वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 71
From जैनकोष
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया।
चोत्तिसअदिसअजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति।।71।।
निर्दोष देव―जो घनघाति कर्म से रहित है, केवल ज्ञानादिक परम गुणों से सहित है, 34 अतिशय करके संयुक्त है ऐसा परम आत्मा अरहंत कहलाता है। इस गाथा में भगवान् अरहंत परमेश्वर का स्वरूप बताया गया है। यह अरहंतस्वरूप, भगवतस्वरूप, परमेश्वरस्वरूप है। जहां गुणों का परम विकास है और सर्वदोषों का अभाव है, ऐसा केवल निजस्वरूपमय आत्मा परमात्मा अरहंत कहलाता है, कब तक? जब तक कि वह शरीरसहित है। अपनी साधना के प्रताप से शरीरसहित अवस्था में ही परमात्मा हो जाता है, अर्थात् ज्ञानविकास द्वारा तीन लोक, तीन काल के समस्त तत्त्वों का ज्ञाता हो जाता है। उसके चारघातिया कर्मों का अभाव है।
मोहनीय के क्षय का क्रम―ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इनमें से सबसे पहिले मोहनीय कर्म का विनाश होता है। मोहनीय कर्मों में दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय इनमें 3 दर्शन मोहनीय और 25 चारित्रमोहनीय इन 28 प्रकृतियों में दर्शन मोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के आदिम चार―इन 7 प्रकृतियों का जब क्षय हो जाता है तो क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होता है। इन 7 प्रकृतियों में दर्शनमोहनीय की 3 प्रकृतियां तो सम्यक्त्वघातक हैं ही, किंतु अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इनमें दो स्वभाव पड़े हैं―चारित्र का भी विनाश करें और सम्यक्त्व का भी विनाश करें, यों 7 प्रकृतियों का विनाश पहिले होता है। इसके पश्चात् श्रेणी पर पहुंचने पर अर्थात् शुक्ल ध्यान की अवस्था में संज्वलन लोभ को छोड़कर 21 प्रकृतियों से 20 प्रकृतियों का विनाश हो जाता है और फिर संज्वलन लोभ का विनाश होता है। दसवें गुणस्थान के अंत में दसवें गुणस्थान तक उस मोहनीय का सर्वापहारी लोप हो जाता है।
मोहनीय के क्षय के पश्चात् शेष तीन घातियाकर्मों का युगपत् क्षय―क्षपकश्रेणी में बढ़ते हुए जीव दसवें के बाद एकदम 12 वें गुणस्थान में पहुंचते है। कहीं यह नहीं जानना कि 10 वें के बाद छलांग मारकर 12 वें में पहुंचता है। 11 वें को छोड़कर यह गुणस्थान भींत के ईंट की तरह बंधे हुए नहीं हैं। जो परिणाम हो उनका ही नाम गुणस्थान है। 10 वें गुणस्थान के परिणाम के बाद एकदम मोहरहित अवस्था हो जाती है। इसका नाम है बारहवां गुणस्थान। अब यह साधु परमेष्ठी 12 वें गुणस्थान के अंत में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय को एक साथ क्षय कर देता है। यों 12 वें गुणस्थान के अंत में चारघातिया कर्मों का अभाव हो जाता है। 12 वें गुणस्थान में इन कर्मों का विनाश होता है, इसका अर्थ यह है कि 12 वें के अंत तक तो वह है और 13 वें के प्रारंभ में वह नदारत है। यों घनघातिया कर्मों से रहित यह सयोगकेवली जिन हो जाता है।
सयोगकेवली का आकर्षण―इन सयोगकेवली भगवान् को भगवान् के रूप में निरखा जाता है। साधु के 5 भेद किये हैं पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रंथ व स्नातक। ये भगवान् सयोगकेवली हमारे स्नातक साधु हैं। नहा चुके हुए साधु, धुल चुके साधु। अब कोई कर्मफल इन पर नहीं रहा। अरहद्भक्ति में बड़ी विशेषतायें हैं क्योंकि अरहंतदेव में साकारता निराकारता का समन्वय है, सगुण और निर्गुण का समन्वय है। भगवान् हमारे कुटुंबी हैं और मुक्तजीवों के भी कुटुंबी हैं, ऐसा समन्वय है। इस कारण अरहंत भगवान् की बहुत बड़ी विशेषताएं हो जाती हैं। दूसरे के लड़के में कोई कला हो तो उसको देखकर अंतरंग के रोम उतने नहीं खिल पाते हैं जितने कि अपने बच्चे में कोई कला आ जाने पर खिल जाते हैं। अरहंत भगवान् यही तो रहते हैं। आज यहाँ नहीं हैं न सही, पर वे इस ही ढाई द्वीप में तो रहा करते हैं। मनुष्यों के बीच ही तो रहा करते हैं। मनुष्य उनको नजर भर तृप्त होकर देखा तो करते हैं। जिनकी वीतरागता के प्रताप से सोलह स्वर्ग करीब-करीब खाली हो जाते हैं, और उनके देव समवशरण में जाया करते हैं। यह किसका आकर्षण है? यह निर्दोषता का आकर्षण है। निर्दोष व्यक्ति सबका बंधु है, सदोष व्यक्ति भाई का भी बंधु नहीं है। ये अरहंत परमेश्वर भावकर्मों से अत्यंत रहित हो गये, अकलुष हैं इसलिए स्वर्ग भी खाली हो जाते हैं और स्वर्गवासी देव प्रभु के चरणों में आकर अपना जन्म सफल करते हैं।
घनघातिया कर्म और उनके विनाश करने का उपाय―ये घातिया कर्म हैं घन मेघ की तरह। जैसे मेघ के कारण सूर्य छिप जाता है, छिप जाने पर कुछ प्रकाश तो रहता ही है। ऐसे ही इन ज्ञानावरण कर्मों के कारण निमित्त पाकर समझो यह ज्ञानसूर्य छिप गया है, छिप जाने पर भी ज्ञान का फिर भी कुछ प्रकाश रहता है। कोई जीव ज्ञान के प्रकाश से शून्य नहीं है, सूना नहीं है। फिर भी उस ज्ञान को आवृत करने वाले कर्मों का जब अभाव होता है तो ऐसा ज्ञानप्रकाश विस्तृत होता है कि तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थ ज्ञात हो जाते हैं। क्या कहा जाय? इन कर्मों के हटने की बाट जोही जाय क्या, क्योंकि कर्मों के हटने का निमित्त पाकर ज्ञानविकास होता है। जैसे कर्मों के अभाव का निमित्त पाकर ज्ञानविकास होता है ऐसे ही आत्मा की शुद्धदृष्टि का निमित्त पाकर ये कर्म भी हट जाया करते हैं। अपना जोर अपने पर चल सकता है। कभी अपने कुटुंबी से किसी दूसरे से लड़ाई हो जाय तो वहाँ कुटुंब का प्रधान पुरुष अपने कुटुंबी पुरुष पर जोर डालता है तभी उसके कार्य की सिद्धि है। दूसरे पर जोर डालने से विवाद बढ़ता है और फिर दूसरे पर कोई जोर चला भी नहीं सकता, यों ही हमारे कुटुंबी हैं हमारे ज्ञानादिक गुण और पर हैं ये कर्म। इन कर्मों पर हम क्या जोर चला सकेंगे? हम अपने ही स्वरूप पर जोर चला सकते हैं। पर व्यथावों से संकटों से दूर होने का उपाय अपने आपके स्वरूप का अवलोकन और उसका ही आचरण हैं।
