वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 73
From जैनकोष
पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिद्दप्पणिद्दलणा।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होंति।।73।।
आचार कुशल आचार्यपरमेष्ठी―जो पंच आचारों से परिपूर्ण हैं, पंचेंद्रियरूपी हाथी के मद को दलने वाले हैं धीर और गुणगंभीर हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। आचार्य परमेष्ठी का साधारणतया यह लक्षण है कि जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन 5 आचारों के पूर्णतया पालने में पूर्ण कुशल हैं और अन्य साधुजनों को इन पंच आचारों का पालन कराते हैं उन्हें आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। आचार्य परमेष्ठी के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि उनके 36 मूल गुण होते हैं―5 आचार, 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति, 12 प्रकार के तप और 6 आवश्यक अथवा महव्रतसमिति के स्थान में 10 धर्म लें, यों 36 उनके मूल गुण बनाये हैं, किंतु एक दृष्टि से देखो तो जिस कला के कारण वे आचार्य कहलाते हैं उस दृष्टि से इनके 8 महागुण हैं।
आचार्य में महागुणों की विशेषता―36 प्रकार के गुण वे तो हैं ही साधु के नाते। जितने साधु हैं सभी साधुवों में ये 36 गुण होने चाहियें। क्या उन साधुवों को तप न करना चाहिए, व्रत न करना चाहिए? करना चाहिए, तो वे सब एक सर्व श्रमणों में साधारण हो गए। हाँ इतनी विशेषता है कि साधुवों के चारित्र से आचार्य के चारित्र में कुछ दृढ़ता है और वे दूसरों से पालन भी कराते हैं किंतु दृढ़ता भी किन्हीं-किन्हीं साधुवों में आचार्यों से भी अधिक होती हैं तप आदिक के पालने में। खैर, ये 36 मूल गुण हैंजिनका प्रसार अन्य साधुजनों में करते हैं उनका प्रसार जब आचार्य महाराज भली प्रकार करें तब ही तो करा सकते हैं। इस कारण 36 मूल गुण बताये हैं, किंतु आचार्यत्व जिस कारण से होता है उस दृष्टि से आठों भी गुण सुनिये। पहिला गुण है आचारवत्व, दूसरा आधारत्व, तीसरा व्यवहारवत्व, चौथा प्रकारत्व, पांचवां गुण है आयापायविदशित्व, छठवां गुण है अपरिश्रावित्व, सातवां गुण है अवकीर्णकत्व, आठवां गुण है निर्यापकत्व। ये बातें जरा प्रसिद्ध नहीं हैं। इस कारण सुनने में ऐसा लगता होगा कि यह कोई नई बात बतायी जा रही है। आचार्य के ये 8 महागुण होते हैं, यह शास्त्रयुक्त है और इन 8 विशेषतावों के कारण वे आचार्य कहलाते हैं। इन गुणों से युक्त आत्मा के आचार्यत्व होता है।
आचार्य का आचारवत्त्व गुण―5 प्रकारों के आचारों का स्वयं निर्दोष पालन करना, अन्य साधुवों को पालन कराना, यह है आचार्यत्व। जितनी 36 प्रकार की बातें बतायी हैं वे सब एक दो गुणों में आ गयीं। चारित्राचार में 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति आ गयी, तपाचार में 12 प्रकार का तप आ गया। 5 आचारों में 5 आचार हैं ही और आवश्यक भी उन्हीं में गर्भित हो गए। यों एक आचारवत्त्व गुण ने सबको प्रतिष्ठित कर दिया। अब और विशेषता सुनिये।
