वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 85
From जैनकोष
मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं।
सो पडिकमणं उच्चई पडिक्कमणमओ हवे जम्हा।।85।।
प्रतिक्रमणपात्र- अनाचार को छोड़कर जो आचार में स्थिरता को करता है वह प्रतिक्रमण कहा जाता है क्योंकि वह जीव प्रतिक्रमणमय है। यह सब प्रकरण परमार्थप्रतिक्रमण का है। परमार्थप्रतिक्रमण कहो या निश्चयप्रतिक्रमण कहो दोनों ही एकार्थक शब्द हैं। जो निश्चय आचार के आचरने में दक्ष है ऐसे महात्मा के ही निश्चयप्रतिक्रमण होता है। निश्चय आचरण कहो या परमउपेक्षा संयम कहो, किसी भी वस्तु में रागद्वेष न हो, सबका मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहे, अपने आपको ज्ञानप्रकाशमात्र निरखे, ऐसे पावन निष्कलंक आत्मा के निश्चयप्रतिक्रमण होता है।
गृहस्थों का आचार- आचार क्या चीज है? इसकी व्याख्या दृष्टि के अनुसार होती है। लौकिक दृष्टि में गृहस्थजनों के जो 5 अणुव्रत का यत्न है उसके विरूद्ध जो आचरण है वह अनाचार है। किसी पर अन्याय करना, किसी का दिल दुखाना, अहित करना, बुरा सोचना, झूठी गवाही देना, झूठा लेख लिखना, चोरी का उपाय बताना, चोरी किए हुए माल का खरीदना आदि अनेक दुराचरण हैं। परस्त्री को, वेश्या को, परनारी को बुरी दृष्टि से, विकारभाव से निरखना, परिग्रह का संचय करना, तृष्णा रखना, किसी योग्य परोपकार में व्यय न कर सकना और अपकार में धन खर्चना ये सब अनाचार हैं। इन अनाचारों से जो दूर है वह गृहस्थों के योग्य अहिंसा में रहता है, सत्य, प्रिय, हित वचन बोलता है, न्याय विधि से धन कमाता है, स्वस्त्री में संतोष रखता है, परिग्रह की तृष्णा में नहीं रहता है ऐसा पुरुष आचारवान् है। यह तो गृहस्थ योग्य व्याख्या है। इस आचार में रहने से निश्चयप्रतिक्रमण नहीं होता है। हां, व्यवहार में दोषशुद्धि यथापद है ही।
साधुवों का आचार- इससे आगे चलकर साधुसंतों का आचरण देखो। साधुसंतों के सर्वप्रकार की हिंसा का त्याग है, उनकी सर्ववृत्तियां सर्वप्रवृत्तियां अहिंसामयी होती हैं। सत्यमहाव्रत भी है। गृहस्थ यदि न्यायनीति से रोजगार करें, उसमें भी वे आत्महित के लिए जो वचन आवश्यक हैं वे बोलें, अनावश्यक वचनों का परिहार करें, ऐसे आरंभविषयक सत्य वचनों का भी परिहार सत्य महाव्रत में हो गया। अचौर्यमहाव्रत इसमें सर्व प्रकार से चौर्यभाव का परित्याग है, स्त्री मात्र का त्याग है, पूर्णशीलव्रत है बाह्यपरिग्रहों का भी त्याग है। एक व्रत तप संयम में जिनकी प्रवृत्ति रहती है ऐसे साधुवों के इस प्रवर्तन को भी आचार कहते हैं।
