वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 86
From जैनकोष
उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं।
सो पडिकमणं उन्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।।86।।
जो जीव उन्मार्ग का परित्याग करके जिनमार्ग में स्थिरभाव को करता है वह जीव प्रतिक्रमण कहलाता है। क्योंकि वह उस समय प्रतिक्रमणमय ही है। इस गाथा में निश्चयप्रतिक्रमण के उपायों में उन्मार्ग का परित्याग करना और शुद्ध सर्वज्ञ वीतराग देव द्वारा प्रणीत मार्ग को स्वीकार करना कहा गया है।
शंकालु के निश्चयप्रतिक्रमण की अपात्रता- जो जीव मिथ्या श्रद्धान से दूर है, सद्वचनों में रंच शंका जिसे नहीं है, अपने आपके संबंध में जिसे रंच भी व्यामोह नहीं है, यथार्थ शुद्ध तत्त्व को जो जानता है, सर्वप्रकार से भयों से रहित है ऐसे ही पुरुष के निश्चय प्रतिक्रमण हो सकता है। जो मिथ्या वचनों से तो मुग्ध हैं, हितमय वचनों में जिसे शंका है अथवा उनसे विपरीत हैं ऐसे पुरुष निश्चयप्रतिक्रमण के पात्र भी नहीं होते हैं। उन्मार्ग का परित्याग करके जिनमार्ग में आये तो दोषों का दूरीकरण होता है।
भोगाभिलाषी के परमार्थप्रतिक्रमण की अपात्रता- जो पुरुष भोग विषयों में वान्छा रखते हैं, यत्न जिनका विषयों की साधना के लिए ही हुआ करता है, या तो इंद्रिय के विषयों की साधना करना या अपने मन में उठी हुई अटपट कल्पनावों को पूरा करना, यह ही जिसके जीवन का ध्येय है वहां वह विशुद्ध परिणाम कैसे जग सकता है जिसके कारण किए हुए दोष भी दूर हो सकें। जो जीव संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हैं, केवल एक विशुद्ध चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य कुछ जिनकी चाह नहीं है ऐसे पुरुष ही निश्चयप्रतिक्रमण का परमपुरूषार्थ प्राप्त कर सकते हैं।
जुगुप्सक के दोषशुद्धि की अपात्रता- जो अपने दोषों से ग्लानि करते हैं किंतु किसी भी परजीव से किसी भी परधर्मात्मावों से ग्लानि नहीं करते हैं, परसेवा में जिनकी ग्लानिरहित प्रवृत्ति हैं, जो क्षुधा तृष्णा आदिक वेदनावों से खिन्न नहीं होते हैं, ज्ञाता द्रष्टा रहने का यत्न रखते हैं ऐसे पावन आत्मा के निश्चय प्रतिक्रमण होता है। जो दोषों को बसायें, जो दूसरों के दोषों को देखकर दूसरों से ग्लानि करें अथवा धर्मात्मावों के पवित्र शरीर को निरखकर ग्लानि करें, ऐसे अशुद्ध अपवित्र आशय वाले पुरुषों के निश्चयप्रतिक्रमण नहीं हो सकता है।
उन्मार्गरूचिया के दोषनिवर्तन की अपात्रता- जो पुरुष बाह्यदृष्टि वालों की प्रशंसा और स्तवन किया करते हैं, मिथ्या धर्म में अनुरक्त जीवों के लौकिक चमत्कारों को देखकर उनकी ओर ही अपना आकर्षण बनाए रहते हैं ऐसे पुरूषों के अपने दोषों के दूर करने का परिणाम ही नहीं होता है। जिसे मोक्षमार्ग चाहिए है, जिसको मोक्षमार्गियों से प्रीति है, शुद्धतत्त्व की ही प्रशंसा और स्तुति का जिसका यत्न है ऐसे पुरुष ही दोषों से अपने को बिलग करके शुद्धविकास रूप बना सकते हैं। अहिंसा धर्म के अतिरिक्त अन्य प्रकार के धर्मों में कुधर्मों में जिनकी रूचि जगे और हिंसामय अथवा उन सब कुधर्मों के मानने वालों में जिनका मन रमे, ऐसे पुरुष अपने दोषों को दूर करने के अधिकारी नहीं होते।
उद्दंड पुरुषों के परमार्थप्रतिक्रमण की अपात्रता- जिन पर ऐसी उद्दंडता छायी है कि धर्मात्मावों के दोषों को, हों अथवा न हों, प्रकट करने का, प्रजा में प्रचार करने का जिनका मन चलता है अपने आपमें जो दोष है उनको छुपाकर अपने गुण जाहिर करने का जिनका प्रयत्न बना रहता है ऐसे पर्यायव्यामूढ़ पुरुषों के परमार्थदृष्टि ही नहीं होती है। फिर परमार्थप्रतिक्रमण कहां से हो सकेगा? जिन्हें अपनी स्थिरता का रंच भी ध्यान नहीं है, पापों में लगे जा रहे हैं, उस ओर से रंच भी विशाद नहीं है। धर्म धारण भी करें तो जरासा उपसर्ग आने पर जरासी कठिनाई सामने आने पर धर्म की वृत्ति से चिग जायें और उस चिगे हुए का विशाद भी न हो, पुन: धर्म में लगने का उत्साह भी न हो ऐसे मन चले जीवों के दोषों को शुद्ध करने वाला भाव कैसे पैदा हो सकता है?