अनात्मा को स्वीकार करने से अनुपमेय बरबादी―भैया ! यह धन पैसा वैभव ये सब धूल की तरह नि:सार हैं। कभी इस बीच यह याद आ जाय तो फिर रोटी कैसे खायें, पेट कैसे भरें? अरे कीड़ा मकौड़ा जैसे पेट भर लेते हैं, और, और मनुष्य कैसे पेट भर लेते हैं? जिस कर्म के उदय से इतना श्रेष्ठ मनुष्यजन्म और कुल तथा धर्म मिला हे वहाँ ऐसी योग्यता भरी ही होती है कि प्राण रहने लायक गुजारा चलता ही रहे किंतु वह मनुष्य प्राण रहने तक की ही नहीं सोचता, यह तो वह चाहता है कि मैं इस मानव समाज में विशिष्ट स्थान पाऊं, आदर पाऊं, धनी कहाऊं और उस मानकषाय की पुष्टि के लिए, धनसंचय के लिए अत्यंत व्यग्र हो रहा है। और कदाचित् कोई उदर पूर्ति के लिए भी व्यग्र हो तो ऐसे अपवादरूप बिरले ही पाप के उदय वाले पुरुष होते हैं। आजीविका का साधन प्राय: प्रत्येक के उदय के साथ लगा हुआ है। इन असार पर जड़ पौद्गलिक पदार्थों में अपने उपयोग यों फंसाना कि यह ही मेरा सब कुछ है यह यहाँ मूढ़ता है। सोचते भी जावो तो भी कुछ नहीं होता है। मानने से भी परपदार्थ अपने नहीं हो जाते हैं। मोही तो केवल इन्हें अपना मानकर अपनी बरबादी पर तुला है।
आत्मतत्त्व की उपासना का प्रताप―यह साधु परमेष्ठी वस्तुस्वरूप के यथार्थज्ञान के बल से समस्त अनात्मतत्त्वों से हटकर निज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप में मग्न होता है। उसके प्रताप से ये अरहंत प्रभु हो जाते हैं। जिस किसी को यह पता भी न हो कि 8 वां गुणस्थान यों है, 9 वां गुणस्थान यों है, इस तरह की क्षपकश्रेणी है, इस तरह की निषेकवर्गणाये व अति स्थापनाएं रहती हैं, यों-यों कर्मों का विध्वंस होता है, न कुछ पता हो, केवल एक निज ज्ञायकस्वरूप का ही अनुभव हो तो वे सारे काम स्वयमेव हो जाते हैं। जिनका वर्णन करने के लिए श्रुतकेवली भी थक सकता है। एक मात्र काम है बढ़े चलो, अपने स्वरूप में बढ़े चलो, मग्न रहो। करे तो कोई ऐसी हिम्मत किसी भी क्षण नहीं हो सकता है। 24 घंटे तो न सही, पर उन 24 घंटों में से दो एक मिनट भी ऐसी झलक चले तो बाह्य में कहीं प्रलय न मच जायगी, घर जमीन न धंस जायगा। निरंतर चिंतावों का बोझ किसलिए लादते हो? यह साधु परमेष्ठी इस शुक्लध्यान के प्रताप से जहां रागद्वेष का धब्बा नहीं, ऐसे बिल्कुल सफेद ध्यान के प्रताप से यह घनघातिया कर्मों को हटा देता है।
प्रभु में घातिकर्म की मलरहितता―ये घातिया कर्म हैं आत्मा के गुणों का घात करने वाले। ये घनरूप हैं, सांद्रीभूत हैं, ठोस हैं। जैसे गहन अंधकार हो जाता है, उस बीच कहीं अवकाश नहीं मिलता है। ये कर्म सब घन हैं, गहन है। इनके बीच कहीं अवकाश नहीं है। इस जीव के साथ जो यह शरीर लगा हुआ है उस शरीर में अनंत परमाणु हैं, जिनका अंत नहीं आ सकता। निकलते जावें, पर इनकी गिनती का अंत नहीं आ सकता और इससे भी अनंत गुणे ऐसे शरीररूप बन सकने की उम्मीद रखने वाले विश्रसोपचय पड़े हैं, उनसे अनंतगुणे तैजस शरीर के परमाणु पड़े हैं, उनसे अनंतगुणे कर्म परमाणु पड़े हैं और अनंतगुणे उम्मीद रखने वाले कहीं यह बच्चा भाग न जाय, ऐसा पहरा लगाते हुए विश्रसोपचय कार्माणवर्गणा के परमाणु पड़े हुए हैं। सोचो ये कर्मवर्गणाएं कितनी शाश्वत् भूत हैं, घन हैं, ऐसे ये ज्ञानावरण दर्शनावरण, अंतराय और मोहनीय कर्म उनसे भी अत्यंत विरहित हैं। इस निर्दोषता के कारण ये सकल विबुध मनोहारी हैं। लोक में भी निर्दोषता और गुणकता का आदर है। मोहवश सदोष से, निर्गुणी से जितना मोह कर सको, करो पर ऊब जावोगे अवश्य प्रकृत्या झुकाव निर्दोषता और गुणवत्ता की ओर होता है।
प्रभु की अशेषगुणसंपन्नता―भगवान् अरहंतदेव में समस्त गुण आ गये और दोष एक भी नहीं है। संबंध में मुनि मानतुंगाचार्य ने कहा है―को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश। दोषैरुपात्तविविधाश्रयजातगर्वै: स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि।।
कहते हैं कि हे नाथ ! आपका आश्रय समस्त गुणों ने ले लिया, अर्थात् समस्त गुण आपमें प्रवेश कर गये। हमें तो इस मामले में कुछ भी आश्चर्य नहीं मालूम होता है। क्या आश्चर्य है इसमें? ये सारे गुण हमारे पास आये, हम सब संसारी प्राणियों के पास आये और भिक्षा मांगने लगे कि हमें ठहरने के लिए जगह दे दो, पर हम सब संसार के प्राणियों ने उन्हें ललकार दिया, उन्हें ठहरने के लिए जगह नहीं दी। कहा कि जावो यहाँ जगह नहीं है। तब दुनिया के सारे लोगों के पास से भागकर सारे गुण झक मारकर आपमें आ गए। तो इसमें क्या विशेषता है?हम तो विशेषता तब जानें जब कि हम उन गुणों को अवकाश दें और वे सारे गुण आपके पास पहुंच जायें, तब तो हम आपकी महत्ता जानें? हम सब संसारी प्राणियों से सारे गुण इसीलिए दूर हो गए कि उन्हें ठहरने के लिए अपने घर में जरा भी स्थान नहीं दिया। इसका हम प्रमाण बतायें। सुनो भगवन् ! हम सब लोगों ने दोषों को खूब जगह दे रक्खी है। ये दोष भी हम सब संसारी प्राणियों के पास आये, कहने लगे कि हमें ठहरने के लिए जगह दे दो तो हाँ-हाँ यह तुम्हारा ही तो मकान है,ऐसा कहकर उन्हें जगह दे दी गई। तो बतावो कि एक भी दोष क्या आपके पास आ सका? नहीं आ सका ना। इसी से ही भगवान् तुम निर्णय कर लो कि आपमें यदि समस्त गुण आ गये तो आश्चर्य क्या? यों समस्त गुणसंपन्न निर्दोष अरहंत परमात्मा हो जाता है जो साधु शुक्ल ध्यान में मग्न रहता है।
साधुसाधनाफल अरहंत परमेष्ठी―तेरह प्रकार के चारित्रों के निश्चय और व्यवहार साधना के फल में यह अंतरात्मा भगवान अरहंत परमेष्ठी होता है, उस ही अरहंतस्वरूप का यह वर्णन चल रहा है। वह अरहंत भगवान् निर्मल केवलज्ञान, केवलगुप्ति और केवलसुख से सहित है। यद्यपि प्रभु की ऐसी स्थिति है कि वह समस्त पदार्थों को जानता है, किंतु अपने आनंदरस में लीन है, ऐसी संपदा और परमशांति से सहित है, लेकिन वहाँ तो होती है शांति की स्थिति और यहाँ तीनों लोक में भगदड़ मच जाती है। प्रभु के केवलज्ञान होने पर स्वर्गलोक खाली होने लगता है। भगवान् के चरणों में आने के लिए अधोलोक के देव व इंद्र आते हैं मनुष्य और तिर्यंच भी पहुंचते हैं। तीनों लोक में एक बड़ा क्षोभ हो जाता है। क्षोभ केवल विषादमय अवस्था को ही नहीं कहते हैं, किंतु हर्षमय अवस्था में भी क्षोभ होता है।