आचार्य का आधारवत्त्व गुण―दूसरा गुण है आधरवत्व। आचारांग आदि श्रुत का विशेष धारक हो उसे कहते हैं आधारतत्त्व। जैसे आपने एषणासमिति में और अन्य समितियों में भी साधु का स्वरूप सुना था और यह बात प्रकट की होगी अपने आपमें कि वास्तव में साधु कैसा होना चाहिए? अब आप यह बात देखें―वास्तव में आचार्य कैसा होना चाहिए? जिसके अंदर ये 8 महागुण प्रकट हों वे आचार्य कहलाते हैं। दूसरा गुण है श्रुत की विशेषता। कुछ तो श्रुत की विशेषता हो। जो उपाध्यायों पर भी कन्ट्रौल करते हैं ऐसे आचार्य का कैसा ज्ञान होना चाहिए? कुछ कल्पना तो करिये।
आचार्य का व्यवहारित्व गुण―तीसरा गुण है आचार्य का व्यवहारित्व। प्रायश्चित शास्त्र की विधि जो जानते हो और उसके अनुसार व अपने ज्ञानबल के अनुसार दूसरों को यथार्थ प्रायश्चित देने की जिनमें क्षमता वे होते हैं व्यवहारी आचार्य। प्रायश्चित का देना बहुत बड़ा काम है। शिष्य की शक्ति, शिष्य में अंतरंग कलुषता व द्रव्य, क्षेत्र, काल का वातावरण सबका विचार कर ऐसा प्रायश्चित्त देना जिससे कि आत्म शुद्धि बढ़े, वह आगे न उद्दंडता कर सके और न संक्लेश कर सके। ऐसा प्रायश्चित्त देने की सामर्थ्य जिसमें हो उसे कहते हैं व्यवहारवान्।
आलोचना की पद्धति―कैसे आलोचना की जाती है, कैसे प्रायश्चित्त दिया जाता है? दूसरी पूरी कला तो योग्य शिष्य और योग्य आचार्य में होती है। पर साधारणतया तो जानें कि शिष्य अन्यत्र वातावरण में एकांत स्थान में शुद्ध स्थान में जिसके आसपास अपवित्र चीज न हो, अत्यंत कुंठित न हो ऐसे शुद्ध स्थान में गुरु से शिष्य अपनी आलोचना करता है, उसे सुन लेता है, आचार्य पर उस पर प्रथम विशेष ध्यान नहीं देता। ध्यान मानों इसलिये नहीं दिया कि शिष्य को यह ज्ञात रहे कि अभी हमारे गुरु महाराज ने हमारे प्रतिवेदन को भली प्रकार सुना नहीं है। आप देखते जाना कितना रहस्य है और इसमें कितना राज साही तेज प्रकट है आचार्यों में? फिर समय पाकर दूसरी बार आलोचना करता है। कोई दूसरी बार को ही तो आलोचना समझे तो आचार्य सुन लेते हैं और उसका विधान दे देते हैं और न समझे तो वे फिर उपेक्षा कर जाते हैं, वह फिर तीसरी बार आलोचना करता है और उस तीसरी बार की आलोचना में वह इतने प्रताप के साथ सुनता हे कि जैसे सिंह के सामने मांस खाया हुआ स्याल हो तो वह स्याल मांस को उगल देना है। ऐसा ही प्रताप आचार्य महाराज का होता है कि शिष्य ने जो दोष छिपा रक्खा है आचार्य के सामने आलोचना करते हुए में, सब प्रकट कर देता है।
शुद्ध आलोचना का कारण―प्रथम तो यह बात है कि वह शिष्य स्वयं कल्याणार्थी है। वह चाहता है कि मैं दोषों का कोई भी भार न छुपाऊं क्योंकि फिर मुझे मोक्षमार्ग में बाधा रहेगी।
उसे तो कल्याण चाहिए। सो शिष्य ही कोई बात छिपाता नहीं है, पर कदाचित् छिपाये तो आचार्य का इतना प्रताप हे कि वह छुपा नहीं पाता है, फिर आचार्य सोचकर उसे प्रायश्चित्त देते हैं। कौन शिष्य कैसा है, किस योग्य है, कैसा ज्ञानबल है, किस ओर उसका मुड़ाव हैं? सब बात आचार्य की यथार्थ विदित रहती हैं और उसके अनुसार वे प्रायश्चित्त देते हैं। वहाँ शिष्यजन यह शंका नहीं करते कि यह दोष तो इसने किया है, मुझे तो आचार्य महाराज ने बड़ा दंड दिया। यह दोष इसने किया, इसने बहुत ही कम प्रायश्चित्त किया। जो आचार्य प्रायश्चित्त देते हैं उसे शिष्य प्रमाणभूत मानते हैं।