धर्म के द्वेषी व अप्रभाव के निश्चयप्रतिक्रमण की अपात्रता- जिन्हें निर्दोष आत्मतत्त्व से प्रेम नहीं है, निर्दोष गुणपुन्ज साधु संतों के सस्तवन में, उनके संग में, उनकी उपासना में जिनका मन नहीं चाहता है और व्यसनी, पापी, मोही पुरुषों में मन रमा करता है। अपना तन, मन, धन सब कुछ विषयसाधनों के लिए ही न्यौछावर कर रहे हैं ऐसे उन्मार्गगामी पुरुषों के प्रतिक्रमणरूप धर्म कैसे हो सकता है? यों जो अपने अनाचार के द्वारा धर्म की अप्रभावना कर रहे हैं, धर्म समाज में जो कलंक बने हुए हैं ऐसे जीवों से प्रतिक्रमण की तो बात ही क्या व्यवहारधर्म की भी संभावना नहीं है। व्यवहारधर्म भी उनका सब थोता है। निश्चयप्रतिक्रमण का पात्र वह ही पुरुष होता है जो विपरीत मार्ग को तजकर सर्वज्ञ वीतराग जिनेंद्रदेव द्वारा प्रणीत अहिंसामय आध्यात्मिक शुद्धतत्त्व के निर्देशक सन्मार्ग में लगते हैं उनके ही निश्चयप्रतिक्रमण हो सकता है।
सन्मार्गगामी के निश्चयप्रतिक्रमण का अधिकार- निश्चयप्रतिक्रमण का अधिकारी सम्यग्दृष्टि ही हो सकता है। जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप संसारफंद से प्रीति रखते हैं, लोक में मेरा यश बढ़े इतने ही भाव से जिसने धर्म का भेष रखा है और आत्मतत्त्व के अपरिचय से जिसमें विषयसाधनों में भी अंतर नहीं आया, मौज रहे फिर भी साधुता कहलाये अथवा भोग न छोड़कर भी हम कल्याण के पात्र बन जायें, ऐसी भावना रखकर जो दोनों ओर अपनी गति रखे ऐसे पुरुष के परमार्थस्वरूप की झलक कहां से आ सकती है? जिस दृष्टि के प्रताप से निश्चयप्रतिक्रमण हुआ करता है। यदि सर्वदोषों से रहित होना है तो जो सर्वदोषों से रहित है वे जिस प्रकार मार्ग से चलकर दोषरहित हुए हैं उस मार्ग पर चलना होगा। पूर्णनिर्दोष परमेश्वर महादेवाधिदेव रागद्वेष रहित सर्वज्ञ भगवान हैं। उन्होंने अहिंसात्मक विशुद्ध आचरण अपनाया था, इस अहिंसात्मक आचरण में कितना प्रभाव है, उस प्रभाव को अहिंसातत्त्व अपरिचयी पुरुष समझ नहीं सकते हैं।
अज्ञानी का मनगड़़ंत भाव- भैया ! अज्ञानी जीवों की दृष्टि तो इस मायामय जगत् की ओर रहती है। वे इस जगत में मोही समाज में पोजीशन की वृद्धि और पुद्गलों का संचय करना, इन दो बातों में जितनी प्रगति हो उसमें ही बड़प्पन समझते हैं, परंतु वह कल्पित बड़प्पन है, जिस बड़प्पन के प्रयत्न में पाप परिणाम किए जा रहे हैं और जिस पाप परिणाम के फल में भविष्य में दुर्गति होगी, ऐसा बड़प्पन क्या बड़प्पन है? एक भव का बड़प्पन न रहे, यह कल्पित पोजीशन न रहे, अथवा इन समागत पुद्गलों का कुछ से कुछ हो जाय तो उससे क्या अनर्थ है? पर एक अपने आपके शुद्ध स्वरूप की उपासना न कर सके तो इस अनाचार के कारण इसकी ऐसी दुर्गति होगी कि जिससे फिर कल्याण की संभावना का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। आज मनुष्य है। इस मनुष्यसमाज में कहीं थोड़ा अपमान हो गया; पोजीशन घट गयी। पोजीशन क्या घट गयी? जो पोजीशन बढ़ाना चाहा था वह नहीं हो सका, जो नाम जाहिर करना चाहते थे वह नहीं हो सका, तो यह कौनसा बड़ा टोटा है? यदि मरकर सूकर, कीडा़ मकोड़ा, पेड़ पौधे हो गये तो अपमान तो यह है, तो कल्याण करने से वंचित रह गए।
