वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 53
From जैनकोष
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा।
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी।।53।।
सम्यक्त्व का निमित्त जिनसूत्र है तथा जिनसूत्र के ज्ञायक पुरुष हैं अंतरंग कारण दर्शन मोहनीय के क्षय, क्षायोपशम, उपशम हैं। यहाँ बाह्य निमित्त और अंतरंग निमित्त कहने से यह घटित होता है कि बाह्य निमित्त तो परक्षेत्र में रहने वाले परपदार्थ हैं और अंतरंग निमित्त निज क्षेत्र में रहने वाला परपदार्थ हैं। जिन भगवान् द्वारा प्रणीत सूत्र, शास्त्र, ग्रंथ, उपदेश शब्दवर्गणाएं चाहे लिपि रूप हों अथवा भाषा रूप हों, वे सब सम्यक्त्व के बाह्य निमित्त ही हो सकते हैं। बाह्य निमित्त के होने पर सम्यक्त्व हो अथवा न हो, दोनों ही बातें संभव हैं। कोई पुरुष शास्त्रों का बहुत ज्ञाता है, फिर भी सम्यग्दर्शन न हो ऐसी भी बात हो सकती है। किसी पुरुष को जिनसूत्र का ज्ञायक पुरुषों का उपदेश भी मिला, किंतु अंतरंग हित न बने तो सम्यक्त्व नहीं होता। यह जीव साक्षात् समवशरण में भी पहुंचकर दिव्यध्वनि भी सुने, इससे अधिक बाह्य में क्या निमित्त कहा जा सकता है, कोई वैसा साधारण वक्ता भी नहीं, गुरु भी नहीं, किंतु साक्षात् भगवान् और फिर उनकी दिव्यध्वनि का श्रवण, इतने पर भी सम्यक्त्व न हो सके ऐसे भी कोई जीव वहाँ थे। ये सब बाह्य निमित्त हैं।
अंतरंग निमित्त दर्शनमोहनीय का उपशम क्षय आदिक हैं। सम्यग्दर्शन होने के लिए 5 लब्धियां हुआ करती हैं क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशणालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि। यह विषय सैद्धांतिक भी है, कुछ कठिन भी है पर इस विषय को भी जानना पड़ेगा, इस कारण ध्यानपूर्वक सुनिये, बार-बार सुनने पर वही विषय सरल हो जाता है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति में 5 कारण पड़ते हैं।
क्षायोपशमलब्धि―खोटी प्रकृतियों का अनुभाग उत्तरोत्तर शिथिल हो, क्षीण हो ऐसी परिस्थिति बने उसका नाम है क्षायोपशमलब्धि। यह जीव अनादिकाल से निगोद में बसा चला आया हैं, कोई कभी निकला कोई कभी निकला, निगोद से निकलने के बाद दो हजार सागर के करीब त्रसभव में रहने का और असंख्यातों वर्ष स्थावरों में रहने का, इतना समय गुजरने के बाद यह जीव मुक्त हो जाय तो ठीक है, हो गया, न हुआ मुक्त तो फिर निगोद में आना पड़ता है। इस जीव का निगोद में समय अधिक बीता। जब कभी सुयोगवश यह निकला, मानों पंचेंद्रिय हो गया तो समझ लीजिए कि क्षायोपशमलब्धि तो मिल गई। हम आपको क्षायोपशमलब्धि तो है ही। जहां इतना ऊंचा ज्ञान है कि बड़े-बड़े विभागों के हिसाब रख लें, प्रबंध कर लें, उस ज्ञान में क्षायोपशम कम है क्या? तो क्षायोपशमलब्धि है।