आकर्षण का कारण गुणविकास―तो तीनों लोक के ऐसे हर्षपूर्ण क्षोभ का कारण प्रभु का गुणविकास है। ऐसा किसी को कहा जाय तो बड़ा भद्दा लगेगा। भगवान् को तो हुआ गुणों का विकास और यहाँ लोक में मच गई भगदड़। यहाँ देख लो। आये तो हैं दसलाक्षणी के दिन, लेकिन सब जैनियों में खलबली मच गयी। तो ऐसा जो प्रक्षोभ है वह धर्म को लाने वाला है। ठीक है मान लिया, पर 12 महीने तो इतना प्रक्षोभ नहीं मचता जितना कि इन 10 दिनों में मचा। मंदिर के पास बैठो तो इतना हल्ला मचता है कि सड़कों पर सुनाई देता है। पूजन, 12, 1 बजे तक होता है, कहीं कुछ हो रहा है, कहीं कुछ हो रहा है, दसलाक्षणी आयी तो जैनसमाज में उथलपुथल होने लगी। यद्यपि यह उथलपुथल धर्म के भाव से है पर हुआ तो प्रक्षोभ।
गुणविकास का साधन―प्रभु में सब जीवों के आकर्षण का यह गुण विकास कैसे हुआ है? अंतरंग कारण तो उनका ही उपादान है। बहिरंग कारण घातियाकर्मों का प्रध्वंस विनाश है। जिन घातियाकर्मों को प्रभु ने पहिले संसार अवस्था में बोया था उनके प्रध्वंस की स्थिति उत्पन्न हुई है। प्रभु समस्त विश्व के ज्ञाता द्रष्टा होकर भी अपने आनंदरस में लीन रहा करते है। प्रभु में और हम आपमें द्रव्यत: अंतर नहीं है। प्रभु की कथनी करके ही संतुष्ट मत हो जावो। प्रभु के गुण गा दिये, इतने मात्र से ही अपने को कृतार्थ न समझो, किंतु यह साहस बनावो कि यह मैं आत्मा जो अनादि काल से घोर दु:खों में चल रहा हूं। उसमें बड़ी सामर्थ्य है, जो अनंत चतुष्टयसंपन्न प्रभु में पाया जाता है वही सामर्थ्य हम आपमें भी है।
प्रभुभक्ति का उद्देश्य―प्रत्येक प्रसंग में जीव अपना लाभ चाहता है। धनिकों से संबंध रक्खे और कोई लाभ का प्रयोजन वहाँ न रखे तो वह एक पागलपनसा प्रतीत होता है। ज्ञानियों में कोई अपना प्रसंग रक्खे और ज्ञान की अथवा शांति की कोई भावना न करे तो उसका भी वह निरुद्देश्य प्रसंग है। यों ही धर्म की साधना करे और वह कुछ न बन सके तो वह सारा श्रम ही व्यर्थ है। हम प्रभु की जी तोड़ भक्ति करें, दूकान भी खराब करें, समय भी खराब करें, रोजगार धंधे में भी फर्क डालें, घर के मौज भी सब छोड़ दें, एक बार भोजन करें, सारे श्रम करें और प्रभु की भक्ति के लिए तन, मन, धन, वचन न्यौछावर कर डालें तो कुछ लाभ तो लूटना चाहिए। लाभ का तो उद्देश्य कुछ न बनाया और प्रभु के गुण गाते रहे तो यह तो उसी तरह है जैसे कि धनी पुरुष के गुण गाते रहें और लाभ कुछ न पायें, अपना दरिद्र न मिटायें। उससे अच्छा तो यही था कि किसी नेता से, धनिक से मिलकर कुछ लाभ कर लेते। यों ही धर्म के नाम पर तन, मन, धन, वचन न्यौछावर कर डालें और लाभ की प्राप्ति कुछ न की तो सारा श्रम ही व्यर्थ रहा। क्या इसमें कुछ लाभ है? लाभ तो यह है कि हम बार-बार यह भावना बनाएं और तुलना करें कि जो प्रभु का स्वरूप है, जो प्रभु में सामर्थ्य है, ज्ञान और आनंद का जो परमविकास है वह ही मेरा स्वरूप है, मेरा भी वही विकास हो सकता है, ऐसी दृष्टि डालें।
भैया ! प्रभुता पाने के लिए ज्ञानसिचन करें और अपने चारित्र अंकुर को बढ़ायें, यह तो है लाभ वाली बात का उपाय। यह न कर सके तो कुछ भी न कर सके। यह अरहंत प्रभु सर्वशरणभूत है, आदर्शरूप है, परमोपकारी है। देखो णमोकार मंत्र में सर्वोत्कृष्ट परमेष्ठी सिद्ध भगवान् है। आठों कर्म नष्ट हो गये है, शरीर तक का भी प्रसंग नहीं है। धर्मद्रव्य की तरह अत्यंत शुद्ध चेतनतत्त्व है, किंतु जब परमेष्ठियों का स्मरण किया, प्रणमन किया तो सर्वप्रथम बोलते हैं णमो अरिहंताणं, अरहंतों को नमस्कार हो, यही कारण है कि अरहंत और सिद्ध दोनों ही अंतरंग भाव की अपेक्षा तो समान हैं। केवल एक बाह्यमेल का अंतर है। कर्मअघातिया लगे हैं और शरीर लगा है, इतनी त्रुटि तो अवश्य है, लेकिन प्रामाणिकता में, अंतरंग विकास में कोई अंतर नहीं है। और फिर यदि अरहंत परमेष्ठी न होते या उनके प्रवाह से यह उपदेश न मिलता तो सिद्ध परमेष्ठी को कौन जानता? जितने परमागम हैं इन सबकी मूल परंपरा अरहंत भगवान् है। मंगलाचरण में कहा भी है कि―अस्य मूलग्रंथकर्तार: सर्वज्ञदेवा:। ऐसे वे अरहंतदेव अनंतचतुष्टय से संपन्न है। उनमें यह व्यक्त अनंत चतुष्टय और हम आपमें है यह स्वभाव अनंत चतुष्टय। प्रभुभक्ति का लाभ तो यही है कि हम अपने आपमें भी अपनी शक्ति के अनुसार विकास कर सकें।
प्रभु की आदर्शरूपता―दीनता के लिए प्रभु की भक्ति नहीं है, हे प्रभु तुम मालिक हो, मैं दास हूं। सुख दो दु:ख मेटो यह तुम्हारी बान है और हमारी बान है विषयकषायों में लगना (हंसी)। अब झड़ में झड़ कैसे मिलेगी? हे नाथ ! तुम्हारा तो दयालु स्वभाव है, यदि तुम सुख न दोगे दु:ख ही देते रहोगे तो फिर तुम्हारी दयालुता ही कहां रही? वहाँ तो यह कहते हैं और यहाँ अपने कुटेव में अंतर नहीं डालना चाहते। अरे कुटेव में अंतर डालो और अपने श्रद्धान् ज्ञान आचरण से चलो तब भी आपका भगवान सुख न दे, यह कैसे हो सकता है?भगवान तो आदर्शरूप है, सच्चिदानंदमय है, ज्ञान दर्शनस्वरूप है, उनका तो स्मरण ही हमारे पाप हरने वाला है। भगवान मेरे पाप नहीं हरते, किंतु भगवान के स्मरण से हमारे पाप हट जाते हैं। प्रभु सुख नहीं देता, किंतु प्रभु के गुणों का जो अनुराग है वह सुख देता है। प्रभु तो आदर्शरूप हैं।
तीर्थंकरों के जन्म के दश अतिशयों के संबंध में―वह प्रभु 34 अतिशय करि विराजमान है। अरहंतों में जो तीर्थंकर हैं वे तो समस्त अतिशयों कर संपन्न हैं, किंतु जो तीर्थंकर नहीं हुए हैं, साधारण केवली अरहंत हैं उनमें यथासंभव यह अतिशय होता है। उनमें केवलज्ञान से पहिले होने वाले तो अतिशय हैं। उनमें संख्या की विषमता है। किसी के सब होते हैं व किसी के सब नहीं होते हैं। प्रभु अरहंत तीर्थंकर भगवान में देखो जन्मते ही ये 10 चमत्कार प्रकट होते हैं। अतिशय सुंदर रूप सुगंधित शरीर, उनके शरीर में पसीना तक नहीं न कभी निहार होता, प्रिय हितकर वचन बोलने की उनके प्रकृति है और अतुल्य बल है। देखो सामुद्रिक शास्त्र में जो हस्तरेखा विज्ञान है, वह इस आधार पर है कि जो पुरुष जैसा उत्कृष्ट होता है पुण्यवान होता है, पवित्र होता है वह वैसे ही शुभ और सुभग शरीर को प्राप्त होता है। इस बुनियाद पर यह सब सामुद्रिक विज्ञान है। बहुत सुडोल सुंदर हाथ हों, उनके पवित्र लक्षणों का दर्शाने वाला चिन्ह हों कि यह पुरुष उत्कृष्ट पुण्य वाला है, उत्कृष्ट विचारो वाला है। जो पुरुष कुछ भी भवों से मोक्ष जाने वाला है, विश्व के जीवों का उद्धार करने वाला है ऐसे उत्कृष्ट पुण्यवान पुरुष को कैसा शरीर मिलेगा?
