वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 185
From जैनकोष
पुव्वावरविरोधो जदि अवणीय पूरयंतु समयण्हा।।185।।
प्रवचन परमागम की भक्ति से इस ग्रंथ में नियम और नियम के फल का निर्देश किया है। यदि इस ग्रंथ में पूर्व और ऊपर में कहीं कोई त्रुटि हो तो उसे दूर करके जो विद्वज्जन हैं, सिद्धांतवेत्ता हैं वे उसकी पूर्ति करें।
नियम और नियम के फल का निर्देश—नियमसार ग्रंथ में अब ग्रंथ समाप्ति के प्रकरण को लेकर तीन गाथाएँ आयेंगी। उन गाथावों में से यह प्रथम गाथा है। नियमसार ग्रंथ में नियम का वर्णन किया गया है, नियम का अर्थ है रत्नत्रय। अपने आत्मा को अपने आत्मा में ही नियत कर देना सो नियम है। जब जीव को निज सहज विशुद्ध ज्ञानदर्शनात्मक अंतस्तत्त्व का श्रद्धान् होता है और इसका ही यथार्थ परिज्ञान होता है एवं ऐसा ही ज्ञानदर्शनस्वरूप शुद्ध चिदात्मक आत्मतत्त्व में उपयोग का अनुष्ठान होता है तब इस जीव के नियम की सिद्धि होती है। उस नियम को पालने का फल प्राप्त होता है, परमनिर्वाण। परसंपर्क का विपाक—इस जीव की हितकारी अवस्था मुक्त अवस्था है। संसार अवस्था में कुछ भी वैभव मिले, कुछ भी पुण्य-समागम मिले उस पर आस्था न करिये। ये सब दु:खी करने के लिए हैं। बाह्य पदार्थों का समागम और तद्विषयक अभिलाषा ये आनंद के लिए नहीं मिले हैं, किंतु क्लेश उत्पन्न करने के लिए मिले हैं। एक आत्मा के विशुद्ध ध्यान के बिना जो भी विकल्पजाल उत्पन्न होता है वह सब क्लेश के लिए ही होता है। धनार्जन का उद्यम करने में कितने विकल्पजाल गूँथे जाते हैं, उससे पहिले उद्यम के समय और अर्जन के बाद सर्वदा दु:खी होना पड़ता है याने इसके प्रारंभ में भी क्लेश, इसकी प्राप्ति में भी क्लेश और इसके अंतकाल में भी क्लेश है। जो कुछ वैभव जुड़ा है इसका अंतिम फल तो वियोग ही है, चाहे यह वैभव अपने जीवन में अपने से बिछुड़ जाय या मरण काल में एक साथ ही सब बिछुड़ जाय, पर जो संयोग हुआ है, जिसका समागम है उसका नियमत: वियोग है। सद्भावना और असद्भावना का प्रभाव—जो जीव इस समागम को पुण्ययानुसारी नहीं मान सकता है और अपने इस झूठे बल का गर्व करता है मैं कमाने वाला हूँ, मेरे करने से ही ये सब होता है, इस तरह की जो कर्तृत्वबुद्धि लगाये हैं उनका यह सोचना बिल्कुल भ्रमपूर्ण है, बल्कि ऐसे भ्रम के पाप करने से पुण्य का क्षय होता है और विनाश से संपदा आनी हो तो भी नहीं आती है। लोगों का आज यह ख्याल बन गया है कि धनका अर्जन बेईमानी और अन्याय से ही हुआ करता है। अर्जन तो पुण्य के अनुसार होता है। यदि सद्भावना रक्खो तब भी आयेगा, असद्भावना करो तब पुण्यानुसार आयेगा। सद्भावना से लाभ यह होता है कि कुछ समय तक ये समागम और रह सकते थे, किंतु असद्भावना, झूठ, बल, धोखेबाजी आदि से संचित किया हुआ धन बहुत काल तक नहीं टिक सकता है। जैसे कि लोग यह देख रहे हैं कि अन्याय से कमाया हुए धन को जरा-सी देर में न जाने कितने टिल्ले लग जाते हैं, क्या अचानक उपद्रव आ जाता है कि यह संचित धन समाप्त हो जाता है और जो न्यायवृत्ति से अपना जीवन गुजारा करते हैं चाहे उनकी आय कम हो लेकिन जीवन स्थिरतापूर्ण होता है। धर्मभावना का परिणाम—भैया ! इन बाह्य पदार्थों को भिन्न, असार, अहितकर