योग्यतानुसार प्रायश्चित्तप्रदान―एक लौकिक कहानी है कि एक बार तीन चोरों ने चोरी की। उनमें एक बड़ा सज्जन था और पहिला ही दिन था चोरी करने का। उस दिन किसी कारण से उन चोरों के संग में हो गया था, तो कुछ दिन मामला सुनने के बाद न्यायाधीश ने उन तीनों चोरों को तीन तरह के दंड दिये। एक को कहा कि तुमने बहुत बुरा काम किया तुमको ऐसा न करना चाहिए था, ऐसा कहकर छोड़ दिया। एक चोर को एक साल की सज़ा दे दी। एक चोर को यह दंड दिया कि इसका मुंह काला करके गधे पर बैठालकर नगर में घुमाया जाय। लोग सुनकर सोचने लगे कि एक ही तरह की चोरी एक ही तरह का अपराध और तीन तरह के दंड क्यों दिये? अब दंड के बाद समझ में आयेगा। जिसको यों ही छोड़ दिया गया कि यह कहकर कि धिक्कार है तुमने बुरा काम किया, सो उसके इतनी लाज लगी कि वह घर में आकर कोठरी में छुपकर हवा बंद में पड़ा रहा जिससे दम घुटकर मर गया। एक चोर तो जेल में हे ही, और उसका किस्सा सुनो जिसका मुंह काला करके गधे पर बैठाल कर नगर में घुमाया जा रहा था। वह चला जा रहा है मजे में। जब उसका घर पड़ा सामने तो स्त्री भी देखती है। सभी लोग देखना चाहते हैं। विचित्र तो ढंग है, वह पुरुष गधे पर बैठा हुआ ही अपनी स्त्री से चिल्ला कर कहता है कि अरे पानी गरम करके रखना, थोड़ा और घूमने के लिए नगर रह गया है। देख लो उसका काला मुंह करके गधे पर बैठाल कर घुमाना भी कम दंड हैं तो आचार्य महाराज सब शिष्यों की बात परखते है―किसको किस तरह का प्रायश्चित्त देना चाहिए? इतनी योग्यता जिसमें पड़ी हो वह आचार्य हो सकता है, अन्य कोई नहीं हो सकता है। आचार्य होना इन 8 गुणों के आधार पर है, जिसमें यह तीसरा गुण बताया है।
आचार्य का प्रकारकत्व गुण―चौथा गुण है प्रकारकत्व। सर्व संग की वैयावृत्ति करने की विधि का परिज्ञान हो और वैयावृत्य करने की जिनमें कला हो उसे प्रकारक कहते हैं। जो स्वयं वैयावृत्ति करने में संकोच न रखे स्वयं करे तो शिष्य लोग भी करेंगे और स्वयं यदि आर्डर देता रहेगा और खुद कुछ भी प्रयोग न करे उनका शासन नहीं बन सकता है। यह शासन वात्सल्य का शासन है। तो वैयावृत्ति करने की विधि का परिज्ञान और वैयावृत्ति करने की उत्तम कला हो उसका नाम प्रकारकत्व गुण है।
आचार्य का आयापायविदशित्व गुण―5 वां गुण होना चाहिए आचार्य में आयापायविदशित्व। किसी भी कार्य की हानि हो, किसी भी कार्य में लाभ हो उसके बताने की जिसमें क्षमता है वह होता है आयापायविदर्शी। आचार्य महाराज लाभ अलाभ की बात जान जाते हैं। अकंपनाचार्य मुनि महाराज, जो कि 700 मुनियों के आचार्य थे, जान लिया था उज्जैन नगर में कि यहाँ बड़ा उत्पात होने को है, यदि पहिले उपयोग दिए होते इस ओर तो उस स्थान पर ही न जाते, क्योंकि संघ सहित थे। जब जाना तब सबको आज्ञा किया कि सब लोग मौन रहें। तो लाभ जानना, हानि जानना, उससे बचने का उपाय जानना, यह बात जिनमें विशेषता से पायी जाती है वे आचार्य होते हैं।