तीर्थंकरों के शरीर में श्वेताकार रुधिर एवं शुभ लक्षण―तीर्थंकर का शरीर हम आपसे बहुत अधिक अतिशयवान होता है। तीर्थंकर प्रभु का खून श्वेत के आकार का अर्थात् सफेद बताया है। कोई सुने तो क्या कहे? कहीं खून भी सफेद होता है, पर डाक्टर लोगों से पूछा तो वे बता देंगे कि सफेद खून भी होता है और लाल खून भी होता है। हम आप सबके दोनों ही प्रकार के खून पाये जाते हैं। लाल खून की शक्ति अधिक बढ़ जाय तो उसमें बीमारियां अधिक होती है, श्वेत खून की शक्ति अधिक हो जाय तो उसमें शक्ति विशेष प्रकट होती है। इस संबंध में एक कवि की कल्पना है कि जो मां एक बच्चे से प्यार करती है उसके शरीर में दूध उत्पन्न हो जाता है, झर जाता है। एक बच्चे के प्यार में शरीर के कुछ हिस्से में दूध आ जाता है और जो सारे विश्व के जीवों पर प्यार करे उसके सारे शरीर में दूध की तरह श्वेत बन जाय, यह एक प्रेमभरी बात है और वैसे तो शरीर में श्वेत खून सबके हुआ करता है, किसी के कम किसी के अधिक। उनका विशेष अतिशय है सो श्वेतता की अधिकता है।
शरीर के शुभ लक्षण―उनके शरीर में 1008 लक्षण होते हैं। तिल, मसा, रेखा चक्र, चिन्ह, ध्वजा, मछली, धनुष, चक्र आदिक अनेक चिन्ह होते हैं। ये उनके जन्म से ही अतिशय हैं। क्या इन महापुरुषों के हाथ पैर के लक्षणों को देखकर शास्त्रों में लिखते हैं कि ये लक्षण होते हैं या शास्त्रों में लिखने के बाद यह निर्णय किया है कि ये शुभ लक्षण हैं? अरे इन महापुरुषों के लक्षणों को ही देखकर लिख डालो कि ये सब लक्षण शुभ हुआ करते हैं। तीर्थंकर अरहंतदेव के जन्म से ही, 1008 लक्षण हुआ करते हैं।
समचतुरस्रसंस्थान व वज्रवृषभनाराचसंहनन―शरीर का नाप नाभि से चलता है। नाभि शरीर के बीच की जगह है। समचतुरस्रसंस्थान में जितनी लंबाई हो उतनी लंबाई नीचे पैरों तक होनी चाहिये। आज यह कुछ कठिन सा हो गया है। प्राय: नाभि से नीचे के अंग, टांगें बहुत बढ़ जाती हैं और ऊपर का हिस्सा थोड़ा रह जाता है। आजकल लगभग ऐसे ही शरीर दिखने में आते हैं, किंतु यह शुभ शरीर नहीं हैं। शुभ शरीर होगा तो नाभि से ऊपर नाभि के नीचे समान लंबाई होगी। हाथ कितने लंबे हों, नाक कितनी लंबी हो? सबके परिमाण इस एक शुभ लक्षण के आधार से हैं। ठीक उसही प्रकार हों तो समचतुरस्रसंस्थान होता है। जो मूर्तियां जैनसिद्धांत के अनुसार बनती हैं उनमें यह परिणाम रखा जाता है, खड्गासन मूर्ति हो तो पद्मासन मूर्ति हो तो, नाभि से ही समस्त हिसाब रखे जाते हैं। तीर्थंकर प्रभु के व सभी अरहंतों के जन्म से ही वज्रवृषभनाराचसंहनन होता है। ये जन्मते ही तीर्थंकर प्रभु में 10 अतिशय प्रकट हो जाते हैं।
तीर्थंकरों के जन्मत: दस अतिशय―इस तरह के सभी अतिशय तीर्थंकरों में होते हैं और इनमें से अतिशयों को छोड़कर अनेक अतिशय सामान्य केवली के भी जन्म से चलते हैं। वज्रवृषभनाराचसंहनन। यह जन्म समय से चला और भी कुछ लक्षण होते हैं, पर जन्मते ही ये 10 अतिशय तीर्थंकर अरहंत प्रभु के हैं। तीर्थंकरों में इस युग के आदि में आदिनाथ भगवान प्रथम तीर्थंकर हुए हैं। कितने ही वर्ष हो गये होंगे, कितने ही कोड़ा-कोड़ी वर्ष हो गये होंगे, आज की बात नहीं। जिस समय प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान उत्पन्न हुए थे उस समय से ही लोक में उनका प्रताप चला आ रहा है।
आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का प्रताप―आदिम देव ने लोगों का कितना संरक्षण किया था? इससे ही अंदाज लगा लो कि तब से ही लोक में यह प्रसिद्धि हुई है कि ईश्वर सृष्टि का करने वाला है। जब भोगभूमि थी तब लोग चैन से रहते थे। जब उसकी समाप्ति हुई तो लोग बेचैन रहने लगे। उस समय असि मसि कृषि वाणिज्य आदि सब कर्मों का प्रयोगात्मक शिक्षण ऋषभदेव भगवान ने दिया था। 14 मनुवों में अंतिम मनु नाभि राजा थे। लोग नाभि राजा के पास विनती करने आये तो उन्हें ऋषभदेव के पास भेजा। कहा कि ऋषभदेव में ही सर्व सामर्थ्य है। यह गृहस्थावस्था की बात है, वे जब संन्यासी न हुए थे तब की बात है। तो प्रजारक्षार्थ वे सब उपदेश देने लगे, उन्होंने लोगों के रक्षण का उपाय बताया। तब से यह प्रसिद्धि चली कि भगवान ने सृष्टि की। वे नाभि राजा से ही उत्पन्न हुए थे। तो नाभि से कमल निकला। कमल में एक देव उत्पन्न हुआ, उन्होंने रक्षा की। ये सब अलंकारिक भाषा में है। कोई किसी रूप में मानते है, कोई किसी रूप में। किसी ने आदम बाबा मान लिया। आदम का अर्थ है आदिक इस महायुग के शुरू में जो उत्पन्न हुए वह हैं तीर्थंकर आदिनाथ। उन्हें कोई आदम के रूप में, कोई ब्रह्म के रूप में, कोई सृष्टिकर्ता के रूप में, यों अनेक रूपों में तभी से बात प्रचलित होती आयी है। ऐसे प्रभु अरहंत देव कैसे हुए हैं? इसका वर्णन चल रहा है।
अरहंत प्रभु के केवलज्ञान के दस अतिशयों में से सुभिक्षता व गगनगमन का अतिशय―प्रभु अरहंत भगवान 34 अतिशयों के स्थान हैं, इसमें 10 स्थानों का वर्णन किया। अब 10 स्थान केवलज्ञान के होते हैं। प्रभु के केवलज्ञान उत्पन्न होने पर क्या-क्या अतिशय प्रकट होते है? उनमें पहिला है 100 योजन चारों ओर सुभिक्ष का होना। भगवान जहां विराजे हों उसके 400 कोश चारों ओर सुभिक्ष का होना। सब सुखी हों, अन्न आदिक अच्छा पैदा हो, ऐसे अतिशय स्वयमेव होते हैं। भला घर का मुखिया अच्छी तरह आबाद रहे तो फिर घर के लोगों को दु:ख का क्या काम है? ऐसे ही इस विश्व के प्रधान जहां विराज रहे हों, उनके चारों ओर बहुत दूर तक जीव दु:खी रहें, ऐसा क्यों हों? प्रभु का गमन आकाश में होता है। हम आपकी भांति जमीन पर उनका गमन नहीं होता। लोग प्रभु को देखते भी हैं ऊपर की ओर तो लोक में सिद्ध प्रभु विराजमान् हैं और अपने आप से ऊपर में अरहंतदेव विराजमान् हैं।