जानकर उनसे उपेक्षा भाव करो। उनके पीछे आसक्ति का परिणाम रहेगा तो क्लेश ही रहेगा, आनंद नहीं मिल सकता है। आनंद इन बाह्य पदार्थों में हो, तो मिले। ये तो केवल रूप, रस, गंध, स्पर्श के पिंड हैं। इनमें आनंद अथवा ज्ञान नाम का तत्त्व ही नहीं है, वहाँ फिर आनंद की आशा करना एक भ्रम ही है। अच्छा, प्रभु की वंदना-पूजा करना किस लिए है? उसका सही प्रयोजन तो बतावो? कुल पद्धति से अथवा अपना जीवन विषय-सुखपूर्ण व्यतीत हो, इस भावना से यदि हम पूजन करने आते हैं तो हमने न उससे पुण्य बांधा और न शांति पायी। अधर्मभावना का फल वर्तमान में भी आकुलता करना है और भविष्यकाल में भी आकुलता करने वाला है, किंतु धर्मभावना तत्काल भी शांति देती है और भविष्यकाल भी शांति देती है। मूल में धर्मपालन—धर्म मायने हैं आत्मा का स्वभाव आत्मा में केवल प्रतिभास का स्वभाव है। जो जैसा है तैसी मुझमें झलक आ जाय यही मेरा स्वभाव है और स्वाभाविक कार्य है, इस धर्म की दृष्टि रखना। मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ और स्वाभाविक कार्य है इस धर्म की दृष्टि रखना। मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, समस्त परपदार्थों से न्यारा हूँ, ऐसा सबसे विविक्त अपने आपमें तन्मय अपने आपकी सुध लेना सो ही धर्म का पालन है। धर्म वहाँ होता है जहाँ अहंकार और ममकार नहीं है। अहंकार व ममकार से विविक्तता की दृष्टि—अहंकार व ममकार, ये दोनों ही मिथ्यात्व हैं। जो मैं नहीं हूँ उस रूप अपने को मानना यह मिथ्यादर्शन है। मैं देहरूप नहीं हूँ पर देहरूप ही अनुभव करना यह मिथ्यात्व है। कुछ थोड़ा सा लोगों के द्वारा अपमान हो जाय, कोई झूठ बात कह दे, गाली-गलौज की बात कह दे तो यह क्लेश अनुभव करता है। यह मोह और मिथ्यात्व का ही तो प्रताप है। जरा विचार तो करो कि उस कहने वाले ने किसे कहा? इस देह को देखकर कहा है तो देह तो जानता भी नहीं कुछ, फिर अपमान अनुभव करने का कहाँ अवसर है? वह यदि आत्मा को देखकर कहता है तो ऐसा कह ही नहीं सकता था। इसलिए जो भी अपमान, अपयश, निंदा आदि कुछ भी परिणमन करता है वह खुद का ही भ्रम करता है मेरा कुछ नहीं करता है। मैं तो ज्ञानानंदमात्र एक शुद्ध चेतन हूँ, इस प्रकार अपने को जो ज्ञानस्वरूप निहारता है, देह में अहंकार नहीं करता वह पुरुष सम्यग्दृष्टि है। इस ही प्रकार अहंकार न होने के कारण समस्त बाह्य पदार्थों में ममकार का भी अभाव हो जाता है। मेरा तो मात्र मेरा स्वरूप है, मेरे तो मात्र ज्ञान-दर्शनादिक गुण ही मेरे हैं, ये जड़ धन, वैभव, राज्य ये सब मेरी कुछ भी वस्तु नहीं हैं। इनमें ममकार करना केवल क्लेश और पापबंध का ही कारण है, यों जो पुरुष अहंकार और ममकार से रहित हो जाता है उसका नियम पलता है।