निश्चय आचार- भैया ! यह यथापद आचार की बात है। निश्चय आचार में तो यह ग्रहण करना कि शुद्ध आत्मा की आराधना से व्यतिरिक्त जो कुछ भी प्रवर्तन है वह सब अनाचार है। निश्चय की दृष्टि में कहा जा रहा है यह जिस आचरण में निश्चय प्रतिक्रमण होता है उस आचरण के प्रकरण में यह बात बतायी जा रही है कि रागद्वेष न करके मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति होना यह है निश्चय आचरण। शुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मतत्त्व की श्रद्धा और इस ही ज्ञायकस्वरूप का परिज्ञान और इस ही ज्ञानस्वरूप में अभेदोपयोगी, उस निश्चयचारित्र स्वरूप, परम उपेक्षा संयमी जीव के निश्चयप्रतिक्रमण होता है। सर्व दोषों को दूर करना है ना? दोषरहित शुद्ध सहज स्वरूप के दर्शन में ही, उसमें स्थिर होने में ही दोष सर्वथा दूर हो सकते है।
शुभ अशुभ विकार- मान लो बड़ी जीव दया करके प्रासुक जमीन निरखकर आगे चले जा रहे है दयालु, बात तो अच्छी कर रहा है यह, परंतु जीव दया का परिणाम करना, बाह्य की ओर अपना उपयोग देना यह आत्मा का निश्चय शुद्ध आचार तो नहीं है। यदि आत्मा का यह निश्चय शुद्ध आचार होता तो सिद्धों को भी यह करना चाहिए यह भी विकारभाव है। कोई अशुभविकार होते हैं, कोई शुभ विकार होते हैं। अशुभभाव और शुभ भाव हैं ये दोनों ही विकार हुए जैसे कि सुख और दु:ख ये दोनों विकारभाव हैं। भले ही जीव को व्यामोह के कारण दु:ख बुरा लगता है और सुख भला लगता है। मिष्ट भोजन अपने मन के अनुकूल बना तो उसको खाकर चैन मानते हैं, पर परमार्थदृष्टि से देखो तो दु:ख में भी इस जीव ने कोई कल्पना बनायी और सुख में भी इस जीव ने कोई कल्पना बनायी। दोनों ही विकार भाव हैं। ऐसे ही जो अशुद्ध पदार्थ हैं, विषयों की प्रवृत्ति है वह तो अशुभ है ही, विकार है ही, किंतु जो भक्ति, दया, दान, उपकार, पढ़ाना, शिक्षा देना, दीक्षा देना, समिति का पालन करना आदि कार्य हैं ये सब भी जीव के विकारभाव हैं।
निश्चयचारित्र और प्रतिक्रमण- अविकार भावों में रमना सो निश्चयचारित्र है और विकारभाव होना यह निश्चयचारित्र नहीं है। तो भी मोक्षमार्ग की अपात्रता बनाने वाले विषयकषायों से बचा लेते हैं, सो वह सब व्यवहार आचरण है। सर्वप्रकार के विकारभावों से अपने को हटाना और अविकारस्वभावी ज्ञानानंदस्वरूपमात्र आत्मतत्त्च के उपयोग को स्थिर करना यह निश्चयचारित्र है। इस स्थिति में सर्वप्रकार के दोष टल जाते हैं। शुद्ध आत्मा के आलंबन को छोड़कर ऐसी जितनी भी योग और उपयोग की प्रवृत्तियां हैं वे सब परमार्थदृष्टि से अनाचार हैं। उन सब अनाचारों को छोड़कर शुद्ध आचार में जो स्थिरता लेते है ऐसे साधुसंत ऐसे महात्मा प्रतिक्रमण कहलाते हैं।
अलौकिक तत्त्व- वह आचार क्या है जिसमें स्थिर होने पर निश्चयप्रतिक्रमण होता है? वह आचार है अपना जो सहज चित्स्वरूप है अथवा द्रव्यत्व गुण के कारण शुद्धविलासात्मक जो अपना स्वरूप है, परमविविक्त, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म इन समस्त कलंकों से रहित, केवल ज्ञानमात्र जो अपना स्वरूप है। पारिणामिक भाव है। उसमें स्थिर होना अर्थात् इस कारणपरमात्मतत्त्व की भावनारूप अंतर्वर्तन होना, सहज वैराग्य भावनारूप प्रवृत्ति