चतुर्मुखदर्शन और अध्याभाव का अभाव―प्रभु के ऐसा अतिशय होता हैं कि सभावों के चारों ओर से प्रभु का मुख दिखता है। प्रभु का समवशरण गंधकुटी, उनकी उपदेश सभा गोल होती है। चारों ओर बैठने वाले कब निर्व्यग्र हो सकते हैं जब चारों ओर से मुख दिखे। भगवान के मुख चार नहीं होते हैं किंतु चारों ओर से उनके दर्शन होते हैं, और इसीलिए कोई लोग चतुर्मुख कहते हैं प्रभु को। वह प्रभु किस प्रकार चतुर्मुख है? जैसे स्फटिक मणि स्वच्छ हो तो उसमें दोनों ओर से प्रतिबिंब दिखता है। स्फटिक पाषाण भी ऐसा होता है, यह स्फटिक पाषाण मूलबद्री की तरफ बहुत पाया जाता है। इसमें भी आगे पीछे दोनों तरफ से प्रतिबिंब दिखता है। तो स्फटिक मणि से विशिष्ट स्वच्छ जिनका परमौदारिक शरीर है उसके अगर चारों ओर से मुख दिखने लगे तो क्या आश्चर्य? चारों ओर से मुख दिखे, इसमें परमौदारिक शरीर का अतिशय है। प्रभु के अदयाभाव नहीं रहता। उनके राग भी नहीं, द्वेष भी नहीं और साथ ही यह जानना कि भगवान के निकट किसी भी जीव के अदयाभाव नहीं रहता है। यह भी एक अतिशय है। प्रभु की भक्तिवश ही तो दर्शनार्थ वहाँ पहुंचते हैं। उनके चित्त में इतनी उज्ज्वलता होती है कि उन भक्त प्राणियों के भी अदयाभाव नहीं रहता है।
प्रभु के उपसर्ग का अभाव―प्रभु पर कोई उपसर्ग नहीं कर सकता। प्रभु के बिल्कुल निकट ही तो कोई नहीं पहुंचता। यक्ष इंद्र भी जो सेवा करते हैं अब वे बाहर-बाहर ही खड़े रहकर सेवा कर देते हैं। यों समझ लीजिए जैसे घर में बालक पैदा हुआ तो बचपन में सभी गोद खिलाते हैं। मां, बाप, चाचा, चाची सभी खिलाते हैं और वही बालक बड़ी अवस्था का विद्वान् त्यागी हो जाय, साधु हो जाय, फिर उसे उसके मां, बाप, चाचा, चाची क्या गोद में खिलायेंगे? नहीं खिलायेंगे। जैसे लोग दूर से दर्शन कर लेते हैं इसी तरह से दर्शन करने की उनकी प्रवृत्ति बनती है, किंतु वे प्रभु हैं, भले ही इंद्रों ने उन्हें गोद में लिया, अभिषेक किया, उनके साथ खेले, कुछ मन भाया, गृहस्थावस्था तक ये संगम रहे, ठीक है और कदाचित् मुनि अवस्था तक भी ऐसी सेवा रही, ठीक है, और केवलज्ञान होने के बाद इंद्र भी उनसे दूर रहकर, निकट रहकर, उन्हें न छूकर अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं।
प्रभु के कवलाहार का अभाव―प्रभु के कवलाहार नहीं होता। वे ग्रास लेकर आहार नहीं करते। कोई-कोई प्रभु अरहंत अवस्था में 8 वर्ष कम 1 करोड़ पूर्व तक रह सकता है याने करोड़ों वर्ष तक भगवान रहकर विहार करें और उन समस्त करोड़ों वर्षों तक भी वे कवलाहार नहीं करते। उनका ऐसा परमौदारिक शरीर है कि शरीरवर्गणाएं अपने आप इतनी पवित्र इतनी शक्तिमान उनके शरीर में प्रवेश कर रही हैं कि कवलाहार की आवश्यकता ही नहीं है। जैसे कोई आदमी खा नहीं सकता तो आजकल एक इन्जेक्शन चला है―गुलूकोज का इन्जेक्शन देते हैं। जो कवलाहार तो नहीं करते, मुख से आहार नहीं करते, उनके यह इन्जेक्शन दे देने से दो चार दिन उसे भूख नहीं लगती। यह आहार तो यहाँ का है, तो समझ लीजिए कि जहां प्राकृतिक शुद्ध शरीरवर्गणायें आ रही हों, यों ही भगवान को करोड़ों वर्षों तक कवलाहार की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रभु के समस्त विद्यावों का ऐश्वर्य और प्रभुदेह में नख, केश की बुद्धि का अभाव―ये प्रभु समस्त विद्यावों के स्वामी हैं। विद्या मायने जानना। कौनसी विद्या उन्हें जानने को रह गयी? सारे लोक के समस्त परिणमन जब ज्ञान में आ चुके हैं तब और क्या रह गया है?वे सब विद्यावों के ईश्वर हैं। केवलज्ञान होने के पश्चात् प्रभुदेह के नख और केश नहीं बढ़ते हैं। पहिले बढ़ते हैं किंतु केवलज्ञान होने के बाद का यह अतिशय है। अब तो इनका परमौदारिक शरीर है। क्या बताएं जिस पुरुष का परिणाम निर्मल होता है और बहुत काल से निर्मल होता चला आया है, उसको सुंदर शरीर मिलता है, उसका स्वास्थ्य सुंदर रहता है और शरीर में दुर्गंध नहीं रहती, मल में दुर्गंध नहीं रहती, ऐसी बहुतसी बातें तो निर्मल परिणाम होने वाले लोगों के हुआ करती हैं। जो ऋद्धिधारी मनुष्य है उनके ऐसा अतिशय हो जाता है कि उनके मल, मूत्र, थूक, खकार का स्पर्श हो जाय अथवा उनकी छूटी हुई वायु जिनके लग जाय तो वे स्वस्थ हो जाते हैं, बीमारी हट जाती है। यह प्रताप उनके निर्मल परिणाम का है, प्रभु अत्यंत निर्दोष हैं, गुणों के परमविकास के स्थान पवित्र पुरुष हैं, अरहंत देव हैं। उनके शरीर में यह अतिशय भी हो जाता है कि नख और केश वृद्ध नहीं होते हैं।
अनिमिष नयन व निश्छाया देह का अतिशय―प्रभु के आंखों की पलक नहीं गिरती। वह पलक न बहुत ऊंची उठी रहती है, न नीची रहती है किंतु सहज बड़े विश्राम के साथ जैसे कभी आप बैठते हैं इसी प्रकार की दृष्टि प्रभु की रहती है। जल्दी-जल्दी कभी अपन लोगों के कमजोरी के कारण आंखें मींच जाती हैं―ऐसा लगता है ना। तो उन प्रभु का परमौदारिक शरीर है, अतुल्य बल है, वहाँ आंखें नहीं मींचती, उनका शरीर स्फटिक मणि की तरह स्वच्छ होता है, इस कारण उनके शरीर की छाया भी कहीं नहीं पड़ती है। जैसे हम धूप में चलते हैं तो शरीर की छाया पड़ती है, पर इस तरह प्रभु की छाया नहीं पड़ती। जो कांच बिल्कुल निर्मल पड़ा हो, उसे भी धूप में रख दो तो उसकी भी छाया नहीं पड़ती। जो चारों ओरसे स्वच्छ हो, यों ही स्फटिक मणि की तरह पवित्र परमौदारिक शरीर की भी छाया नहीं पड़ती है। ये 10 अतिशय केवलज्ञान होने पर प्रभु के प्रकट हो जाते हैं।
निर्दोषता का आकर्षण―इनके अतिरिक्त 14 अतिशय और होते हैं, जिनमें देवों के प्रबंध की बात है। प्रभु की अंत:स्वच्छता के प्रताप के आकर्षण के कारण देव इस प्रकार का प्रबंध करते ही हैं। देखो जीव का बड़प्पन निर्दोषता में है, धनवैभव में नहीं है। प्रभु अरहंतदेव जब सर्व राग द्वेषों से मुक्त हो गये, पूर्ण गुणसंपन्न निर्दोष हो गए, तब देखो स्वर्गों से देव इंद्र खींचे जा रहे हैं। अधोलोक से भवनवासी, व्यंतर चले आ रहे हैं और इस लोक से बड़े-बड़े मनुष्य, तिर्यंच चले आ रहे हैं, यह महत्त्व निर्मलता का है, निर्दोषता का है। निर्दोषता में जब महत्त्व बढ़ता है तो अत्यंत अधिक बढ़ता है और नहीं तो कुछ ऐसी भी स्थिति आती है कि कोई पूछने वाला भी नहीं रहता है, पर पूर्णनिर्दोषता में अत्यधिक महत्त्व बढ़ता है। यह जगत् दोषियों के रहने का स्थान है, जहां निर्दोषता का छोटा भी मूल्यांकन न हो सके और जैसे कि आजकल के शासन की चर्चा करते हुए लोग कहते हैं कि राज्य के किसी काम में ईमानदारी से रहने का जमाना नहीं है, रहे तो रह न सके ईमानदारी से। ईमानदारी से गिरे हुए लोग रहने नहीं देते। तो यहाँ निर्दोषता का मूल्यांकन नहीं होता। फिर भी यदि अपनी निर्दोषता में डटा रहे और अपना ध्येय बना ले कि मुझे सदा के लिए सदा करना युक्त ही हैं तो कुछ समय पश्चात् मूल्यांकन होगा।