स्वयं का स्वयं महत्त्व- इस पर्याय में यदि कोई दूसरा मनुष्य अपमान करके राज़ी होता है तो उसकी राज़ी के लिए तुम अपने अपमान को भी वैभव समझो। यह मायामय जगत् है, यहां अपने लिए क्या चाहना? यहां की दृष्टि तजकर इस अलौकिक निज कारणसमयसार की ओर दृष्टि लगायें, यहां जैसे शुद्ध शांति संतोष हो सके वह यत्न करें, यह है वास्तविक चतुराई। पर का मुँह ताकना, पर की आशा रखना, पर से अपना महत्त्व बढ़ नेकी वान्छा रखना, यह कितनी विडंबना है? अरे अपने आपको निरखो, स्वयं में ही वह समर्थ है जिससे यह स्वयं महान् है। समुद्र विशाल और गंभीर होता है, वह कहीं छोटी-छोटी नदियों के द्वारा स्तुति किए जाने से विशाल नहीं है। वह तो स्वयं ही विशाल है। छोटी तलैयों की निंदा किए जाने से कहीं समुद्र की महत्ता नहीं है। वह तो अपने आप विशाल गंभीर हैं। इसी प्रकार अपने इस आनंददाता परमैश्वयसंपन्न आत्मप्रभु को निरखो, इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को देखो। यह स्वयं महान् है। इस मायामयी दुनिया के इन मोही मायामयी पुरूषों के द्वारा कुछ नाम ले देने से, कुछ प्रशंसा किए जाने से तुम महान् नहीं हो। तुम तो स्वरूप से ही स्वयं महान् हो। पूर्ण निराकुल तुम्हारा स्वभाव है, सर्वविश्व को जानने देखने का तेरा स्वभाव हैं।
व्यर्थ की अटक- एक कहावत में कहते हैं कि हाथी तो निकल गया पूछ अटक गयी, ऐसे ही इस धर्मधारण के लिए कितना तो त्याग कर रहे हैं- पूजा करना, भक्ति करना, सत्संग करना, दान देना, दया करना बहुत-बहुत तो काम कर रहे हैं पर एक अपनी पर्याय का ऐसा व्यामोह लगा रक्खा है कि यह मैं हूं कुछ। इस पर्याय को ही माना कि यह मैं हूं। एक इस दुर्भाव में यह ऐसा अटक गया है जो कि व्यर्थ का दुर्भाव था, उसमें ऐसा अटक गया कि जिसका निकाल करना कठिन हो रहा है। अरे अनंतों भव पाये, उन भवों में से एक भी मन का ठाटबाट न रहा, न एक ही भव का समागम रहा तो इस भव का भी ठाट, इस भव का भी परिचय क्या रह सकेगा? समझ लो, मेरा यह भी भव व्यतीत हो चुका है, अब मैं दूसरे भव में हूं तब इस भव की बात मेरे लिए कुछ न रही।
द्विज महापुरुष के निश्चयप्रतिक्रमण- जो जीवन में भी अपने आपकी पुरानी घटनावों को त्याग देते हैं अथवा पुराने समस्त संस्कारों को हटा देते हैं उन ही पुरूषों को तो द्विज कहते हैं। द्विज मायने साधु, दूसरी बार जन्म लिया है जिसने उसको साधु कहते हैं। पहिला जन्म तो उसने अपनी मां के पेट से लिया था और उस जीवन में परिचयी पुरूषों से स्नेह किया था। द्वेष, विरोध, ईर्ष्या आदि किया था, उनमें अपना नाम चाहा था, ये सारी बातें हुई थीं, अब यदि अपने आपको