दूसरी लब्धि है विशुद्धिलब्धि। इस क्षायोपशमलब्धि की प्राप्ति के कारण आत्मा में ऐसी विशुद्धता बढ़ती है कि जो साता वेदनीय के बंध करने का हेतुभूत हो, उस विशुद्धि की प्राप्ति हो; इसका नाम विशुद्धलब्धि है। तो यह अंदाज रखिए कि हम लोगों को विशुद्धलब्धि की भी प्राप्ति हो चुकी। तीसरी लब्धि है देशणालब्धि। जिन सूत्र के ज्ञायक पुरुष उपदेश करते हुए मिलें, उनके उपदेश सुन सकें और उस उपदेश को हृदय में उतार सकें―ऐसी योग्यता प्राप्त होने का नाम है देशणालब्धि। तो प्राय: देशणालब्धि भी प्राप्त है―ऐसी योग्यता तो है ही। उपदेश ग्रहण कर सकते हैं।
चौथी लब्धि है प्रायोग्यलब्धि। इस प्रायोग्यलब्धि के बारे में कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता, पर इसकी भी योग्यता तो बनी ही हुई है, किन्हीं को हुई भी है। प्रायोग्यलब्धि का अर्थ यह है कि ऐसा निर्मल परिणाम होना कि अनेक कोड़ा-कोड़ी सागरों की स्थिति के कर्म जो सत्त्व में पड़े हुए हैं, उनकी स्थिति घटकर अथवा नवीन कर्म जो बांधे जा रहे हैं, उनका बंधन घटते-घटते अंत:कोड़ाकोड़ी सागर की ही स्थिति रह जाए, इतना बड़ा काम प्रायोग्यलब्धि में है। तो क्या कहा जावे अब? इस प्रायोग्यलब्धि में इतनी निर्मलता बढ़ती है कि स्थितिबंध भी कम-कम हो जाता है।
प्रायोग्यलब्धि में 34 मौके ऐसे आते हैं जिसमें नीयत प्रकृतियों का बंध विच्छेद हो जाता है। प्रायोग्यलब्धि में जीव अभी मिथ्यादृष्टि है; सम्यग्ज्ञान नहीं हुआ है। ये तो सम्यक्त्व के साधन हैं, फिर भी प्रायोग्यलब्धि में इतनी बड़ी निर्मलता होती है कि कुछ समय बाद याने जब स्थितिबंध कम होते-होते पृथक्त्व शत सागर कम हो जाता है तो नरक आयु का बंध कट जाता है; फिर नरक आयु बंध सके, ऐसा उसमें लेश परिणाम नहीं रहता है। थोड़ी देर बाद पृथक्त्व शतसागर कम स्थितिबंध होने पर फिर तिर्यंच आयु का बंध मिट जाता है, फिर यों ही मनुष्यायु का और फिर देवायु का बंध रुक जाता है। पश्चात् नरकगति नरकत्यानुपूर्वी का बंधविच्छेद होता है। इसके बाद फिर सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण का या 34 बार में अनेक प्रकृतियों का बंध रुक जाता है। आप समझिए कि कितनी निर्मलता है इस मिथ्यादृष्टि जीव में? कई जिन प्रकृतियों का छठे गुणस्थान में बंध रुकता है, उनका बंध इस मिथ्यादृष्टि के भी प्रायोग्यलब्धि में बंधने से रुक जाता है, इतनी निर्मलता है। इतने पर भी ये चार लब्धियां भव्य के भी हो सकती हैं और अभव्य के भी हो सकती हैं। जिनमें मुक्ति जाने कि योग्यता न हो तो ऐसे अभव्य में भी प्रायोग्यलब्धि तक हो जाती है।
इसके बाद 5 वीं जो करणलब्धि है, यह उसी के होती है जिसको नियम से सम्यक्त्व होने वाला है―ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को करणलब्धि मिलती है। करण के मायने हैं परिणाम अथवा कर्ण के मायने हैं शस्त्र या हथियार, जिसके द्वारा शत्रु का विनाश किया जाए। जीव का प्रधान बैरी है मिथ्यात्व, उसका विनाश करने की जिसमें शक्ति है, ऐसा यह परिणाम है। अत: इन परिणामों का नाम करण रक्खा गया है। ये तीन होते हैं―अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। यह सब ज्ञान करना सिद्धांत में, विज्ञान में अति आवश्यक है। ये तीनों करण सम्यक्त्व उत्पन्न करके के लिए ही हों, ऐसी बात नहीं है। सम्यक्त्व के लिए भी ये तीन करण होते हैं और चारित्र मोह का नाश करने के लिए विसंयोजन आदि के लिए भी ये तीन करण होते हैं।