निर्दोषता का वैभव―किसी राज्याधिकारी महापुरुष के गुजरने पर देश और विदेश में लोग आंखें लगायें, सम्वेदना प्रकट करें, यह आंतरिक वैभव के बल की बात नहीं है, बल्कि इसमें तो कितने ही लोग खुशी भी मना सकते हैं―अच्छा हुआ मर गया, हम लोगों को बहुत परेशान करता था;किंतु निर्दोषता में वह महान् बल है कि जहां तक गति हो, निर्दोषता की प्रसिद्धि हो;वहाँ तक के जीवों का उस ओर आकर्षण होता है। प्रभु अरहंतदेव पूर्णनिर्दोष हैं, कोई दोष नहीं है। इसलिए देखो स्वर्गों से देव-देवियां नाना प्रकार से संगीत-गायन-नृत्य करते हुए भगवान के दर्शन को आने लगते हैं। मनुष्य लोग भी गान-तान करते हुए दर्शन को जाते हैं।
अर्हद्भक्ति का एक दृश्य―किसी भी समय जब कहीं भी खूब सुंदर बाजे बज रहे हों, जैसे कि बैंड बाजा या बीन वगैरह बज रहे हों और यह पता न हो कि ये बाजा किसी के बारात के हैं या पुत्रोत्पत्ति के समय के है और आप यह ध्यान लगाकर बैठ जायें कि प्रभु का यों समवशरण हैं, देव-इंद्र-देवियां कैसे सुंदर गीत और संगीत करते हुये आते हैं, लो ये आ रहे हैं। यह समवशरण में विराजमान् प्रभु हैं और कभी यह ख्याल आ जाय कि यह तो मनुष्य लोग बजा रहे हैं जो बाजे गानों में सुनाई दे रहे हैं तो उस समय आप समझ लेंगे कि जब मनुष्यों में बड़ी कला हैकि इतने सुंदर गीत संगीत कर सकते हैं तो कलावों के पुंज देव-देवियां कितने मधुर नाच पूर्ण गीत-संगीत करते आते हुए आते होंगे? इतना सोचने के बीच थोड़ा यह भी ध्यान लावो―अहो ! यह समस्त प्रताप प्रभु की निर्दोषता का है, वीतरागता का है। उक्त प्रकार से आप भक्ति में प्रगति से घुसते चले जाते हैं और जब यह ख्याल आ जाय कि अहो ! ऐसी निर्दोषता का स्वरूप तो मेरा भी है। क्या इतना बंधन पड़ा है? तब आपके आंसू आपका स्वागत करने लगेंगे। उस समय हर्ष, विशाद, आनंद, ध्यान और ज्ञान―इन सबका जो संमिश्रित भाव होगा, उस भाव को कोई बता नहीं सकता।
दिव्य भाषा―प्रभु अरहंतदेव के इस प्रताप के कारण देवता लोग भी अतिशय किया करते हैं, उन अतिशयों में पहिला अतिशय है प्रभु की अर्द्धमागधी भाषा। देवकृत अतिशय में बताया है―संभव है कि आजकल के लोग कुछ ऐसे यंत्रों का आविष्कार कर रहे हैं, सुना है ऐसा कि बोलने वाला किसी भी भाषा में बोले;किंतु दो चार भाषावों के लोग भी अपनी-अपनी भाषा में सुन सकेंगे। हम नहीं कह सकते कि इसमें कितना मनुष्य के प्रयोग का हाथ है और कितना यंत्र का हाथ है। यह तो यहाँ के बड़े वैज्ञानिक लोगों की बात है। देवों के इंद्रों के विज्ञान का तो शुमार क्या है। क्या करते होंगे? अर्द्धमागधी भाषा में यों वाणी का प्रसार होता है कि वहाँ सुनने वाले लोग करीब मगध देश के होंगे या कोई हों, वे सब सुन लेते हैं। भला बतलावो कोई एक नेता भाषण करने आता है तो लोग कितना बड़ा मंडप बनाते हैं, कैसा सुहावना स्टेज लगा देते हैं, कितने ही लाउडस्पीकर लगा देते हैं और कितना-कितना प्रबंध रखते हैं? भला जो इस विश्व का सर्वोपरि नेता है, उस नेता का जहां सहज भाषण हो रहा हो, दिव्यध्वनि का निर्गमन हो रहा हो और जहां शोभा शृंगार करने वाला इंद्र है, वह कैसी अद्भुत आकर्षक रचना होगी? अतिशयों में अर्द्धमागधी भाषा का होना, यह प्रथम अतिशय है।
पारस्परिक मित्रता व षड्ऋतुफलन―सर्वजीव आपस में मित्रता का बर्ताव करते हैं। यह तो प्रभु के निकट उपस्थित होने का अतिशय है, पर इसमें आत्मदेव का भी कुछ हाथ है। ऐसा वातावरण प्रत्यक्षरूप, परोक्षरूप रचना के रूप में बनता है कि वहाँ जो जीव पहुंचते हैं उनकी आपस में मित्रता रहती है। सिंह और मृग भी एक सभा में बैठें तो उनमें भी परस्पर में विरोध नहीं रहता है। सर्प और नकुल भी एक साथ बैठें रहते हैं। निर्मल दशाएं हो जाती हैं, निर्मल आकाश हो जाता है और 6 ऋतुओं के फल-फूल फलने लगते हैं। असमय में तो वृक्ष के फल किसी उपाय से अब भी लोग कर सकते हैं, जो उनका उपाय हो, जैसी गर्मी चाहिए, जैसा वातावरण चाहिए, उस उपाय से असमय में फल उत्पन्न अब भी किए जा सकते हैं। वहाँ तो कुछ कमी ही नहीं है, प्रभु की निकटता है, देवों का प्रबंध है। असमय में फलने-फूलने वाले वृक्ष एक साथ फल-फूल दिया करते हैं। उस समय पृथ्वी कांच की तरह निर्मल हो जाती है। पहिले तो जीव के इन अद्भुत प्रबंधों को ही निरखकर विषयकषायों के परिणाम शिथिल हो जाते हैं और जब प्रभु के दर्शन करते हैं तो वहाँ विषयकषायों का रहना नहीं होता है।
नि:सहि का उपयोग―भक्तजन मंदिर में दर्शन करने जब जाते हैं तब मंदिर के द्वार से लोग नि:सहि-नि:सहि बोलते हैं। उसका परमार्थ प्रयोजन यही है कि हमने रागद्वेष भावों से 23-23 घंटे दोष किया है। अब हम जा रहे हैं भगवान् के दरबार, कुछ वहाँ इन रागद्वेषों के विषयकषायों की दाल गल नहीं सकती है। ये विषयकषाय मिट जायेंगे। यहाँ चिरकाल के उन दोषों की दोस्ती निभाई जा रही है, सो शुरू में यह आवाज दे रहे हैं कि हे विषयकषायों के परिणाम ! तुम निकल जावो। नि:सहि का अर्थ है निकल जावो ताकि तुम्हें यह कष्ट न हो कि अचानक ही क्यों नष्ट कर दिया? यों सूचना देते हुए लोग नि:सहि बोलते हैं। प्रभु के निकट ये रागद्वेष के भाव रह नहीं पाते।
प्रभुपादपद्मतलस्थ हेमपद्म की शोभा―भगवान् अरहंत प्रभु आकाश में विहार करते हैं और जब वे विहार करते हैं तो उनके चरणों के नीचे कमल रचे जाते हैं, ये देवकृत अतिशय हैं। एक चरण तो वह, जहां रखा हुआ है उसके नीचे कमल है और आगे 7 कमल और रचे गए हैं, पीछे भी सात कमल हैं। एक पंक्ति में 15 कमलों की रचना होती है यह एक युक्ति है, भक्ति का परिचय है। जैसे यहाँ लोक के किसी बड़े पुरुष के शुभागमन में कपड़े बिछाते हैं, रेशमी कपड़ा बिछाते हैं, वैसे ही वे प्रभु आकाश में गमन करते हैं तो देवता उनके चरणकमलों के नीचे कमल रच देते हैं। जहां प्रभु के दोनों चरण विराजमान् हों वहाँ एक समृद्धि की रचना हो जाती है। ऐसा होने के लिए प्रभु ने क्या किया था कि इस भगवान् आत्मा के जो ज्ञान दर्शनरूप दो चरण हैं उनको उन्होंने अपने उपयोग में विराजमान् किया था, उस सहजज्ञान, सहजभाव की उन्होंने आराधना की थी, तब उन्हें अंतरंग अनुभव की समृद्धि प्राप्त हुई। तब फिर उनके अतिशयों में बाह्य अतिशय स्वर्ण कमलों की रचना है तो कौनसे आश्चर्य की बात है?
