वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 48
From जैनकोष
असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा।
जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया।।48।।
कार्यसमयसार और कारणसमयसार की अविशेषता—इस गाथा में कार्यसमयसार और कारणसमयसार की विशेषता नहीं रक्खी है अर्थात् दोनों का साम्य बताया है। कार्यसमयसार का अर्थ है भगवान्। समयसार मायने यह आत्मस्वरूप और यह आत्मस्वरूप जहां शुद्ध कार्यरूप बन गया है, शुद्ध विकासरूप बन गया है उसका नाम है कार्यसमयसार और कारणसमयसार। जो चीज विशुद्ध बन सकती है उसका नाम है कारणसमयसार या जो विशुद्ध बन रहा है ऐसा जो आंतरिक स्वभाव है वह है कारणसमयसार। कारणसमयसार निगोद से लेकर सिद्धपर्यन्त प्रत्येक जीव के एक समान है। जिसे कहते है आत्मा का स्वरूप। आत्मा के स्वरूपसत्त्व के कारण आत्मा में जो सहजस्वभाव है उसका नाम है कारणसमयसार। यह सब आत्मावों में है।
उपदेशसार—इस कारणसमयसार की पहिचान जब नहीं होती है तो अन्य चेतन अचेतन पदार्थों में इसे उपयोग लगाना पड़ता है। करें क्या, कहां जाय यहाँ इस आत्मा का रमने का स्वभाव है। यह कहीं न कहीं रमेगा जरूर। जब इसे अपनी सहज निधि का भान नहीं है तो और कहीं लगेगा। इसका तो लगने का प्रयोजन है, किन्तु भिन्न-भिन्न कार्यों में लगना यह इसके लिए क्लेशदायी है। और एकस्वरूप कार्य में लगना इसके स्वरूप की बात है। जितने भी उपदेश हैं सर्व उपदेशों का सार यही है कि अपने आपमें ही विराजमान् सहजस्वभाव के दर्शन कर लो। यह कार्य कर पाया तो सब कुछ कर लिया, वही भगवान् का सच्चा प्यारा है। जिसने अपने आपके निर्विकल्प सहज चैतन्यस्वरूप का अनुभव किया है। उस कारणसमयसार में और कार्यसमयसार में विशेषता नहीं है—इस बात को इस गाथा में कह रहे हैं।
दृष्टान्तपूर्वक संसारी व मुक्त जीवों में स्वरूप साम्य का समर्थन—भैया ! एक मोटी सी बात जो एक आध बार और भी कह चुके होंगे। जल का स्वभाव और निर्मल जल का विकास इन दोनों में अन्तर नहीं है। एक पानी बिल्कुल निर्मल जल है, कांच में साफ भरा हुआ है और एक पानी किसी पोखरा से लाए हैं और मटीला गंदा है। उस मटीले गंदे पानी को यदि यह पूछा जाय कि इस जल का स्वभाव कैसा है? तो क्या कोई यह कहेगा कि जल का स्वभाव गंदा है, मलिन है? यद्यपि वह मलिन है पिया जाने योग्य नहीं है, फिर भी उसमें जल के स्वभाव को पूछा जाय तो उतनी ही बात कही जायेगी जितनी बात इस निर्मल जल के बारे में कह सकते है। निर्मल जल में और जल के स्वभाव में अन्तर नहीं है। वह जल का स्वभाव ही जब परसम्बन्ध से रहित है तो निर्मल जल के रूप में व्यक्त है। यों ही समझो कि समस्त संसारी जीवों में उनके स्वभाव में और परमात्मा के विकास में क्या कोई अन्तर है?
भवालीन और भवातीत में स्वरूपसाम्य का कुछ विवरण—यद्यपि ये संसारी प्राणी भवों को धारण कर रहे हैं, रागद्वेषादिक भावों से लिप्त हो रहे हैं, इतने पर भी इन आत्मावों के स्वभाव की बात कही जाय तो वही स्वभाव है जो भगवान् में है और इस ही स्वभावदृष्टि से यह कहा गया है कि ‘‘मैं वह हू जो है भगवान्, जो मैं हू वह है भगवान्।’’यों ही साधारण बात नहीं है कि कह दिया जाय कि भगवान् है सो हम हैं। अरे यहाँ हम तो लटोरे खचोरे बन रहे हैं, शल्यों से, चिंतावों में विकारों से लदे हुए हैं, चैन नहीं है, अँधेरा पड़ा है, मेरी और भगवान् की कहीं बराबरी हो सकती है? लेकिन हम अपने आपमें स्वभाव को निरखते है और भगवान् के प्रकट स्वरूप को निरखते हैं तो वहाँ अन्तर नहीं मालूम होता है। यदि अन्तर होता तो मैं कभी संकटों से मुक्त हो ही नहीं सकता। जैसे लोक के अग्र भाग पर विराजमान् सिद्ध भगवान् अशरीर हैं, अविनाशी हैं, अतीन्द्रिय हैं, निर्मल हैं, विशुद्ध आत्मा हैं, इस ही प्रकार इस संसार अवस्था में भी यह जीव ऐसे ही स्वरूप वाला है।