रत्न—यहाँ नियम का अर्थ है शुद्ध रत्नत्रय। रत्न कहते हैं सारभूत वस्तु को। जो जिस जाति में उत्कृष्ट है वह उस जाति का रत्न कहलाता है। रत्न का अर्थ हीरा, जवाहिरात नहीं है। रत्न का अर्थ है श्रेष्ठ तत्त्व। जब मोही जीवों की दृष्टि पौद्गलिक वैभव में ही फँसी तो उनके लिए तो श्रेष्ठ तत्त्व हीरा, जवाहिरात ही जँचे और उन्होंने उनका नाम रत्न रख लिया। रत्न शब्द का शुद्ध अर्थ है सारभूत चीज। ज्ञानी पुरुषों को सारभूत तत्त्व अपने आत्मा का श्रद्धान, अपने आत्मा का ज्ञान और इस ही रूप आचरण करना जँचा है। ज्ञानियों की दृष्टि में रत्न है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र। इसका फल है परमनिर्वाण, जहाँ किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं है, न शारीरिक वेदना है, न मानसिक बाधा है और न कोई प्रकार का विसंवाद है। शुद्ध आनंद की स्थिति है जो अपने को केवल निरखने से प्राप्त होती है। ज्ञानी के यही एक मात्र निर्णय है।
आशापरिहार से ही यथार्थ विश्राम—भैया ! इस मनुष्य जीवन को पाकर एक शुद्ध पंथ में अपने को न लगा पाया और इस जड़, असार, वैभव-समागम प्रसंगों में ही अपने को फँसाया जाता रहा तो मनुष्य जन्म तो यों ही निकल ही रहा है। कुछ ही दिनों में मनुष्य भव छूटेगा, फिर नहीं पता कि कीड़े-मकौड़े की क्या स्थितियाँ बनेंगी, फिर क्या कर लेंगे? कैसी मोह की लीला है—यह जो समागम मिला है उसमें भी संतोष नहीं है। तृष्णा का ऐसा प्रसार बना हुआ है कि अनेकों से अनेक गुना प्राप्त होने पर भी जो पाया है उसका भी आराम नहीं पाया जा सकता है क्योंकि दृष्टि तृष्णावश और आगे की हो गई है। कभी किसी की तृष्णा की पूर्ति हो सकती है क्या? यह आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि इसमें तीन लोक के पुद्गलों का कूड़ा-करकट भी भर दिया जाय तो भी आशा का गड्ढा पूरा नहीं हो पाता, बल्कि ज्यों-ज्यों इसमें वैभव भरा जाय, त्यों-त्यों यह आशा का गड्ढा चौड़ा होता जाता है। संतों के अनुभव का लाभ—अहो ! पवित्र जैन शासन को पाकर इसके लाभ से वंचित रह जायें अपन, तो इससे बढ़कर विषाद की बात कुछ हो ही नहीं सकती, जिन ऋषि-संतों ने बड़ा राज्य वैभव, त्यागकर तपस्या के बाद ध्यान और अनुभव किया उन्होंने हम सब जीवों पर करुणा करके अनुभूत तत्त्व ग्रंथों में लिख दिया। जो बड़ी कठिन तपस्या का अनुभव हो सकता था वह जब हमें सीधे स्पष्ट शब्दों में आज मिल रहा है तिस पर भी हम इसकी उपेक्षा करें और ज्ञानार्जन की ओर अपना प्रयत्न न बनाएँ तो इससे बढ़कर विषाद की बात और क्या हो सकती है? आत्मविश्वास और प्रभु के महत्त्व का अंकन—यह भौतिक समागम अविश्वसनीय है, इसका कुछ भरोसा नहीं है, आज है कल नहीं, अथवा जब है तब भी दु:ख के लिए है, वैभव कभी-कभी तो मनुष्य के प्राण हरने का कारण बन जाता है। वैभव में कौनसी शांति है? शांति तो मात्र एक आत्मा के स्पर्श में है। बाह्य विकल्पों से छूट कर अपने आपके अंतरंग में अपने ज्ञान का प्रवेश हो, स्पर्श हो तो वहाँ आनंद मिलेगा, अन्यत्र आनंद नहीं है, हम इस बात पर यदि विश्वास नहीं करते हैं तो प्रभु का पूजन करना, दर्शन करना यह सब कोरा ढोंग है। जब हम प्रभु की महत्ता को महत्त्व ही नहीं देते हैं, प्रभु में क्या गुण प्रकट हुआ है, उसका जब तक चित्त में महत्त्व नहीं है, महत्त्व बसा हो जड़ भौतिक पदार्थों में तो हमने प्रभु को क्या पूजा? किसी का महत्त्व समझना ही उसकी वास्तविक उपासना और भक्ति है। प्रभु समस्त कर्मों से मुक्त हैं, उनके ऐसा ज्ञान प्रकट हुआ है कि समस्त लोकालोक को एक साथ स्पष्ट जानते हैं। इन प्रभु के ऐसी परमनिर्दोषता है, रागद्वेष की तरंग अब त्रिकाल भी भविष्य में