देवकृत अनेक अतिशय―देवगण आकाश में ही जय-जय की ध्वनि गूंज लगाते हैं, मंद और सुगंधित पवन चलाते हैं और सुंदर सुगंधित बहुत पतली जल की बूंदें बरसाते हैं, सुगंधित पुष्पों की वृष्टि होती है। जब वे विहार करते हैं। जिस दिशा की ओर विहार करते हैं उस ओर देवगण ऐसा प्रबंध रखते है कि भूमि में कोई संकट न रहे प्रभु की भक्ति में बाधा न पहुंचे। उस समय सारी सृष्टि हर्षमय हो जाती है। ऐसे भगवान के केवलज्ञान होने पर इतना अतिशय देवतागणों के द्वारा किया जाता है।
तीर्थकृद्वंध का पुण्यप्रताप―यों 34 अतिशयों के निधान भगवान् अरहंतदेव होते हैं। भगवान् अरहंतदेव परमौदारिक शरीर वाले हैं। उनके शरीर में कोई अशुद्ध धातु उपधातु नहीं रहती है। उनके नेत्र शुद्ध विकसित रहते हैं, पलक नहीं गिरती है, महान् पुण्य के आश्रयभूत हैं। तीर्थंकर प्रकृति से बढ़कर और कोई प्रकृति नहीं होती है। भला बतलावो तीर्थंकर प्रकृति उदय में तो आएगी 13 वें गुणस्थान में, किंतु तीर्थंकर प्रकृति का चूंकि बंध किया है तो अन्य पुण्यप्रकृतियों में इतनी विशेषता आ जाती है कि उनके जन्मकाल में और जन्मकाल से भी 6 महीना पहिले देवगण खुशी मनाते हैं। बताते हैं कि तीर्थंकर के पिता के आँगन में प्रतिदिन रत्नवृष्टि होती रहती है। 6 महीने पहिले से लेकर जब तक वे बाहर न आ जायें, जन्म न हो जाए अर्थात् 15 महीने तक रत्नवृष्टि होती है।
तीर्थकृद्वंध का नरकगति में भी प्रताप―कोई जीव नरकगति से आकर यदि तीर्थंकर बनता है तो जब उस नारकी की आयु 6 महीने शेष रहती है तो उस नरक में एक विक्रियामयी कोट रचा जाता है और वहाँ पर वे नारकी सुरक्षित, सर्वदु:खों से रहित, कोई पीड़ा न दे सके―ऐसी स्थिति में रहते हैं। नरकगति में निरंतर दु:ख हैं, किंतु जहां तीर्थंकर होते है। उनको अपनी आयु के अंतिम 6 महीना में कोई बाधा नहीं रहती है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध ही तो किया, उदय नहीं है, पर उस बंध की भी इतनी महत्ता है कि तीर्थंकर प्रकृति के बंध के साथ जो अन्य पुण्य प्रकृतियां है, उनमें इतनी विशेषता हो जाती है कि जन्मकाल से पहिले से ही एक हर्षमय वातावरण बन जाता है। कुछ ऐसा समझ लो जैसे कि जिस पुरुष के बारे में यह विदित हो जाए कि यह पुरुष अब मिनिस्टर बनेगा, बनेगा तो दो माह बाद, पर पहिले ही उसकी आवभक्ति अधिक होने लगती है। यों ही तीर्थंकर होगा 13 वें गुणस्थान में, लेकिन अभी से इंद्र का आकर्षण हो जाता है।
ज्ञानसूर्य―जिन तीर्थंकर का परमविकास हुआ हैं, मुनिजनों के मोक्षमार्ग के विकास के प्रमुख निमित्तभूत हैं, जिनके चार घातियाकर्म विनष्ट हो जाते हैं, जिनका चारित्र, जिनका स्मरण सर्वजीवों को सुख उत्पन्न करने वाला है, वे परमप्रभु तीर्थंकर जयवंत हों। ये प्रभु अरहंतदेव पूर्ण निष्काम, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह―इन समस्त शत्रुवों से रहित है, अजेय है। अब इन पर किसी भी देश का आक्रमण नहीं हो सकता। अनेक जीवों के पुण्यबंध के लिए वे निमित्तभूत हैं। जैसे कमल के विकास में सूर्य निमित्त है, ऐसे ही जगत् के जीवों के विकास में ये प्रभु अरहंत निमित्तभूत हैं, इसलिए परमसूर्य है। यह सूर्य तो पौद्गलिक अंधकार को नष्ट करने में कारण है, किंतु प्रभु सूर्य जीवों के अज्ञानांधकार को नष्ट करने में हेतुभूत है। यह सूर्य तो कभी आताप का भी कारण बन जाता है, गर्मी की वेदना का भी कारण बन जाता है, किंतु यह प्रभु सूर्य हर प्रकार से जीवों के शांति का ही निमित्तभूत होता है। भगवान् की मुद्रा के दर्शन से, भगवान् की दिव्यध्वनि सुनने से, भगवान् की उपदेश परंपरा से, प्राप्त हुए आगम के अध्ययन से सर्वप्रकार से जीवों को शांति प्राप्त होती है।
आनंद के कारणभूत―यह प्रभु सर्वविद्यावों में निधान परम आनंदरूप परिणत हैं। दूसरे का सुख का कारण वही हो सकता जो स्वयं सुखी हो। जो स्वयं दु:खी है वह दूसरे के सुख का कारण कैसे हो सकता है? भगवान् सकल परमात्मा स्वयं अनंत आनंदमय हैं, इस कारण वे सर्वजीवों के आनंद के हेतुभूत हैं। आनंद तो हमारा आपका कहीं खो नहीं गया है, कहीं भाग नहीं गया है, आनंद तो स्वयं में ही है, पर अपने इस निर्विकल्प आनंदस्वरूप की परख किए बिना बाह्यपदार्थों में आशा बना रहे हैं। उन बाह्यपदार्थों की भिक्षा मांग रहे हैं, इस कारण से दु:खी हो रहे हैं, दु:खी प्रयत्न करके हो रहे हैं। सहज तो यह आनंदमय ही है।
प्रभुभक्ति से प्रभुता की प्राप्ति―इस आनंदमयस्वरूप का विकास प्रभु के हुआ है, सो वे सर्वप्राणियों के आनंद के कारण हैं। कोई सरागभक्ति करके, पुण्यबंध करके लौकिक सुख प्राप्त कर लेता हैं तो कोई शुद्ध भक्ति करके अपना मोक्षमार्ग बना लेता है। प्रभु अरहंतदेव सब जीवों के सुख के कारणभूत हैं। संसार का संताप प्रभु के नहीं रहा, जिसके पास जो चीज है, वही चीज उसकी भक्ति और संगति सेवा से मिला करती है। किसी ज्ञानवान की सेवा करके आप धन कहां से पा लेंगे? ज्ञान पाया जा सकता है। किसी धनवान की सेवा करके ज्ञान कहां से पाया जा सकता है? कुछ धन पा लोगे। प्रभु अरहंतदेव संसार के संताप से दूर हैं और सहज अनंत आनंदमय हैं। उनकी भक्ति के प्रताप से जीव आनंद प्राप्त कर सकते हैं, ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, फिर भी प्रभुभक्ति में यह विशेषता है कि धन प्रभु नहीं देते, किंतु जो प्रभु की भक्ति करता है, उसके ऐसा पुण्य का बंध होता है कि मनचाहा लौकिक सुख उसे स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। ये लौकिक सुख के भी देनहार इस तरह से हुए।