आचार्य का अपरिस्रावित्व गुण―7 वां महागुण है आचार्य में अपरिस्रावित्व। आचार्यमहाराज में इतनी उदारता होती हे कि कोई शिष्य कैसी ही आलोचना करे, उसके उस कथन को, दोष को यों पी जाता है अर्थात् किसी को प्रकट नहीं करता। जैसे बहुत तपे हुए तवे पर बूंद गिरती है तो फिर उस बूंद का कहां पता रहता है? जैसे वह बूंद सूख जाती है इसी तरह की गंभीरता आचार्य परमेष्ठी में होती है कि कोई भी दोष बताएं, आचार्य महाराज कहीं भी बताते नहीं है, क्योंकि यदि बता दें तो उससे कितनी ही हानियां हैं? प्रथम तो यह बड़े के अनुरूप बात नहीं है कि किसी के दोष को प्रकट करे, कहे और कर दे प्रकट तो पहिले तो संग में रहने वाले मुनियों की आस्था आचार्य से हट जायगी, फिर अन्य कोई उनसे आलोचना न करेंगे। यों फिर वे आचार्य नहीं रह सकेंगे। नाम के लिए चाहे कोई भी आचार्य नाम धरा ले। मान लो कोई मुनि अकेले हैं, 10, 20, 50 श्रावकों से कहलाकर चाहे अपने को आचार्य कहलवा लें, लो बन गए आचार्य, यों आचार्यत्व नहीं मिलता। आचार्यत्व होने में इतने सब गुण होने चाहियें, दोष प्रकट कर दे तो कहो शिष्य संक्लेश के मारे अपघात कर डाले और अपना अकल्याण कर ले। शिष्य का इससे क्या भला हुआ और संघ का इससे क्या भला हुआ? संघ के समस्त मुनियों की उनसे आस्था हट गयी।
आचार्य का निर्यापकत्व गुण―8 वां गुण है निर्यापकत्व। शिष्यों का निर्यापन करना। शिष्य ने जो आराधना धारण की है उसकी यह आराधना अंतिम समय तब चले और उस समाधि का समता का आश्रय पाकर शिष्य पार हो जाय, ऐसी उपाय करना ऐसी जिसमें क्षमता हो, वह निर्यापक कहलाता है। ऐसे 8 महागुणकरि संपन्न जो साधु परमेष्ठी होते हैं उन्हें आचार्य कहते हैं।
आचार्यदेव की संवेगनिष्ठता―ये भगवान आचार्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य―इन 5 आचारों से परिपूर्ण हैं और पंचेंद्रियरूपी मदांध हाथी के दर्प को दलने में समर्थ हैं अर्थात् विषयों की आशा के रंच भी वश नहीं है। सारी बात लगन की होती है। लगन हुए बिना धर्म का कोई कार्य किया जाय, कोई भेष रखा जाय उससे कुछ भी सिद्धि नहीं होती है। जिसकी लगन शुद्ध ज्ञायकस्वरूप के शुद्धविकास की ही लग रही हो उसके लिए ये सरस आहार सब विरस लगते हैं। उनको तो रस अपने दर्शन ज्ञान स्वभाव की अनुभूति में आता है। लगन की बात है। इसकी लगन जिसे नहीं है वह इसके रहस्य को क्या पहिचान सकता है? यों ही समझ लीजिए सांसारिक कार्यों में जिसको जिस बात की तृष्णा हो गयी है, जिसकी जिसे लगन हो गयी है उसे अन्य कुछ नहीं सूझता। उसको तो केवल अपने लक्ष्य की बात ही सूझती है। तो लगन में यह प्रताप प्रकट होता है कि उसे बाकी बातें सब नीरस मालूम होने लगती हैं। उसको निज में लीन होने वाली बात ही सरस लगती हैं।