कदाचित न उठ सकेगी। पूर्ण शुद्ध हो गये हैं, शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा ही रह गये हैं। इस ही स्थिति में वास्तविक आनंद है, इसके बिना जो हम आपकी स्थितियाँ गुजर रही हैं ये धर्म की स्थितियाँ नहीं हैं। दु:खपूर्ण स्थितियों को सुख मानने का भ्रम बनाये रहें तो इससे लाभ कुछ न होगा। नियम शुद्ध आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण है, और इस नियम के पालन का फल परमनिर्वाण है; जहाँ किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं है, न होई कलुषता है। यह आत्मा निर्वाण में विशुद्ध परम पदार्थ हो जाता है। ग्रंथरचना का सत् उद्देश्य—इस ग्रंथ की समाप्ति के प्रसंग में आचार्यदेव यह कह रहे हैं कि इस ग्रंथ में यदि कदाचित कहीं पूर्वापरविरोध हो तो विद्वत्जन उसकी पूर्ति करें। विद्वत्ता के घमंड से इस ग्रंथ का प्रतिपादन हमने नहीं किया है या कवित्व के अभिमान से इन गाथावों को नहीं रचा है, किंतु एक प्रवचन की भक्ति से भगवान सर्वज्ञदेव द्वारा प्रणीत जो परमागम है उसमें मुझे तीव्र भक्ति हुई, इस परमागम में क्या रत्न भरे हुए हैं संकटों से मुक्त होने का इसमें कैसा सुगम उपाय कहा गया है, उन सब श्रेष्ठ तत्त्वों के दर्शन से प्रेरित होकर इस ग्रंथ का प्रतिपादन किया है। जिस जीव की जो लगन हो जाती है वह अपनी लगन के अनुसार अपनी धुन में अपना काम करता है। इन आचार्यसंतों के एक शुद्ध पथप्रकाश करने की लगन लगी थी, इन्हें अपने पूजन, वंदन की चाह नहीं थी, केवल एक ही धुन थी, जो वस्तुस्वरूप है, जो मोक्ष का विशुद्ध मार्ग है, शांति पाने का परमार्थभूत उपाय है वह सबको विदित हो, और सब अपने इस सहजस्वरूप के दर्शन से संकटों से मुक्त हों, इस ही धुन के लिए हुए आचार्य संतों का ध्यान था। उनकी कृति फिर किसी अभिमान के लिए कैसे हो सकती है? जिसे एक विशुद्ध कार्य बनाने की ही धुन हो उसको घमंड का अवसर कैसे हो सकता है? इसलिए वे यहाँ यह कह रहे हैं कि यदि पूर्वापर कोई दोष हो तो उसे दूर करके जो उत्तम तथ्य की बात हो उस पदरूप कर देवें। आचार्यदेव की निरभिमानता—देखिये, आचार्यदेव की कितनी निरभिमानता है? इतने महान् ऋषि संत कुंदकुंदाचार्यदेव के संबंध में उनकी विद्वत्ता को कौन वर्णन कर सकता है और आध्यात्मिकता की भी कौन थाह पा सकता है, जिसमें अध्यात्मरस इतना विशाल पड़ा हुआ है। यदि ऐसे-ऐसे ये ग्रंथ न होते तो आज हम सब कैसे उस अध्यात्मशांति के मार्ग पर जा सकते थे, इतनी विशाल विद्वत्ता के बावजूद भी वह अपनी लघुता प्रकट कर रहे हैं। समयसार में ऐसी लघुता भूमिका में ही सर्वप्रथम प्रकट की गयी है। समयसार में उन्होंने आत्मा का शुद्ध एकत्व बताया है अर्थात् अपने स्वरूप से जो सत् है और पर के स्वरूप से सत् नहीं है ऐसा जो आत्मस्वरूप है उसको बताने के प्रकरण में कहा है कि मैं इस शुद्ध आत्मा को दिखाऊँगा। यदि दिखा दूँ तो तुम सब अपने ज्ञान से प्रमाण करके मान लेना और यदि न दिखा सकूँ तो छल ग्रहण न करना कि अध्यात्म कुछ चीज नहीं है, ऐसा दोष न ग्रहण करना, आगे कोशिश करना। प्रत्येक वस्तु की विविक्तता—इन बाहरी चीजों के प्रेम में तुम कुछ लाभ भी पावोगे क्या? अपने आपका स्वरूप ही न जान पाया