प्रभु की विशेषतायें―इनमें प्रमुखता तो संसारसंताप हरने की है, इसी कारण ये सकल परमात्मा हरि कहलाते हैं। जो पापों को हरे, उसे हरि कहते हैं। यह सकल परमात्मा हर कहलाता है। जो सर्वभाव-मल को दूर करे, उसे हर कहते हैं। यह ही भगवान् शिवस्वरूप हैं। शिव का अर्थ है आनंद, कल्याण। यह कल्याणमय है अर्थात् शुद्ध सृष्टियों की रचना वाला है। अतएव यही ब्रह्मा है, अपने सुगम स्वाधीन ऐश्वर्य का स्वामी है, इस कारण ईश्वर है और स्वयं ही यह राम है। जिसके स्वरूप में योगीजन स्मरण करें, उस राम कहते हैं। यह ज्ञान लोकालोक में सर्वत्र व्यापक है, इस कारण यह विष्णु कहलाता है। बुद्ध ज्ञानमय है।
जयवाद―ऐसे प्रभु अरहंतदेव भक्तजनों के आदर्शरूप हैं, संकटों के हरने वाले हैं। जिनके चरणकमल में बड़े-बड़े राजा-महाराजा शीश नवाते हैं―ऐसे कषायरहित अपगतवेद शुद्ध सम्यक्त्व के धारी अरहंतदेव जयवंत हों। भैया ! प्रभु तो जयवंत हैं ही, किंतु उनके स्मरण के प्रसाद के धर्ममार्ग में लगे हुए हम आप भी जय प्राप्त करें―ऐसी भक्त के अंतर में भावना है। भक्त की भावना के कारण भक्त स्वयं उनका जयवाद करता है अथवा यों कहो कि भगवान् अरहंतदेव की जो गद्दी है अर्थात् धर्मप्रचार, धर्मप्रसार। वह धर्मप्रसार जयवंत हो, इसके लिए भगवान् की जय बोलते हैं।
प्रभु की जीवन्मुक्तता―प्रभु अरहंतदेव को हम संसारी जीव तो कह नहीं सकते। जो निर्दोष हो गये, केवलज्ञानी हो गए―ऐसे प्रभु के संबंध में अब उनके संसारपना कहना कैसे युक्त है? साथ ही अभी वह स्थिति भी नहीं है कि शरीर के कर्म, लगाव, बंधन―इन सबसे बिल्कुल मुक्त हो गये हों। वे सशरीर परमात्मा हैं। उन्हें न संसारी कह सकते हैं और न सर्वथा मुक्त कह सकते हैं, अत: उनको जीवनमुक्त कहना चाहिए। वे शरीर में बसते हुए भी मुक्त है बाहरी मल लग गया है शरीर का और अघातिया कर्मों का प्रसंग हैं किंतु उनसे इस आत्मा के गुणों में कोई बाधा ही नहीं आती है। ऐसा यह जीवनमुक्त है, सर्वपापों से परे है। विभाव किसी प्रकार का अब उनमें संभव नहीं है।
तरणतारण―प्रभु ने भव्यजीवों के सर्वसंकटहारी मोक्षमार्ग को प्रकट किया है। जैसे कोई पुरुष नदी में से निकल कर पार हो रहा हो, पार हो चुका हो तो उसे यह अधिकार है कि दूसरी पार रहने वाले लोगों को समझाये कि इस रास्ते से आवो, इसमें न कहीं खड्डा है, न कहीं कोई धोखा है, तुम पार हो जावोगे। इसी तरह इस संसारसमुद्र में से जो पार हो चुके हैं―ऐसे अरहंतभगवान् को यह शोभित और समर्थ अधिकार है कि वे विश्व के जीवों को यह निर्देश दे सकें कि इस-इस विधि से आओ। देखो इस विधि से चलकर हम भी मुक्त हुए हैं। प्रभु यों नहीं कहते हैं, किंतु उनका जो उपदेश है, उसमें ऐसी झलक पायी जाती है कि इस मार्ग से चलो तो तुम भी मुक्त हो जावोगे। तत्त्व का श्रद्धान् करो, इस शुद्धआत्मतत्त्व का परिज्ञान करो और इस आत्मतत्त्व में ही रम जावो तो इस विधि से संसार से पार हो जावोगे। यों निर्वाण मार्ग का उपदेश करने वाले अरहंत प्रभु हमारे नयन पथ पर सदा चलने वाले रहें अर्थात् वे मेरी दृष्टि में बने रहें।
भक्ति का महत्त्व―भक्ति में अतुल प्रताप है। कोई यदि शुद्ध व्यवहार भी पा ले, शुद्ध ज्ञान भी पा ले, चारित्र भी पा ले, लेकिन इस शुद्ध ज्ञानपुंज भगवान में यदि भक्ति नहीं जगती है तो समझ लो कि सहज परमनिर्वाध उत्कृष्ट, सत्य, आनंद महल में तो किवाड़ पहिले से लगे हुए थे उनके खुलने का अवकाश नहीं मिल सकता। इस आनंद महल में मोह के किवाड़ लगे हुए हैं, उन किवाड़ों में विषय शक्ति का जो ताला लगा है उसके खोलने की कुंजी यथार्थ प्रभुभक्ति है। प्रभुभक्ति बिना किसी को मार्ग नहीं मिल सकता। शुद्ध आनंद का विकास, शुद्ध ज्ञान का विकास ही मोक्ष कहलाता है, जिन्हें संसार के संकटों से छूटने की अभिलाषा है उन्हें चाहिए कि वे ज्ञानपुंज आनंदघन भगवान की भक्ति में अपना उपयोग लगायें।
कल्याणप्रवाह―ये भगवान कार्यपरमात्मा ऐसे विशुद्ध स्वरूप को देखने से उनके सहज स्वभाव का भी सुगम परिचय होता है। और वहाँ सहजस्वभाव का परिचय होने के कारण अपने आपमें अपने सहजस्वभाव का परिचय होता है। जिसे आनंदस्वरूप अपने आत्मतत्त्व का परिचय हुआ है उसे संसार में कोई बाधा नहीं। यह है एक महान् वैभव। यथार्थज्ञान के समान वैभव लोक में अन्य कुछ नहीं है। बाह्य पदार्थ जो मुझसे अत्यंत भिन्न हैं, ये मुझमें क्या करामात कर सकते हैं? मैं स्वयं आनंदस्वरूप हूं। मोह छोड़ो, रागद्वेष हटावो और अपने शुद्ध आनंद का अनुभव कर लो। मिश्री की डली हाथ में है। किसी से पूछने की क्या आवश्यकता है कि यह कितनी मीठी होती है? अरे स्वयं खाकर समझ लो। यहाँ तो फिर भी अंतर है। मुंह दूर है, हाथ दूर है, डली भिन्न पदार्थ है, किंतु आत्मीय आनंद के अनुभव के लिए कोई भी अंतर नहीं है। यह अनुभव करने वाला स्वयं है, यह आनंद स्वयं है, और आनंद के अनुभव की पद्धति से अनुभव होता है। ऐसे ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु की भक्ति से अपने आत्मस्वरूप का विकास होता है, ऐसे हेतुभूत प्रभु की भक्ति हम सबका कल्याण करती है।