चारित्र मोह का नाश करने के लिए जो ये तीन करण होते हैं, उनमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम के तो गुणस्थान ही बता दिए गए हैं 8 वां और 9 वां। अध:प्रवृत्तकरण हो जाते हैं 7 वें गुणस्थान में। 7 वें गुणस्थान के दो भेद हैं―एक स्वस्थान व दूसरा सातिशय। स्वस्थान अप्रमत्त तो ऊपर की श्रेणियों में चढ़ नहीं सकता। यह नियम से नीचे आएगा और सातिशय अप्रमत्तविरत ऊपर की श्रेणी पर चढ़ेगा, चाहे उपशम श्रेणी में चढ़े या क्षपकश्रेणी में चढ़े। वह 8 वें में अपूर्वकरण हुआ और 9 वां गुणस्थान अनिवृत्तिकरण का हुआ। ये तीनों करण चारित्रमोह को उपशम या क्षय करने के लिए हुए हैं। ऐसे ही ये तीन करण मिथ्यादृष्टि में सम्यक्त्व उत्पन्न करने के लिए होते हैं।
उन गुणस्थान वाले करणों से इन करणों का कोई मेल नहीं है। वहाँ की बात वहाँ की निर्मलता की हैं और मिथ्यात्व अवस्था में यहाँ की बात है, पर नाम एक ही क्यों रक्खा गया, उनका भी यह नाम हे और मिथ्यात्व में होने वाले इन करणों का भी यह नाम है। तो नाम एक होने का कारण स्वरूपसाम्य है। इसका स्वरूप क्या है? अध:प्रवृत्तकरण की साधना में अनेक जीव लग रहे हैं। मानो कि किसी जीव को अध:प्रवृत्तकरण में लगे हुए तीन समय हो गए और किसी जीव को अध:प्रवृत्तकरण में लगे हुए एक ही समय हुआ तो साधारण कायदे मुताबिक तो यह होना चाहिए कि जिसको तीन समय हो गए हैं अध:करण में पहुंचे हुए उसके निर्मलता अधिक होनी चाहिए, किंतु ऐसा भी हो सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि उस तीन समय अध:करण के परिणाम के समान ही आत्मा में एक समय अध:करण का भी हो, इसी से इसका नाम अध:प्रवृत्तिकरण है अर्थात् ऊपर के स्थानों के परिणाम बराबर नीचे स्थान के परिणाम हो सकें तो उसका नाम है अध:करण।
अपूर्वकरण नाम है अगले-अगले समय में अपूर्व-अपूर्व परिणाम हो, नीचे के समयों में ऊपर के समान न रहना। जैसे किसी को अपूर्वकरण में पहुंचे हुए तीन समय हो गए हैं और किसी को दो ही समय हुए हैं, वहाँ तीसरे समय वाले के परिणाम निर्मल होंगे और दो समय वाले के परिणाम उससे कम निर्मल होंगे, किंतु उस तीसरे समय में ही मानों 10 साधक हैं तो उनमें परस्पर में मिल भी जाए परिणाम और न भी मिले तो वहाँ यह बात हो सकती है, पर नीचे के समय में आत्मपरिणाम मिल ही नहीं सकता है, इसका नाम है अपूर्वकरण।
अनिवृत्तिकरण में आत्मा ऊपर के नीचे तो मिलेगा ही नहीं और विवक्षित किसी समय में अनेक साधक हैं तो उनका परिणाम बिल्कुल एक होगा। सदृश विसदृश की बात नहीं है, उसे कहते हैं अनिवृत्तिकरण। कुछ इसे एक व्यवहारिक दृष्टांत से सुनिए, जिससे शीघ्र समझ में आएगा कि यह करण परिणाम क्या है?