सकलसंन्यासियों की विषयातीतता―जिन महाभाग निकट भव्य मुनिराज को केवल एक शुद्ध ज्ञानमात्र रहने की स्थिति की लगन लगी है, जो ज्ञाताद्रष्टा रहने का ही यत्न करते हैं, रंच भी राग और द्वेष हो तो उसे अपना अपाय समझते हैं उनको ये आहार आदिक कैसे रुच सकते हैं? साधुजन ध्यान तपस्या में लीन हैं। कोई कीड़ी, बिच्छू, स्याल, चूहा कुछ भी भख रहा हो, काट रहा हो तो वे भी अपने आत्मस्वरूप से नहीं चिगते हैं। क्या उनके हाथ में इतना बल नहीं है कि उन्हें वे अपने हाथों से हटा सकें? अरे उनमें तो इतना बल है कि बड़े-बड़े सिंहों को भी अपने भुजावों के बल से हटा दें, पर वे अव्यग्र होकर ध्यान में लगते हैं। चक्रवर्ती भी तो मुनि हो जाते हैं, कोटि बलधारी भी तो मुनि बन जाते हैं, लेकिन उन्हें ज्ञाता द्रष्टा रहने की स्थिति से इतना पूर्ण अनुराग है कि वे इन विकल्पों को भी पसंद नहीं करते। वे इस देह के राग को अथवा डसने वाले इन कीट आदिक के द्वेष को रंच भी पसंद नहीं करते। जानते हैं कि रागद्वेष के विकल्पों से अकल्याण ही है। वे अपने ज्ञाता द्रष्टा रहने के यत्न में बाधा नहीं डालते हैं। इतनी जिसमें दृढ़ता है वह पुरुष इंद्रिय के विषयों के क्या आधीन हो सकता है? वह इंद्रिय विषयातीत है, ऐसा दृढ़ पुरुष आचार्य परमेष्ठी होता है।
आचार्यदेव की पंचाचार समग्रता―आचार्य परमेष्ठी सम्यग्दर्शन आचरण में याने सम्यग्दर्शन के परिणमन में युक्त रहते हैं और अन्य साथियों को भी उसमें लगाते हैं, इस कारण आचार्यों का यह दर्शनाचार दृढ़तापूर्वक पलता है, ऐसा ही सम्यग्ज्ञान के विषय में आचरण करते हैं अर्थात् ज्ञानस्वरूप में अपना उपयोग लगाते हैं और अन्य साधुवों को सम्यग्ज्ञान में प्रयुक्त करने का उद्यम करते हैं। इस कारण उनका यह ज्ञानाचार मूल गुण है। चारित्र के संबंध में भी वे स्वयं आचरण करते हैं और दूसरों को भी आचरण का उपदेश करते हैं। वास्तविक सम्यक्चारित्र है अनादि अनंत अहेतुक निर्दोष चित्स्वभावमय अपने स्वरूप में उपयोग रखने के बल से योगों को चेष्टा रहित कर देना। ये आचार्य परमेष्ठी अनशन आदिक 12 प्रकार के तपों में भी स्वयं लगते हैं और अन्य साधुवों को भी लाभप्रद उपदेश से लगाते हैं। इस कारण उनके यह तपाचार एक मूल गुण है, यों ही सर्व प्रकार के आचरणों के करने में अपनी शक्ति को न छिपाना, अपनी शक्ति अनुसार इन आचारों में प्रवृत्ति होना इसका नाम है वीर्याचार। ऐसे ये संत पाँच आचारों करि के सहित हैं।
आचार्य परमेष्ठी की विषयों से परमोपेक्षा―ये आचार्यदेव पंचेंद्रिय के विषयों के वश नहीं हैं। जिनका भूमि पर शयन होता हैं भूमि पर जिनका आसन है, जिन्हें किसी भी कोमल पदार्थ पर बैठने की आकांक्षा तक भी नहीं होती है जो सर्वशृंगारों से दूर हैं, वर्षों का मैल शरीर पर लगा हुआ है फिर भी उसे हटाने का ध्यान नहीं रखते हैं, ऐसे साधुजन क्या स्पर्शन इंद्रिय के वश होंगे? जो निज ज्ञानरस के अनुभव में लीन रहा करते हैं, उत्कृष्ट शुद्ध परमानंद जिनके प्रकट हो रहा है ऐसे साधुजनों को रसना इंद्रिय के विषयसेवन से क्या प्रयोजन? घ्राणेंद्रिय के विषय की तो चर्चा ही क्या करें? जो साधुजन अपवित्र वस्तुयें दिख जायें तिस पर भी नाक तक नहीं सिकोड़ते हैं ऐसे पुरुषों को सुगंधित तेल या किसी भी वस्तु के सूंघने की इच्छा नहीं हो सकती है। जिनके नेत्र भगवंत के दर्शन के लिए ही उत्सुक हैं, जिन वचनों के, शब्दों के सुनने के लिये उत्सुक हैं वे पुरुष इन नेत्रों से विषयों के पोषक पदार्थों को क्या निरखेंगे? एक बार तो कुछ दिखने में आ जाता है किंतु दुबारा