इस जीवन से मरा हुआ समझ लीजिए, मैं इतने जीवन को खत्म कर चुका हूं, मर गया हूं, अब मैं कल्याण के लिए आत्मसाधना के लिए ही बना हुआ हूं, ऐसे बर्ताव माफिक जिसकी बुद्धि बनी है, पुराने संस्कारों को, पुरानी बातों को, पुराने संकोचों को, पुरानी लाजों को, इच्छा को, इन सबको दूर कर दिया है इस प्रकार का जिसका दूसरा जन्म हो जाता है, एक ही भव में जिसका दूसरी बार जन्म होता है ऐसे साधुसंत पुरुष इस निश्चयप्रतिक्रमण के अधिकारी हैं।
विशुद्ध व्यवहारमार्ग की स्वीकारता- जो निर्दोष सर्वज्ञ भगवान ने मार्ग अपनाया था उसी मार्ग में स्थिर परिणाम जो करेगा सो ही निश्चयप्रतिक्रमणरूप होगा। प्रभु का मार्ग था उनका उपदेश है। अपने आत्मत्त्व का परिचय पावो, सर्व परपदार्थों का विकल्प दूर करके विशुद्ध चित्स्वभाव में अपनी दृष्टि लगावो। वैसी ही रति करो, वैसी ही तृप्ति करो और ऐसे आत्मरमण के पुरूषार्थ से सर्वकलंकों को धो डालो। ऐसा पुरूषार्थ करते हुए में जब तक यह पुरूषार्थ पूर्ण नहीं बन जाता है और उसके बीच-बीच शरीर धर्म भी लगा हुआ है अर्थात् भूख लगे तो भोजन भी देना आवश्यक बन गया है, प्यास लगे तो उसकी भी वेदना शांत करना आवश्यक हो गया है अथवा चलना फिरना विहार करना जरूरी है, एक स्थान पर रहने से रागद्वेष परिचय ये सब बढ़ जाया करते हैं, वह कल्याणार्थी पुरूषों के लिए भली बात नहीं है, इस कारण विहार भी आवश्यक है। ऐसी स्थिति में जो वीतराग सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि से विनिर्गत हो मन:पर्याय ज्ञानधारी गणेशों द्वारा प्रकट किया हुआ है ऐसे इस विशुद्ध मार्ग को स्वीकार करना चाहिए।
सन्मार्ग विहार की आवश्यकता- वीतराग परमविजयी भगवान का निर्दिष्ट मार्ग है 5 महाव्रतों का पालन करना, पंचसमितियों का पालन और तीन गुप्तियों का पालन। जिसके विषय में इसके पहिले के अधिकार में विस्तृत वर्णन आया था। इन तेरह प्रकार के चारित्रों का जो विधिपूर्वक पालन करता है, पंचेंद्रिय के विषयों का निरोध करता है, अपने आवश्यक कार्य में सावधान रहता है ऐसा पुरुष ही निश्चयप्रतिक्रमण करने का पात्र होता है। निश्चयप्रतिक्रमण के लिए उन्मार्ग का त्याग करना और अहिंसामय सन्मार्ग का स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है।
निश्चयप्रतिक्रमण में अधिकारी की सहज व्यवहारवृत्तियां- निश्चयप्रतिक्रमण का अधिकारी वह संत है जो शुद्ध व्यवहार मार्ग में भी दक्षता रखता हो। आत्मकल्याण के परम अधिकारी ज्ञानीपुरुष की जो प्रवृत्तियां हैं जिन्हें कि 28 मूलगुणों के आधार से बताया जाता है उन प्रवृत्तियों में जो स्थिर परिणाम करता है वही मनुष्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप होता है। 