किसी बड़े काम के करने की तैयारी तीन बार में पूर्ण होती है। जैसे कोई बड़ा काम हो, बच्चों का टूर्नामेंट हो रहा हो, उसमें यदि दौड़ का काम है तो सब बच्चे एक लाइन में खड़े होकर वहाँ बोला जाएगा कि वन, टू, थ्री। तीसरी बोली में काम शुरू हो जाएगा। यों ही उस सम्यक्त्व की तैयारी के वन, टू, थ्री ये तीन करण हैं। पहिले अध:करण में कुछ तैयारी जगती है, अपूर्वकरण में विशेष तैयारी होती है और अनिवृत्तिकरण के बाद ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है।
करणपद्धति परिज्ञान के लिए एक दृष्टांत लो कि मानों कहीं 40-50 सिपाही गप्पें मार रहे हों, टेढ़े मेढ़े बैठे हों और अचानक की कोई कमांडर बुलाए तथा हुक्म दे तो वे सब सिपाही ढंग से पहुंचने चाहिए। एक सी लाइन हो, लेफ्ट राइट भी ठीक हो और बड़ी कुशल तैयारी के साथ पहुंचने चाहिए। तो अब ऐसे बिखरे हुए, गप्प मारते हुए सिपाही कमांडर का हुक्म सुनते ही तैयार होकर आ गए। पहिली तैयारी में उनकी लाइन बननी शुरू हो गई, पर उस लाइन में अभी पूरी सफलता नहीं हुई, लाइन कुछ तो टेढ़ी मेढ़ी बन गयी और दूसरी तैयारी में लाइन बिल्कुल सीधी हो गई, पर अभी लेफ्ट राइट में फर्क रह गया। एक से हाथ पैर उठने चाहिए, एक सी चाल होनी चाहिए, अभी इसमें कुछ अंतर है, पर तीसरी बार की तैयारी में लेफ्ट राइट भी सुधर गया, एक सी चाल में पूरी तैयारी के साथ लेफ्ट राइट करते हुए पहुंच गए। तीन तैयारियों में जैसे सिपाही अपने लक्ष्य पर पहुंच गए, ऐसे ही अध:करण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण इन तीनों परिणामों के साधनों से यह जीव लक्ष्य को सिद्ध कर लेता है।
इन करणलब्धियों के काल में वे सब प्रकृतियां उपशांत हो जाती हैं या क्षय को प्राप्त हो जाती हैं। जो प्रकृतियां सम्यक्त्व की बाधक हैं और वहाँ सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है, तब यह जानो कि सम्यग्दर्शन का बाह्य निमित्त तो वह जिनसूत्र है, स्वाध्याय है, उपदेश श्रवण है, ज्ञानियों का सत्संग है और अंतरंग निमित्तकारण इन 7 प्रकृतियों का उपशम क्षय अथवा क्षायोपशम है। जिन 7 प्रकृतियों में सम्यक्त्व की बाधकता है, वह है मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया व लोभ। इन 7 प्रकृतियों का क्षय आदिक होना अंतरंग कारण बताया गया है। सम्यक्त्व परिणाम का बाह्य सहकारी कारण तत्त्वज्ञान है।
सम्यक्त्व न हो उसका नाम है मोहपरिणाम। मोहपरिणाम का अर्थ है कि भिन्न-भिन्न पदार्थों में एक दूसरे का अधिकारी तकना, संबंधी देखना, कर्ता देखना, भोक्ता देखना, इसी का नाम मोह है। मैं अमुक का मालिक हूं, मैं अमुक का अधिकारी हूं, अमुक काम को करने वाला हूं और अमुक भोग का भोगने वाला हूं―ऐसी बुद्धि का नाम मोहभाव है। इस बुद्धि के समाप्त होते ही निर्मलता जगती है। यह बुद्धि कैसे मिटे? जब तत्त्वज्ञान बने। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र अपने-अपने स्वरूपमात्र है। किसी भी पदार्थ का अन्य पदार्थ के साथ कुछ संबंध नहीं है। सर्वपदार्थ स्वतंत्र-स्वतंत्र अपने स्वरूपमात्र हैं―ऐसी बुद्धि जग जाने को निर्मोह अवस्था कहते हैं। यह बात तत्त्वज्ञान के बल से ही बन सकती है। तत्त्वज्ञान, जिनसूत्र अथवा ज्ञानी पुरुषों के उपदेश―ये सब बाह्य सहकारी कारण हैं। कैसा यह तत्त्वज्ञान है तो द्रव्यश्रुतरूप है। वीतराग सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि की परंपरा से चले आए हुए समस्त पदार्थों के प्रतिपादन करने में समर्थ यह ज्ञान है।
ये ज्ञाताजन, उपदेष्टा लोग, प्रभुवर, द्रव्यश्रुत, शास्त्रज्ञान―ये सब सम्यक्त्व के बहिरंग सहकारी कारण हैं और अंतरंग निमित्तकारण मोह या क्षय आदिक है। वहाँ दर्शनमोह के क्षय आदिक को अंतरंग कारण यों-यों कहा गया है कि दर्शनमोह के क्षय आदि का निमित्त पाकर सम्यक्त्व अवश्य होता है, एक तो यह बात है। दूसरी यह बात है कि आत्मा के एक क्षेत्र में ही होने वाले कारण हैं, किंतु हैं भिन्न पदार्थ, पौद्गलिक कर्मों की बात, इस कारण वे हेतु हैं पर उन्हें अंतरंग हेतु इस एकक्षेत्रावगाह के कारण और पक्का अन्वयव्यतिरेक संबंध होने के कारण कहे गये हैं ये सब बहिरंग कारण हैं।
सम्यक्त्व की उत्पत्ति में उपादान कारण तो वही मुमुक्षु पुरुष है जिसको मुक्ति की भावना जगी है और मोक्ष के साधक परिणामों में जिसकी गति चलने वाली है ऐसे जो वे निकट भव्य पुरुष हैं, मुमुक्षु हैं वे हैं उपादान कारण। क्योंकि उसही को तो दर्शनमोह का क्षय, क्षायोपशम हो रहा है और उसही मुमुक्षु में सम्यक्त्व प्राप्ति का आविर्भाव हो रहा है। यों सम्यक्त्व के साधनों का वर्णन इस गाथा में चल रहा है।
सम्यक्त्व निमित्त और उपादान का वर्णन―सम्यक्त्व के कारण का प्रदर्शन करने वाली इस गाथा का द्वितीय अर्थ यह है कि इस गाथा में उपादान कारण और निमित्तकारण का वर्णन किया गया है। निमित्तकारण तो जिनसूत्र है और उपादानकारण जिनसूत्र के ज्ञायक मुमुक्षु पुरुष हैं जिन्हें कि सम्यग्दर्शन होना है। उपादानकारण कहो या अंतरंग हेतु कहो, दोनों का एक भाव है। नियमसार के टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने भी टीका में यही बताया है। आप्त मीमांसा के श्लोकों में पद-पद पर उपादान कारण को अंतरंग हेतु शब्द से कहा गया है। जो मुमुक्षु पुरुष हैं, जिन्हें सूत्र का ज्ञान हुआ है ऐसे पुरुष पदार्थ का निर्णय करते हैं और वे ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम, क्षयोपशम होने योग्य परिणाम करते हैं और उनके दर्शन मोह का उपशम क्षय आदिक होता है। इस कारण उस आत्मा को अंतरंग हेतु कहा गया है। अंतरंग हेतु का तात्पर्य उपादानकारण से है।