उस रम्यरूप के देखने की यदि चेष्टा है तो समझो वह अपने पद से चलित हो रहा है। जो सत्य धर्म के वचन सुनने की ही भावना बनाये रहते हैं, जो धार्मिक, आध्यात्मिक, भक्तिविषयक शब्द ही सुनना चाहते हैं अथवा जो सभी प्रकार के इंद्रियों के संयम की वांछा रखते हैं, जो गुप्ति के पालने में अभिलाषी रहते हैं ऐसे पुरुष संतजन किस विषय की अभिलाषा करेंगे? जैसे कोई वीर मदांध हस्ती के घमंड को दलित कर देता है ऐसे ही ये मोक्षमार्ग के वीर साधुपुरुष पंचेंद्रिय के मदांध हस्ती के दर्प को दलित कर देते हैं।
धीरता और गंभीरता―ये परम पुरुष आचार्य परमेष्ठी धीर और गंभीर हैं। समस्त कठिन उपसर्गों का मुकाबला करने की इनमें धीरता गंभीरता प्रकट हुई है। धीरता का लोग अर्थ करते हैं गम खाना, घबड़ाना नहीं, यह तो फल है ही, पर धीरता का शाब्दिक अर्थ यह है ‘धीं बुद्धिं राति ददाति इति धीर:’जो बुद्धि को दे उसे धीर कहते हैं। धीर के भाव का नाम है धीरता। बुद्धि को स्वस्थ बनाने वाली बात है समता। किसी भी पदार्थ में राग अधिक हो जाय तो बुद्धि अव्यवस्थित हो जाती है। किसी प्रकार किसी भी पदार्थ में द्वेष बढ़ जाय तो बुद्धि अव्यवस्थित हो जाती है। जगत् के प्राणी जो अनादि से अब तक भटक रहे हैं इसका कारण है परपदार्थ रागद्वेष और उस रागद्वेष का कारण है व्यामोह जरा अपनी और दृष्टि करके निहारो यह तो मात्र ज्ञानस्वरूप है। अपने आपके अंतर में आकर निरखो केवलज्ञानप्रकाश मात्र है, शरीर तक से भी संबंध नहीं है। इस निज स्वरूप की ओर दृष्टि आये तो वहाँ न कोई रोग है, न कोई कमजोरी है, न कायरता है, न व्यग्रता है, न चिंता है। चित् स्वभाव की दृष्टि ही परम औषधि है। जो सदा के लिए रागमुक्त होना चाहते हैं उन्हें इस चित्स्वभाव की दृष्टिरूप परम औषधि चाहिए। मोह एक कठिन रोग है। निर्मोहता ही इस रोग को हरने वाली अमोघ औषधि है। निर्मोहता परिणाम से ही धैर्य प्रकट होता है और गुणों में गंभीरता आती है अर्थात् परिपूर्ण होकर ज्ञाताद्रष्टा रहे ऐसी गंभीरता इस आचार्य परमेष्ठी में होती है। ये आचार्यपरमेष्ठी किसी शिष्य के दोष को निरखकर अथवा अन्य प्रतिकूल चेष्टावों को देखकर अधीर नहीं हो जाते हैं, बल्कि गंभीर होते हैं।
आचार्य का शुद्ध शासन―कल्याणार्थी शिष्य आचार्य की उपेक्षा देखें अपने प्रति तो इसका वे महा दंड समझते हैं और इसी कारण आचार्य परमेष्ठी का यह धर्म शासन निर्वाध चलता है। आचार्य की वांछा नहीं है कि शिष्यों पर शासन करें किंतु शिष्यों का प्रेम, शिष्यों का विनय और शिष्यों की ऐसी इच्छा है कि मुझ पर मेरे गुरु अप्रसन्न न हों, उपेक्षा न कर जायें, ऐसी भावना यह स्वयं आचार्य महाराज का शासन करवा लेता है। नहीं तो जिसने घर छोड़ा है, वैभव छोड़ा है ऐसे आचार्यदेव को क्या पड़ी है इस घटपट में पड़ने से कि उन साधुवों पर शासन करें, वहाँ व्यवस्था बनायें। आचार्य शासन नहीं करते, उनकी व्यवस्था नहीं बनाते किंतु शिष्यों का गुण, शिष्यों का विनय, शिष्यों की सद्भावना शासन करवा लेती है। आचार्य परमेष्ठी ऐसे प्रबल सद्भाव के हैं कि अपने आपके मोक्षमार्ग में रंच भी अंतर नहीं डालते हैं। जैसे साधुजन मोक्षमार्ग में प्रगति करते हैं यों ही आचार्य परमेष्ठी भी मोक्षमार्ग में प्रगति कर रहे हैं और साथ ही सहज भाव से शिष्यों के परोपकार भी उनसे हो जाते हैं, ऐसे लक्षणों वाले ये भगवंत आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