28 मूलगुण जानबूझकर परिश्रम करके धारण करने की चीज नहीं है किंतु जिसे आत्मस्वभाव की तीव्र उत्सुकता हो जाती है, ज्ञानस्वभाव की दृष्टि का तीव्र रूचिया हो जाता है उसकी सहज ही ऐसी प्रवृत्ति होती है कि वह हिंसा से सर्वथा दूर रहता है। झूठ से, चोरी से, कुशील से, परिग्रहसंचय से, तृष्णाभाव से अत्यंत दूर रहता है, यह उसकी सहज वृत्ति बन जाती हैं। मैं मूनि हूं, मुझे झूठ न बोलना चाहिए, मुझे चोरी न करना चाहिए, मुझे पूर्ण शीलव्रत से रहना चाहिए, इस प्रकार के परिणाम से जो ये व्रत आदिक धारण किए जाते हैं वे जान बूझकर जबरदस्ती किए की तरह होते हैं, पर ज्ञानी संत के चूँकि निज सहज स्वभाव में रूचि हुई है और उसके ही अवलोकन का यत्न हो रहा है उसके ये बातें सहज हो जाती हैं।
परमज्ञानी का सहज समितिपालन- परमार्थ ज्ञानस्वरूप का आराधक पुरुष विहार तभी करेगा जब कोई समता का प्रयोजन हो और विहार उसी समय करेगा जिस समय किसी जीव को बाधा न हो सकती हो। वह बड़े शुद्ध भाव से विहार करेगा। लो यह ज्ञानी के सहज व्यवहार प्रवृत्ति बन गयी। इसमें कष्ट का क्या काम है? वह वचन तब बोलेगा जब यह देखेगा कि इस समय स्व और पर के हित के लिए कुछ बोलना आवश्यक है और बोलेगा भी तो हित मित प्रिय वचन। उसकी यह वृत्ति सहजवृत्ति हो गयी है। ऐसे ही आहारपान की समिति, चीजें धरने उठाने की प्रवृत्ति और मलमूत्रादिक क्षेपण की प्रवृत्ति उसके सावधानी सहित हो जाया करती है।
परमार्थज्ञानी का गुप्तिपालन- ऐसा ज्ञानी पुरुष तो मन, वचन, काय के गुप्त रखने का ही किया करता है। मन, वचन, काय की क्रियाएँ न हों, इनमें तरंग न उठे, इन क्रियावों से विराम लेकर शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का ही अनुभव करें ऐसी वृत्ति ज्ञानी के तो प्रमुखता से हुआ ही करती है, क्योंकि वह ज्ञानस्वभाव की उपासना का उद्यमी हुआ है और जब तक मन, वचन, काय की प्रवृत्तियों से विराम नहीं लिया तब तक निष्क्रिय स्वभाव में अर्थात् योगरहित मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति ही उसके असंभव है। इस कारण साधुसंतों का प्रमुख ध्येय है कि योगप्रवृत्ति को दूर करके योगरहित नीरंग निस्तरंग ज्ञानस्वभाव की उपासना में रहे।
ज्ञानी का विषयवैराग्य- जो पुरुष इस परमार्थ कारणसमयसार का इतना तीव्र रूचिया होता है उसे अन्य विषयों से क्या प्रयोजन होगा? पंचेंद्रियों के विषयों में छूना, खाना, सूँघना, देखना, सुनना अथवा मन के विषयों में उसकी जागृति नहीं रहती है, प्रवृत्ति नहीं रहती है, जो इंद्रिय का विजयी है, विषयवासनावों की जहां साधना नहीं है, ऐसा पुरुष ही परमार्थस्वरूप का परमदर्शक होता है।
ज्ञानी के सहज व्यवहार आवश्यक- ऐसा ज्ञानी पुरुष करने योग्य कामों में, प्रभुपूजा, प्रभुवंदन, प्रभुस्तवन में, अपनी प्रतिक्रमण आदिक नित्य क्रियावों में सावधानी आदि में अधिकाधिक प्रवृत्त होता है। सर्वप्रकार के बाह्य तथा आभ्यंतर समागमों में दृष्टि हटाकर परम उपेक्षा रखकर अंत: स्वभाव की उपासना करना ऐसे इस प्रायोजनिक कल्याण साध सकने में ही उनका समय व्यतीत होता है, ऐसा जिसका व्यवहार शुद्धमार्ग में स्थिर परिणाम है वह ही पुरुष निश्चयप्रतिक्रमण का पात्र होता है अर्थात् आत्मा में कोई दोष न रह सके, गुणविकास हुआ करे, शुद्ध आनंद का अनुभव रहे, विकारों का स्वाद न रहे, किंतु परमार्थज्ञान सुधारस ही स्वाद में रहे ऐसा उपाय ऐसे संत कर सकते हैं।