उपादान में कारणता का उपचार कथन―उपादान को किसी कारण शब्द से व्यपदिष्ट किया जाना कुछ अनुपचरित नहीं मालूम होता। कारण तो भिन्न पदार्थों को बताया जाता है। जो स्वयं उपादान है, स्वयं ही कार्य मय होता है उसे कारण कहा जाना उपचरित नहीं है। इस कारण मुमुक्षु आत्मा को अंतरंग हेतु उपचार से कहा जाता है, अर्थात् उपादान में कारणपने का व्यवहार उपचार से किया जाता है। अभिन्न उपादान में कारणपने का भेद करना उपचारकथन है, क्योंकि उपादान तो स्वयं ही सब कुछ है, उसका ही तो परिणमन है, अत: कारण जैसा शब्द लगाने का व्यपदेश उपचार रूप मालूम होता है। यों सम्यक्त्व का निमित्तकारण तो हुआ जिनसूत्र, शास्त्र, तत्त्वज्ञान और उस जिनसूत्र के ज्ञायक मुमुक्षु पुरुष जो सम्यक्त्व के अभिमुख हो रहे हैं वे उपादान कारण हैं, क्योंकि उनके ही दर्शन मोह का उपशम, क्षय, क्षयोपशम हो रहा है। यहाँ तक भेदोपचार रत्नत्रय का कारण करते हुए में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहा है और सम्यक्त्व के कारण पर यह प्रकाश डाला गया है।
अभेदानुपचरित रत्नत्रय का परिणमन―अब इसमें परपदार्थों का नाम लेने का काम नहीं है, उपचार नहीं है। उपचार कहा करते हैं कोई भिन्न तत्त्व का नाम लेकर प्रकृत बात को कहना। सो भेदोपचारपद्धति से नहीं, किंतु अभेदोपचार पद्धति से इस रत्नत्रय परिणति को देखो। जिसकी परिणति अभेद सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में हो रही है ऐसे जीव को अभूतपूर्व सिद्धपर्याय प्रकट होती है। चारों गतियों में सर्वत्र क्लेश ही क्लेश है, मलिनता है। इन मलिनतावों से सर्वथा दूर हो जाना इसका नाम सिद्धपर्याय है और सिद्धपर्याय इस जीव को आज तक कभी प्रकट नहीं हुई है। सिद्धपर्याय प्रकट होने के बाद अनंतकाल तक शुद्ध सिद्ध पर्यायरूप रहा करता है। यह सिद्धपर्याय किस अभेद रत्नत्रय से प्रकट हुआ है? इस विषय को अभेद प्रतिबोधन के लक्ष्य में ही साधारण भेद करके सुनिये।
निश्चयसम्यग्दर्शन का दिग्दर्शन―टंकोत्कीर्णवत् एकस्वभावी यह जो निज कारणपरमात्मतत्त्व है उस रूप मैं हूं―इस प्रकार का श्रद्धान् होना यह है अभेद सम्यग्दर्शन। जैसे टांकी से उकेरी गयी प्रतिमा अविचल होती है, एकरूप होती है उसमें कोई एक अंग तरंग में आ जाय ऐसा नहीं होता है अथवा जैसे टांकी से उतारी गयी प्रतिमा किसी दूसरे पदार्थ से नहीं बनायी गयी है, किंतु जो प्रकट हुआ है वह मैटर, पदार्थ उस बड़े पाषाण में पहिले भी था, कोई नई चीज की मूर्ति नहीं बनी है। जो पदार्थ था उस पदार्थ के ही आवरण को हटाकर व्यक्त किया गया है। यों ही इस आत्मतत्त्व में यह परमात्मस्वरूप कुछ नया नहीं लगाया जाता, किंतु यह परमात्मत्व शुद्ध ज्ञानस्वरूप अनादिकाल से ही इसमें प्रकाशमान् है, उसके आवरक जो विषय-कषाय के परिणाम हैं उनको प्रज्ञा रूप छेनी से प्रज्ञा के ही हथौड़े से चोट लगाकर जब दूर कर दिया तो यह कारणपरमात्मतत्त्व जो अनादि से ही नित्य अंत:प्रकाशमान् है, पूर्ण व्यक्त हो जाता है और इस निजस्वभाव के पूर्ण व्यक्त हो जाने का नाम सिद्धपर्याय है। इस सिद्धपर्याय में प्रकट होने के लिये यों अभेद सम्यग्दर्शन चाहिए।