पंचाचार समग्रता―देखो इन आचार्य परमेष्ठी को ये 5 प्रकार के आचरण के आचरणों में बहुत कुशल हैं। जैसे स्कूल में बच्चों से कोई काम कराने को होता है, फुलवाड़ी क्यारी वगैरह लगवाना होता है तो कुशल मास्टर अपने आपमें अभिमान की मुद्रा न रखकर स्वयं उसका प्रारंभ करता है, स्वयं काम करने लगता है तो कुछ थोड़ा सा काम में मास्टर को लगते देखकर फिर वे बच्चे बड़े प्रेम से उस काम को करते हैं। केवल हुकूमत, हुकूमत से बच्चों में वह बात नहीं जग सकती है कि वे अपनी कलावों में निपुणता का काम कर सकें। ऐसे ही आचार्य परमेष्ठी साधुवों से भी अधिक आचार पालन में सावधान रहते हैं अपने आपकी कल्याण प्रवर्तना में और कोई-कोई महा साधु आचार्यों से भी अधिक सावधान होते हैं, पर प्राय: आचार्य परमेष्ठी साधुवों से अधिक सावधान रहते हैं अपने आपके मोक्षमार्ग की वर्तना में। तभी तो अन्य साधुजन स्वयमेव मोक्षमार्ग में योग्य प्रवृत्ति करते हैं।
आचारसमग्रता का मूल भाव―भैया ! आचार निपुणता की ये सब बातें तब हो सकती हैं जब पहिले अपने आपको यों तो समझ लें कि मैं अकिंचन हूं, अर्थात् मेरे में मेरे स्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी चीज का प्रवेश नहीं है, मेरे शरीर भी नहीं है, मेरे इज्जत भी नहीं है, पोजीशन भी मेरी कुछ वस्तु नहीं है, जो प्रशंसा के शब्द बोले जाते हैं उनसे भी मेरा रंच संबंध नहीं है, में तो अकिंचन हूं, अपने स्वरूप मात्र हूं, मैं जो कुछ करता हूं अपने को करता हूं, जो कुछ भोगता हूं अपने को भोगता हूं, मैं केवल हूं, ऐसी अकिंचनता की दृढ़ श्रद्धा है इस ज्ञानी संत को जिसके कारण यह मोक्षमार्ग का प्रवर्तन चलता है और साधुसंग का यह शासन निर्वाध चलता रहता है।
अव्यवस्थावों का कारण―सर्व अव्यवस्थावों की जड़ कषायभाव है। समाज में, सोसायटियों में, घरों में, धार्मिक गोष्ठियों में किसी भी जगह जब भी विवाद खड़ा होगा तो कषाय के कारण ही खड़ा होगा। और उसमें भी है प्रधान लोभ कषाय। क्रोध यों ही अचानक उठकर नहीं आता है। किसी मानी हुए इष्ट वस्तु में बाधा आये तब क्रोध उत्पन्न होता है। धन में बाधा आये, इज्जत में बाधा आये तब क्रोध उत्पन्न होता है। यह लोभ कषाय का रंग इतना गहरा है कि जिसमें रंगा हुआ प्राणी चिंतित रहता है और व्यग्र रहा करता है, कोई-कोई तो लोभ कषाय का नाम तक नहीं लेते हैं। जैसे किसी गंदी चीज का नाम लेना लोग बुरा समझते हैं ऐसे ही लोभ कषाय का नाम लेना भी कुछ लोग बुरा समझते हैं। लोभ का नाम कहना हो तो आखिरी कषाय यों कहा करते हैं। जैसे कोई मांस खाता था पहिले तो लोग मांस का नाम नहीं लेते थे, कह देते थे कि फलाना गंदी चीज खाता है, मांस का नाम लेना बुरा समझते थे, ऐसे ही लोभ कषाय का नाम भी लेने में कुछ लोग संकोच करते हैं। धन का लोभ हो, इज्जत का लोभ हो, किसी भी बात का लोभ हो तो छल कपट करना पड़ता है। मान भी अपनी इज्जत के लगाव में प्रकट होता है। सब कषायों की सरदार है लोभ कषाय। सब कषायें नष्ट हो जाती हैं। वे गुण कषाय में भले ही यह लोभकषाय अपना रंग अच्छे रूप में नहीं दिखा सके किंतु लोभ की कुछ न कुछ ऐंठ 10 वें गुणस्थान तक रहती है। जिन साधुजनों ने इन कषाय स्थानों को नष्ट कर दिया है ऐसे आचार्यपरमेष्ठी स्वयं मोक्षमार्ग में बढ़ते हैं और दूसरे शिष्यों को बढ़ाते हैं।