परमात्मतत्त्व की स्थिरता में निश्चयप्रतिक्रमण- परमार्थज्ञाता संत इस उपासना के अभ्यास से व्यवहार सन्मार्ग की प्रवृत्तियों के प्रसाद से निज कारणपरमात्मतत्त्व में स्थिर भाव किया करते हैं। नीरंग, निस्तरंग शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र नि:शंक आत्मतत्त्व में उनका उपयोग स्थिर हो जाता है। वह ही तो साक्षात् निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप है। यह परमात्मतत्त्व जो अपनी उद्दंडता समाप्त करने से स्वयं में दर्शन दिया करता है यह कारणसमयसार सहजज्ञान सहजदर्शन सहजचारित्र सहजश्रद्धान सहजस्वभाव से अलंकृत है, यह किसी भी तरंग द्वारा नष्ट नहीं होता है, किंतु निष्तरंग रूप तरंग में यह अपनी झलक देता है।
ज्ञानी की अध्यात्ममार्ग में प्रतिक्षण प्रगति- यह स्वभाव, यह परमात्मतत्त्व, यह समयसार यह आत्मा जो पदार्थ है और जितने पदार्थ होते हैं वे सब सामान्यविशेषात्मक होते हैं। इस परमात्मपदार्थ का यह सामान्यविशेषात्मक तत्त्व सहज चैतन्यस्वभाव में विराज रहा है। कैसा आत्म वैभव है यह? जाननहार ही जान सकता है। इसकी जो लोग उपासना रखते हैं उनके यह स्वभाव का दर्शन पुष्ट होता है। जैसे पहलवान लोग रोज दंड बैठक व्यायाम किया करते हैं। उन्हें कभी यह आलस्य नहीं आता कि वैसी ही दंड बैठक तो कल किया था, कोई नई चीज आज नहीं करना है, सो दंड बैठक करके क्या करना है, ऐसा आलस्य उनके नहीं आता है। उन्हें तो उत्सुकता होती है। वे तो जानते हैं कि रोज-रोज दंड बैठक करने से स्वास्थ्य बढ़ता है, शक्ति बढ़ती है, ऐसे ही अध्यात्म सुभट एक बार जान गया वह आत्मा का मर्म, आत्मचित्प्रकाश। तो अब उसका यह जानना उसकी और रूचि बढ़ाता है। इसही शुद्ध ज्ञानप्रकाश की उपासना में, अवलोकन में, यत्न में और उत्सुकता बढ़ाता है। इसे अभी मिलने को बहुत कुछ पड़ा है। हो गया यह ज्ञानी, जान गया आध्यात्मिक रहस्य, लेकिन अभी पाने की बात बहुत पड़ी हुई है। कर्मों का क्षय अभी बहुत होना है, यह अभी यहां नहीं कह रहे, वह तो आनुसंगिक परपदार्थ में होने वाला कार्य है, पर इस अध्यात्मयोगी को अध्यात्म में ही बहुतसा लाभ पाने को पड़ा हुआ है। वह निरूत्साह नहीं होता है अध्यात्ममार्ग में प्रगति करने के लिए।