रहना यही है निश्चयचारित्र। निश्चयचारित्रवान् साधु प्रतिक्रमणस्वरूप होता है यही परम तपश्चरण है। यही साधु का धन है, सर्वोत्कृष्ट वैभव है। अपने आपमें शाश्वत प्रकाशमान् शुद्ध ज्ञानस्वभाव ज्ञानस्वरूपचिद्विलास ज्ञानप्रकाश दृष्टि में आये, उसही में अलौकिक आनंद भरा है। इस यत्न को छोड़कर अन्य जितने भी यत्न हैं वे सब कुछ न कुछ आकुलता को ही लिए हुए रहते हैं। यह ज्ञानीसंत जो सहज वैराग्य परिणत है वह परम समता भाव में रमा हुआ है। केवल जाननहार रहना यही तो समता है, यही उत्कृष्ट त्याग है, यही अपने आपको सुखी रखने का उपाय है, यही आत्मकल्याण का अलौकिक तत्त्व है।
शांति का प्रसाधन- यह अलौकिक तत्त्व लौकिक बातों से नहीं मिलता। यह मायामय जगत्, ये विभाव मलीमस जीव इसमें जो रहा करते हैं, इनकी संगति करना, रागद्वेष भरी वासनाएँ अपने आपमें भी वासित करना, इस प्रकार के उत्पन्न किए गए विकार भावों से शांति नहीं प्राप्त हो सकती। आत्मशांति आत्मस्वभाव की आराधना में ही है, अन्यत्र नहीं है। भले ही अन्य कुछ शुभ प्रवृत्तियां यथापद कर्तव्यवश करनी पड़ती हैं, किंतु जिन्हें अपने असली पुरूषार्थ की भी सुध है, मुझे मनुष्य जन्म पाकर वास्तव में काम क्या करना चाहिए था? इसकी जिन्हें सुध है उनके लिए तो गृहस्थ के योग्य कर्तव्य का करना कर्तव्य कहलाता है और जिन्हें अपने आपके परमकल्याण की सुध नहीं है उनके लिए गृहस्थी के समस्त काम कर्तव्य नहीं कहलाते हैं किंतु व्यामोह हो जाता है।
प्रतिक्रमण और प्रतिक्रामक का अभेदरूप- यह ज्ञानी पुरुष चूंकि सहज निश्चय प्रतिक्रमण स्वरूप है जो कि एक निश्चय आचार में रह रहा है उसही को प्रतिक्रमण कहा गया है। भाव और भाववान में परमार्थ से भेद नहीं है, केवल गुणगुणी का भेद परिचय के लिए कराया जाता है। जैसे कोई कहे आग की गरमी चाहिए। गरमी का ही नाम तो वहां आग है। क्या आग जुदी चीज है, गरमी जुदी चीज है? अरे जो आग है सो आग की गरमी है। द्रव्य है निरंतर परिणमता है। उसकी हम विशेषता बताये तो उसमें भेद करके ही बता सकेंगे। भेद बिना व्यवहार नहीं हो सकता है। व्यवहार का ही अर्थ भेद करना है। व्यवहरणं व्यवहार:। भेद की प्रमुखता न करके इस शुद्ध आत्मा को देखा जाय तो निश्चयरत्नत्रय परिणत निश्चय आचार में अवस्थित यह आत्मा ही प्रतिक्रमण है, प्रतिक्रमणमय है, प्रतिक्रमणमूर्ति है।
उद्देश्य के अनुसार प्रयोजक का यत्न- जिस जीव को अपने इस महामहिम शुद्ध तत्त्व की खबर नहीं है ऐसे जीव के धर्म का प्रारंभ नहीं कहा गया है। बड़े-बड़े अनशन कायक्लेश करना किस लिए है? इसका प्रयोजन यथार्थ जो संकटहारी है, न विदित हो तो उसके करने का यथार्थ फल प्राप्त नहीं हो सकता है। लोक में कोई भी पुरुष प्रयोजन के बिना प्रवृत्ति नहीं करता है। यह धर्म की धुन रखने वाला पुरुष भी कुछ अपना प्रयोजन रखकर अपने आचार की प्रवृत्ति करता है पर जो प्रयोजन सोचा हो उसकी