँचता है। यों जीव स्वभावगति से भी लोक के शिखर तक पहुँचे हुए हैं और विभाव गति से भी लोक के शिखर पहुँचे हुए हैं। भावों की विचित्रता देखिये, उस ही स्थान में सिद्धभगवान तो अनंत आनंद में मग्न हुए विराजे हैं और उस ही स्थान में निगोदिया जीव एक श्वास में 18 बार जन्ममरण करते हैं और संकट भोगते हुए वहाँ तड़फते रहते हैं; उसी क्षेत्र में प्रभु विराजमान् हैं, उस ही क्षेत्र में निगोदिया जीव दु:खी हो रहे हैं, यह सब अपने-अपने कर्मों की और भावों की महिमा है, विचित्रता है। पुद्गलों की गति—पुद्गल में स्वभाव गति हो तो वह भी अधिक से अधिक लोक के शिखर तक पहुँच जाता है। पुद्गल परमाणुवों की गति को स्वभावगति कहते हैं, क्योंकि, वह अणु असहाय केवल अकेला ही गमन कर रहा है। और इस पुद्गल की विभावगति भी लोक के शिखर भाग तक हो जाती है। पुद्गल स्कंधों की गति को विभावगति कहते हैं। दो अणु वाले स्कंध तथा इससे अधिक अणु वाले स्कंध भी लोक के अंत तक गमन करते हैं। जीव के साथ जो तैजस शरीर, कार्मणशरीर गमन कर रहे हैं वह तो अनंत परमाणुवों का समूह स्कंध है। यों पुद्गल की स्वभावगति भी लोक के अग्रभाग तक होती है और पुद्गल की विभावगति भी लोक के अग्रभाग तक होती है। लोकानुप्रेक्षण—इस प्रकरण से हमें अपने ज्ञान और वैराग्य की प्रेरणा के लिए कुछ इस ओर भी दृष्टि डालनी चाहिए कि हम आप जीवों ने अपने ही मिथ्यात्व और कषाय की वेदना को सहकर इस लोक में प्रत्येक प्रदेश पर अनंत बार जन्म लिया है और अनंत बार मरण किया है। इस लोक में एक भी प्रदेश ऐसा नहीं बचा जहाँ हम आपने अनंतबार जन्म न लिया हो और मरण न किया हो। उन अनंत जन्म-मरणों की कुछ आज सुध नहीं है। उन अनंत भवों में जो कुछ समागम संग कुटुंब पाया, उसकी भी आज कोई सुध नहीं है। फिर यह जीव इन चंद दिनों के लिए कुछ समागम पाता है। इससे इनमें इतनी आसक्ति हो जाती है कि इसे किसी अन्य में दया भी नहीं है। किसी अन्य का कोई ख्याल भी नहीं होता है। अपने ही विषयसाधनों की पूर्ति हो, बस एक यही भाव सुहाता रहता है, जैसे चंद दिनों को यह समागम मिला है और इस समागम में इतनी अधिक आसक्ति हो रही है, ऐसे-ऐसे अनंत बार अनेक भवों में समागम पाया था और उस जीवनकाल में इससे भी बढ़-बढ़कर आसक्त होकर उनको माना था, अपनाया था, लेकिन उनमें से आज कोई साथ नहीं है और साथ भी हो तो अन्य पर्यायों को लेकर साथ है। तो पहिले जैसी प्रीति की बात अब क्या निभाई जा सकती है? प्रतिकूल उदय में परिजन द्वारा विघात—पुराण में एक कथानक आया है कि एक सेठ जी धर्मात्मा थे। उन्होंने एक रात्रि को मंदिर में विराजे हुए सामायिक जाप के समय एक दीपक सामने जलाया और यह नियम किया कि यह दीपक जब तक जलता रहेगा तब तक हम ध्यान करेंगे। उसने अंदाज किया कि इसमें इतना घी है कि चालीस—पचास मिनट में समाप्त हो जायेगा, दीप बुझ जायेगा, तब तक अपने ध्यान का काम भी पूरा कर लेंगे। वह तो यह प्रतिज्ञा करके ध्यान में बैठ गया। जब आधा घंटा गुजरने को हुआ तो स्त्री ने देखा कि यह दीपक बुझ जाने वाला है तो उसने घी डाल दिया। फिर आध पौन घंटा बाद देखा कि यह दीपक बुझ जाने वाला है तो फिर घी डाल दिया और यहाँ सेठ ने व्याकुल होकर अपना खोटा ध्यान बनाया और इतना ही नहीं, दिन में भी यही क्रम रहा, रात को भी यही क्रम रहा। वह बेचारा रात-दिन भूखा रहकर मर गया और मरकर हुआ कुएँ का मेंढक। अपने ही महल में जो कुआँ था, चूँकि प्यासा होकर मरा था, वहाँ मेंढक बन गया। भिन्न पर्याय में प्रीतिसत्कार की अशक्यता—जब सेठानी ने दूसरे तीसरे दिन उसमें से पानी निकाला तो वह मेंढक बार-बार सेठानी की गोद में आ जाये, वह हटाये फिर भी उछलकर गोद में आए। तो सेठानी ने एक साधु से पूछा कि यह मेंढक क्यों हमारे पास उचक-उचककर आता है? तो उस साधु ने बताया कि यह तुम्हारा पूर्वजन्म का पति है। तब सेठानी ने मेंढक को बड़े प्रेम से रक्खा, मगर क्या प्रेम करे? मनुष्यभव में जो वचनव्यवहार आदि किया जाता है, मेंढक के साथ क्या हो सकेगा? अरे ! थोड़ा सा कुछ खाने को डाल दिया और क्या करेगा कोई? इसी प्रकार अपने जितने पूर्वभव में कुटुंबीजन थे वे चाहे आज भी मौजूद हों लेकिन दूसरी पर्याय में हैं। हम उनसे क्या प्रेम निभाएँ? लोक में सभी जीव कुटुंबी हुए, सभी प्रदेशों पर जन्म लिया, फिर भी तृष्णा-पिशाचिनी ऐसी लगी हुई है कि न इसे किसी क्षेत्र में संतोष है, न इसे किसी जीव में संतोष है। राग और विरोध करके यह अपनी दुर्दशा बना रहा है। सिद्ध भगवंतों का अभिवंदन—एक निज शुद्ध स्वभाव का आश्रय लें जिसके प्रताप से कर्मकलंकों से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त कर लोक के शिखर पर शुद्ध स्थिति में रहते हुए विराजमान् रहेंगे। ऐसा इस शुद्धोपयोग अधिकार में शुद्धोपयोग के फल को पाने वाले सिद्ध प्रभु का स्मरण किया गया है और साथ ही यह सिद्धांत बताया गया है कि जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों का गमन तीन लोक के शिखर से ऊपर नहीं होता है, क्योंकि गति का उदासीन हेतुभूत धर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य लोक के ऊपर याने बाहर नहीं है। शुद्ध का जो उपयोग करता है वह ऐसे शुद्धोपयोग वाला होता है जो अपने ज्ञान से तीन लोक, तीन काल के पदार्थों के जाननहार होते हैं, उनका अंत में निवास तीनों लोक के शिखर पर हो जाता है। ऐसे वहाँ विराजमान समस्त सिद्ध भगवंतों को हमारा वंदन हो।