तो तुम्हारा झुकाव फिर कहाँ रहेगा? किसी बाहरी पदार्थ की ओर जावोगे, वहाँ शरण ढूँढ़ोगे तो वह तो ऐसा अलग है जैसे पानी के ऊपर मिट्टी का तेल तैरता है। पानी से मिट्टी का तेल बिल्कुल विमुख रहता है। तैल पानी के स्वरूप को जरा भी ग्रहण नहीं कर सकता, वह बिल्कुल भिन्न रहता है। एक पात्र में रहकर भी तैल तैल की ओर रहता है, पानी पानी की ओर रहता है। ऐसे ही समझिए कि एक ही जगह में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छहों द्रव्य हैं। जहाँ आप विराजे हैं वहाँ भी छहों द्रव्य हैं, पर वे छहों के छहों द्रव्य अपने-अपने स्वरूप की ओर ही बने हुए हैं, किसी दूसरे स्वरूप की ओर नहीं हैं—ऐसी स्वतंत्रता है प्रत्येक पदार्थ में। तू उसका भान न करके अपने में अहंकार और ममकार यदि बनाता है तो इसका फल उत्तम नहीं है। जहाँ भी तू अपना उपयोग जोड़ेगा, जिस परपदार्थ में अपना चित्त लगायेगा, वह पदार्थ तो खुद के स्वरूप की ओर झुका है, तेरी ओर तो कुछ ख्याल भी नहीं करता। फिर तेरा उससे उत्थान कैसे होगा? देख मत झुक बाहरी पदार्थों की ओर। यह भोग कठिन रोग है। सर्प के विष से भी कठिन विष है। इन विषयों की ओर, भोगों की ओर, साधन की ओर अपनी दृष्टि न फँसाकर धर्म की ओर दृष्टि कर। धर्माश्रय बिना जीवन की शून्यता—भैया ! धर्म का तो कुछ ख्याल प्रत्येक मनुष्य करता है, पर सही रूप में कर सके तो लाभ है। किसी भी मनुष्य का धर्म का कुछ भी बाना पहिने बिना गुजारा नहीं हो सकता। किसी न किसी रूप में प्रत्येक मनुष्य धर्म का सहारा लेता है, परंतु यथार्थस्वरूप में धर्म का सहारा मिल जाए तो बेड़ा पार हो जाता है। यथार्थस्वरूप क्या है? अपने आपको खोजो। मैं स्वयं अपने आप क्या हूँ? बस इतने निर्णय में ही आपको धर्म का दर्शन करना होगा। यह आत्मा भगवान साक्षात् सहजस्वयं धर्मस्वरूप है। इस धर्मस्वरूप आत्मतत्त्व का दर्शन करना ही धर्म का पालन है और इस धर्मपालन के प्रसाद से अंतिम शुद्ध अवस्था उत्कृष्ट ज्ञानमय होने की है। शुद्ध उपयोग के यत्न का अनुरोध—इस ग्रंथ में अंतिम अधिकार है शुद्धोपयोग का। अपना उपयोग शुद्ध रखा जाए। निज शुद्ध तत्त्व का उपयोग किया जाए तो यह उपयोग इतना विशुद्ध हो जाता है कि समस्त लोकालोक का जाननहार हो जाता है। यहाँ हम कितना जानते हैं और उसी पर गर्व मचाते हैं। हम यहाँ क्या आनंद पाते हैं? झूठा मौज, भ्रम भर हर्ष। केवल भ्रम में ही उछलकूद मचाते रहते हैं। तेरा स्वभाव अनंत आनंद का है, जो सीमारहित है, जिसका कभी विनाश भी नहीं हो सकता। पूर्ण निराकुलता का तेरा स्वभाव है। अपने इस स्वभाव को न देखकर बाहरी पदार्थों में दृष्टि फँसाकर व्यर्थ क्लेश कर रहा है। यह नियमसार अर्थात् शुद्ध रत्नत्रय मुक्ति का कारणभूत है। उस नियमसार का फल परमनिर्वाण है। इसकी रचना कुंदकुंदाचार्यदेव ने प्रवचन की भक्ति से की है। जिस परमागम से उनका उपकार हुआ है, उस परमागम के प्रति कृतज्ञ होकर परमागम की भक्ति से उनकी यह रचना हुई है। इस मार्ग पर जो चलेगा वह भव्य जीव निर्वाण को प्राप्त करेगा। हम आचार्यजनों के करुणामयी श्रम का लाभ उठायें, अपने शुद्ध स्वरूप की दृष्टि करें और इस शुद्ध आत्मतत्त्व के दर्शन से अपने इस दुर्लभ धर्मसमागम को सफल करें।