वस्तुपरिचय―इस विवेकी पुरुष के द्रव्य संबंधी परिज्ञान यथार्थ रहा करता है, प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, किसी का किसी से संबंध नहीं है। सभी का स्वरूपास्तित्व जुदा-जुदा है, किसी स्वतंत्रता की प्रतीति जिसके निरंतर बनी रहती है वह कैसे व्यग्र होगा? वह गंभीर है। सबसे महान् वैभव यही है कि वस्तु की स्वतंत्रता की प्रतीति रक्खी जाय। सर्व जीवों का सम्मान करना इसका सहज गुण है, रागद्वेष इस ही स्वतंत्रता की प्रतीति के बल से मिटा करते हैं। यद्यपि कुछ लोग रागद्वेष मिटाने के लिए ऐसे भी उपाय करते हैं, ऐसी भावना बनाते हैं कि जो भी दृश्यमान् पदार्थ हैं वे सब ईश्वर के हैं, वे मेरे कुछ नहीं हैं। उद्देश्य तो ठीक है पर अंतर में देखें तो वह विविक्तता इसमें नहीं आ पाती है। जो विविक्तता इस प्रतीति में बसी हुई है कि प्रत्येक स्वतंत्र है, एक का दूसरे में अत्यंताभाव है। कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ में कुछ करता नहीं है, किसी पदार्थ से कुछ निकाला नहीं जा सकता है, ऐसी प्रतीति जब आती है तो इस स्वतंत्रता की प्रतीति वाला भव्य पुरुष यथाशीघ्र निर्दोष शुद्ध एक स्वरूप में रम जाता है।
आचार्यदेव का उपकार―ऐसे समग्र गुण जिनमें मौजूद हैं ऐसे आचार्यों के संसार के क्लेश मिटाने के लिए ये वचन हैं। न होते ये कुंदकुंदाचार्य, समंतभद्राचार्य आदिक ऋषि तो आज हम आप लोगों को जो साहित्य देखने को मिलता है, कहां मिलता और फिर कल्पना कीजिए कि हम आप कहां भटकते होते? कितना परम शरण मिला है हम आपको? इस दुर्लभ धर्मसमागम को पाकर अब हम आपको क्या चिंता की बात रह गयी? आचार्य महाराज ने जो हम आप सबको दृष्टि दिलाई है उससे मैं अकिंचन हूं, यों निहार कर विविक्त शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मस्वभाव की दृष्टि कर लें तो सारी व्यग्रताएं तुरंत समाप्त हो जायेंगी। जैसे कि पानी में आग के पड़ने से आग शांत हो जाती है ऐसे ही परमोपकारक आचार्य परमेष्ठी को हमारा नमस्कार हो। ये आचार्य परमेष्ठी इंद्रिय के वश से रहित हैं, अनाकुल हैं, अपने ज्ञान में लीन हैं, शुद्ध हैं, पवित्र हैं, कषाय इनकी उपशांत हैं, इंद्रियों का इन्होंने दमन किया है, इनके संस्कार अपने शुद्धस्वरूप में संयत हैं, नियत हैं। यह ही आंतरिक भाव मोक्ष के साक्षात् कारणभूत शुद्ध ध्यान के कारण उनके होता है। सर्वप्राणियों को दु:ख न उत्पन्न हों ऐसे भावना से वे ओतप्रोत हैं। दया की मूर्ति आचार्य परमेष्ठी का कितना उपकार माना जाय? जिसने बिना स्वार्थ के जगत के जीवों का हित चाहा, ऐसे आचार्य परमेष्ठी को मन, वचन, काय को संभाल कर मेरा नमस्कार हो।