निश्चययम्यग्ज्ञान का परिच्छेदन―इस ही निश्चल स्वतंत्र निष्काम एकस्वभावी निजकारण परमात्मतत्त्व में परिच्छेदन मात्र, चैतन्यमात्र, जाननमात्र जहां अंतर्मुख होकर परमज्ञान होता है वह है निश्चय सम्यग्ज्ञान। इस निश्चय सम्यग्ज्ञान में केवल एक परमहितरूप शरणभूत यह कारण समयसार ही ज्ञात हो रहा है। ऐसे निश्चय सम्यग्ज्ञान के बल से यह अद्भूतपूर्व सिद्ध पर्याय सिद्ध हुई है।
निश्चय सम्यक्चारित्र का निर्देशन―निश्चय सम्यक्चारित्र क्या है? आत्मा की जो सहज अंत:क्रिया है, सहजभावरूप परिणाम है वही निश्चय सम्यक् चारित्र है। वह सहजचारित्र शुद्ध ज्ञायकस्वभाव की अविचल स्थिति को लिए हुए है। ऐसा यह अभेद सम्यक्चारित्र है, जिसका श्रद्धान् किया, जिसका ज्ञान किया उसी में अविचल होकर रम गया इस स्वस्थिति का नाम निश्चय सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार निश्चय सम्यक्चारित्र के द्वारा या अभेदानुपचार रत्नत्रय परिणति के बल से इस आत्मा में अभूतपूर्व सिद्धपर्याय प्रकट होती है।
निश्चयतप―परमयोगीश्वर पहिले पापक्रियावों की निवृत्तिरूप व्यवहार में, चारित्र में ठहरते हैं और उसके ही व्यवहारनय का विषयभूत नाना प्रकार का तपश्चरण होता है, वह ही पुरुष अंतरंग में क्या कर रहा है, इस बात को निरखे तो विदित होगा कि वहाँ निश्चयात्मक निज कार्य हो रहा है, सहज चैतन्यस्वरूप परमस्वभावरूप जो निजज्ञान ज्योतिस्वरूप है उस स्वरूप में ही उपयोग तप रहा है। यही निश्चयतप हो रहा है।
निश्चयतप का प्रतपन―जैसे किसी बालक को अपनी मां मौसी की गोष्ठी से उठकर बाहर खेलने को जी चाहता हो और उसे मां जबरदस्ती बैठाल रही हो तो उस बालक को वहाँ बैठने में भी बड़ा श्रम मालूम हो रहा है। वहाँ सीधी बात कठिन लग रही है। यद्यपि दौड़ कूद ये सब श्रम की बातें हैं, किंतु जिसका बाहर दौड़ने भागने में ही मन चाह रहा है ऐसा वह बालक एक ही जगह पर चुपचाप कुछ समय तक बैठा रहे, ऐसा कार्य करने में बालक को बड़ी तकलीफ हो रही है, श्रम हो रहा है। यों ही यह उपयोग अपने आपके घर के पास से विमुख होकर बाहरी पदार्थों में दौड़ना भागना चाहता है। इस उपयोग को कुछ विवेकबल से अपने आपमें बैठने को ही लगायें कि रे उपयोग तू बाहर मत जा, तू घर में ही चुपचाप विश्राम से बैठ, और यह उपयोग कुछ बैठता भी है तो भी इसमें एक श्रम हो रहा है, उस ही को तो तप कहते हैं, निश्चय प्रतपन हो रहा है। अपने आपके स्वरूप में ही अधिष्ठित रहकर शांत एकस्वरूप बना रहे इसमें कितना श्रम चल रहा है, यही है निश्चयतप।
अंतस्तप के प्रतपन का अनुमान―अनुभव करके देख भी लो कि इस किसी धर्म की बात में या तत्त्व के चिंतन में जब हम उपयोग को लाते हैं, स्थिर करना चाहते हैं तो कितना जोर लगाना पड़ता है, यह है अंतरंग का परमार्थ तप। इस तपस्या के द्वारा निजस्वरूप में अविचलरूप से स्थिति बन जाती है। इस ही आत्मरूप में स्थिर होने का नाम है सहजनिश्चयचारित्र। यों सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का वर्णन करके अब चूंकि अगले अधिकार में व्यवहारचारित्र का वर्णन आएगा, सो मानों उसकी प्रस्तावनारूप इस अधिकार में अंतिम वर्णन कर रहे है।