परिणति से अधिक से अधिक वही प्रयोजन तो सिद्ध होगा। संसार के समस्त संकटों से विविक्त होना है, यदि यह प्रयोजन है तो इस प्रयोजन की सिद्धि की विधि ही यह है कि पहिले अपने आपमें यह सुनिर्णय कर लें कि यह मैं आत्मा इस स्वभाव वाला भी हूं या नहीं? यदि यह निर्णय न हो सका तो उन संकटों से मुक्ति का उद्यम व्यर्थ है। महिलाएँ रसोई बनाती हैं, उनका पक्का विश्वास है कि आटे से रोटी बनती है। कभी ऐसा विश्वास नहीं होता कि कहीं आज आटे से रोटी न बनें। ऐसी दृढ़ श्रद्धा उनकी होती है सो वे अपने काम में सफल हो जाती हैं। यह मैं आत्मा संकट रहित शुद्ध ज्ञानानंदमात्र आत्मतत्त्व हूं या नहीं, ऐसे ज्ञानानंदस्वरूप शुद्ध आत्मतत्त्व का विशद अनुभव हो जाय तो उसका यह यथार्थ विधि में यत्न चल सकता है कि वह कभी संकटमुक्त हो जायेगा। जिसे अपने आपके संकटविमुक्त स्वभाव का ही परिचय नहीं है वह कभी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। जब तक कि वह इसका परिचय न पा ले।
कर्तव्य पुरुषार्थ- हे मुमुक्ष जनों ! ऐसे परमज्ञान और आनंद अमृत से भरे हुए इस आत्मस्वभाव में दृष्टि द्वारा अवगाहना को करके संसार के समस्त संतापों को दूर करो। इस लोक में हम आपके संकटों को दूर कर सकने वाला अन्य कुछ भी तत्त्व नहीं। इस ही अपने स्वरूपसिद्ध सत्तासिद्ध सहज भाव को निरखो वह तो स्वयं ही ज्ञानानंदस्वरूप है तो इस दृष्टि में संकट रह ही नहीं सकते हैं। ऐसे निज सहज स्वभाव के अवलोकन में, आलंबन में निश्चयचारित्र होता है और निश्चयप्रतिक्रमण होता है। एक इस ही पुरुषार्थ से पूर्ण साहस करके आत्मरमण करना कर्तव्य है। इसके करते हुए भी इसमें स्थिरता जब-जब न हो सके तब-तब यदि कुछ अन्य भी व्यवहारिक अल्प धार्मिक कार्य चलें तो वे भी सहयोग देते हैं। एक इस निजस्वरूप को जाने बिना कुछ भी यत्न जल्प किये जायें वे सब बेकार होते हैं। एक अपनी सिद्धि का कारण यह आत्मतत्त्व का अनुभवन है।
आत्मशिक्षण- भैया ! इस गाथा में आचार्यदेव यह शिक्षा देते हैं कि अपने आपमें यह निर्णय बनाये रहो। शुद्ध आत्मा के ध्यान से अन्य जो कुछ भी प्रवर्तन हैं वे सब बाह्य आचार हैं। इन ही बाह्य विकारों में अपने उपयोग को रमाना यह जन्म मरण को ही बढ़ाने वाला यत्न है। उस अनाचार को छोड़े और सहज अनंतज्ञान दर्शन आनंद शक्तिस्वरूप आत्मा में स्थिर हों, और इस ही शुद्ध मलहारी सुधा सिंधु में अवगाह करके सर्वविभाव मलों का क्षय करें और सदा के लिए संकटों से मुक्त हों। ऐसी स्थिति में यह जीव लोकालोक का उत्कृष्ट साक्षी ज्ञाता द्रष्टा होता है। ऐसा इस निश्चयप्रतिक्रमण का फल है, सदा के लिए शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप बर्तते रहना। ऐसी शुद्ध ज्ञानानंद वर्तना के लिये और अपने सर्वदोषों की मुक्ति के लिए शुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी आत्मतत्त्व में अपना उपयोग देना चाहिए।