निष्पक्ष तत्त्व की ओर आकर्षण- यह ज्ञानीपुरुष सामान्य विशेषात्मक निज परमात्मद्रव्य में उपयोग द्वारा स्थिर परिणाम करता है। यही हुआ शुद्धचारित्र। जो अपने आपको शुद्ध चारित्रमय करता है वही मुनि तो निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप है। जैसे लोक में देखा होगा कोई पुरुष जब तक किसी का पक्ष कर रहा है तब तक उसकी ओर आकर्षण नहीं होता। भले ही कुछ लोग जिनको इस पक्ष में रौद्रध्यान बना है वे गुण गायें, किंतु वे तो स्वयं पतित हैं, मोही हैं, मायामूर्ति हैं उनके द्वारा गुणगान किये जाने से कौनसा लाभ हुआ? वह भी एक अँधेरा है। जब वह पुरुष पक्षपात से रहित न्यायवृत्ति वाला होता है तो चूँकि वह न्यायमूर्ति बना है इस कारण सबका इस ओर आकर्षण होता है। भले ही स्वार्थमयी दुनिया में स्वार्थ सिद्ध न होने से उसका व्यवहारिक आकर्षण न हो किसी का, लेकिन जानते सब हैं उसकी महिमा को, उसके गुणों को। अंतर में नियम से सबका आकर्षण उस न्याय मूर्ति पुरुष की ओर होता है। ऐसे ही जब तक कोई साधु अपनी किसी बाह्यप्रवृत्ति में, बाह्यदृष्टि में धरना, उठाना, चलना आदिक क्रियावों में ही दृष्टि रखता है, पक्ष रखता है तब तक उसकी ओर सम्यग्दृष्टि का आकर्षण नहीं होता है। विवेकी पुरुष साधुवों की चाम को नहीं पूजते हैं, साधुवों की बाहरी क्रियावों को नहीं पूजते हैं किंतु इस आत्मा ने इतनी विषयकषायों से पृथक दृष्टि रखी है? केवल एक ज्ञानप्रकाश के अवलोकन में ही रत रहा करता है यह। उनके लिए दुनिया के लोग न कुछ हैं और अपने लिए वे सब कुछ है। इस प्रकार निरखने से ज्ञानियों का आकर्षण होता है।
निश्चयचारित्र में निश्चयप्रतिक्रमण- अंतस्तत्त्व के साधक साधु निश्चयप्रतिक्रमण स्वरूप हैं क्योंकि वे तपस्वी साधु निश्चयप्रतिक्रमण रूप परमतत्त्व को प्राप्त हुए है। सो गुणविकास के रूप में महंत पुरूषों के द्वारा वे आराधित होते हैं। जिस चारित्र में उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्ग रहते हुए भी उत्सर्ग मार्ग की जहां उपासना बनी रहती है ऐसा यह निश्चयचारित्र परमार्थचारित्र मोक्षमार्ग ज्ञानी संतों के द्वारा उपासनीय है। ज्ञानी पुरुष इन समस्त बाह्य पदार्थों से यहां तक कि व्यवहार धर्म की क्रिया से भी निवृत्ति पाकर अंतर में एक विशुद्ध चित्प्रकाश का अवलोकन करता है, जिस प्रकाश के अवलोकन से ये साधु संत उत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। शुद्धप्रकाश दृष्टि में रहा करे, ऐसी भावना ज्ञानी पुरूषों के बनी रहती है।
उत्कृष्ट तत्त्व का निर्णय- हे मनुष्यभव से अनुपम लाभ उठाने वाले संत पुरूषों ! तुम्हें क्या चाहिए? सर्वोत्कृष्ट बात का तो निर्णय कर लो, जिससे आगे कुछ भी उत्कृष्ट न हो, ऐसी बात तो सोच लो तुम्हें क्या चाहिए? ये ईंट पत्थर, मकान ये क्या तेरी दृष्टि में होने वाली उत्कृष्ट चीजें हैं? क्या है उनमें जड, भिन्न असार हैं, तेरे से कुछ भी संबंध नहीं है जिनका, तू अपने स्वरूपमय है, तू अपने चैतन्यस्वभाव की वृत्ति में तन्मय है, वह तुझसे अत्यंत विमुख है, वही तेरे लिए उत्कृष्ट पदार्थ है। ये धन वैभव संपदा क्या हैं? एक मोह की नींद का स्वप्नमात्र है। तेरे ज्ञानतत्त्व से इसका क्या संबंध है? ये परिजन, वैभव, कुटुंबजन ये क्या तेरे लिए उत्कृष्ट हैं, तेरे लिए देवता हैं क्या? भगवान हैं क्या, ये तुम्हारी मदद कर सकेंगे क्या? इनका लोग क्यों आकर्षण करते हैं? सर्वोत्कृष्ट तत्त्व का निर्णय तो करो, वह सर्वोत्कृष्ट तत्त्व है अपने आपका सहजचित्स्वरूप, जो बाह्य वृत्तियों के विकल्प तोड़ देने से दृष्टि में आता वह सहज परमप्रकाश मेरे में सर्व ओर से स्थित हो।
सर्वसमृद्धि के अधिकारी- जो पुरुष इंद्रिय के विषयों के सुख से विरक्त हैं, जिनका अनुराग स्वत:सिद्ध सहजसिद्ध एक चित्प्रकाशस्वरूप प्रतीति रखने में ही बना रहता है। यदि कुछ करे बाहर तो जिसकी वृत्ति तप स्वाध्याय की ही हुआ करती है। ज्ञान की मस्ती से जो सदा प्रसन्न रहा करते हैं, शुद्ध आशय हो जाने के कारण जिनके गुणों का विशुद्ध विकास हुआ करता है जिन्हें कोई संकल्प विकल्प उपद्रुत नहीं करते हैं ऐसे पुरुष सर्व समृद्धि के अधिकारी क्यों न होंगे? यह है निश्चयप्रतिक्रमण का साक्षात् स्वरूप।
गुणतिशयलब्धि- निश्चय प्रतिक्रमण में दोषों के दूर होने से गुणों का अतिशय प्रकट हुआ है। यह गन्ना ही तो योग्य विधि से मिश्री बन जाया करता है। उसका रस निकलने पर मिश्री का स्वाद प्रकट नहीं है। क्यों नहीं प्रकट है कि उसमें दोषों का निवास है। रस के उन दोषों की शुद्धि के लिए गरम कड़ाही में आंचा जाता है, संतप्त किया जाता है, ताप से तपाया जाता है तब उस रस के बहुत से दोष भाप के रूप में झड़ने लगते हैं, बहुत से दोष मिठाई के दोष निकल जाने से अब वह गुड़ का रूप रखने लगता है। अब उस ही गुड़ को राब को और विधियों से निर्दोष किया जाता है तब वह शक्कर का रूप रख लेता है। शक्कर का सीरा करके उसके बहुत से दोष जब और निकल जाते हैं- दोष निकल जाने के साधन जैसे दूध है अथवा चूना का पानी है ऐसे दूध को उस सीरे में डालकर उसके अवगुणों को फाड़कर बाहर कर देते हैं तब वह चीज बनकर मिश्री बन जाती है। दोषों के दूर होने से जैसे इस मिश्री में ऐसा गुण प्रकट हुआ है, यों ही जानो कि आत्मा में बसे हुए दोषों के दूर किए जाने से ही आत्मा का गुणविकास होता है। पूर्ण अतिशयवान् हो जाता है यह।
परमार्थप्रतिक्रमण का प्रसाद- केवलज्ञानी कोई हुआ है तो बाल बच्चे घर गृहस्थी में मिल करके हुआ है क्या? उसे तो इस सारे रागद्वेष मोह को सर्वथा दूर करने के उपाय से ही परमोत्कृष्ट, परमाराध्य सर्वज्ञ अवस्था प्राप्त हुई है। यह सब परमार्थप्रतिक्रमण का परम प्रसाद है। ऐसे इस निश्चयप्रतिक्रमण के स्वरूप में यहां यह कहा गया है कि जो पुरुष उन्मार्ग को छोड़कर जैनमार्ग में स्थिर भाव को प्राप्त होते हैं, जिस मार्ग से चलकर प्रभु जिनेंद्र हुए हैं उस मार्ग में ही जो अपना यत्न रखते हैं, साक्षात् प्रतिक्रमण स्वरूप वे संत शाश्वत परमशांति प्राप्त करते हैं। ऐसे परमार्थप्रतिक्रमण की उपासना भावना और प्रयोग करना हम लोगों का लक्ष्य होना चाहिये और इसका यत्न होना चाहिए।