समयसार का अशरीरत्व—भगवान् अशरीर हैं क्योंकि वहाँ 5 प्रकार के शरीरों का प्रपंच नहीं रहा। वे प्रकट अशरीर हैं और यहाँ यह मैं आत्मतत्त्व निश्चय से अपने आपके स्वरूप की दृष्टि से स्वभावत: सर्व प्रकार के शरीरों के प्रपंचों से रहित हू। सिनेमा का पदार्थ बिल्कुल साफ है, शुद्ध है। अब उसके सामने फिल्म चलाने से उस पर्दे पर नाना चित्रण हो जाते हैं। हो जावो चित्रण, फिर भी क्या पर्दे के स्वरूप में चित्रण है? वह तो अब भी केवल शुद्ध है, साफ स्वच्छ है। एक मोटी बात कह रहे हैं। इस ही प्रकार इस आत्मा के साथ वर्तमान काल में हम आपके इतने शरीरों का प्रपंच लग रहा है। लग रहा है लगने दो, किन्तु जरा अपने उपयोग मुख को अपने ज्ञानसिन्धु में डुबाकर निरखें तो यह केवल ज्ञान प्रकाशमात्र मैं आत्मा हू। यहाँ शरीर का प्रपंच नहीं है। यह मैं कारणसमयसार भी अशरीर हू। ‘‘जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ।’’पानी की तह के ऊपर दृष्टि रखने से पानी के भीतर पड़े हुए रत्न जवाहरातों का क्या परिचय हो सकता है? नहीं हो सकता। इस ही प्रकार इस ज्ञानानन्द सिंधु के ऊपर पर्यायरूप में तैरने वाली, रुलने वाली, भागने वाली, आई गयी की प्रकृति वाली—इन विभावतरंगों को निरखकर ही क्या इस आत्मतत्त्व के भीतर की निधियों का परिचय पा सकते हैं? नहीं । यह तो इस ज्ञानसमुद्र में डूब कर अन्तर में ही निरखे तो इसे आत्मनिधि का परिचय हो सकता है। यह मैं अशरीर हू।
समयसार का अविनाशित्व—भगवान् सिद्ध परमात्मा नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति और देवगति—इन चारों गतियों से रहित हैं। तो अब उनका विनाश क्या? नष्ट तो ये ही हुआ करते हैं चार प्रकार की गतियों वाले जीव। मरण तो इनका ही होता है। जब ये चारों प्रकार के भव नहीं रहे तब फिर इनका विनाश क्या? सिद्ध प्रभु इसी कारण अविनाशी हैं। तो अब जरा कारणसमयसार को देखिये, अपने आपके सहजस्वरूप को देखिये—जो न नरकगतिरूप है, न तिर्यचगतिरूप है, न मनुष्यगतिरूप है, न देवगतिरूप है और न गतिरहित भी है। सो इन पांचों भेदों से रहित अपने आपमें अंत:प्रकाशमान् कारणसमयसार के स्वरूप को तो देखिए इसमें भी गति नहीं है, यह तो ज्ञानानन्दस्वभाव मात्र है। इतना ही कोई समझे मरण के समय में तो उसे रंच संक्लेश नहीं होता।
समाधिमरण की अत्यावश्यकता—भैया ! मरण के समय की तैयारी बनाना यह बहुत बड़ा काम पड़ा है। इस जीवन की जो थोड़ी घटनाएं हैं, सामाजिक, राष्ट्रीय ये तो सब हमारे विकल्पजगत् के स्वप्न हैं। हालांकि उस विकल्पजगत् में भी यह कर्तव्य हो जाता है, किन्तु जब परमार्थ हित की बात कही जा रही हो, सदा के लिए अपने को स्वस्थ बनाने की बात ध्यान में लाई जा रही हो तब बड़ा दीर्घदर्शी इसे होना चाहिए। तो मरण के समय जिस ज्ञान संस्कृति को लेते हुए चलेंगे उसका संस्कार बहुत आगे तक शुद्ध बनता जायेगा और नहीं तो तड़पकर मर लीजिए कुछ मिलता हो तो बतावो। अपने को मरना तो है ही, यह तो निश्चित् है, पर तड़प कर मरने पर सार क्या मिलेगा सो बतावो। ये चेतन अचेतन परिग्रह तो दया कर नहीं सकते कि तुम हमको इतना अधिक चाहते हो सो हम तुम्हारे साथ चलेंगे। फिर किस लिए मरण अवसर बिगाड़ा जाय?उस मरण अवसर को स्वस्थ बनाने के लिए हमें अपने जीव में भी कुछ ज्ञान की वृत्तियां बनानी होगी।
शुद्ध ज्ञानवृत्ति के अर्थ प्रथम कदम—शुद्ध ज्ञानवृत्तियों में सबसे पहिला कदम यह है कि हम सब जीवों को देखकर उनकी बाहरी वृत्तियों में न अटककर उनके अन्तरङ्ग स्वरूप को निरखें और यह निर्णय करें कि सब आत्मावों में स्वरूप वही एक है जो मुझमें है, प्रभु में है। यही है एक धर्म के पथ में चलने का पहिला कदम जैसे कहते हैं कि नींव धरो। क्या कोई ऐसी भी नींव होती है कि बीच में एक हाथ तक कुछ न रक्खे और उसके ऊपर धर दें, बीच में छोड़ दें, फिर उसके ऊपर रख दें। नींव तो मूल से ही पुष्ट होती हुई उठा करती है। इसी प्रकार जिस धर्मवृत्ति से हमें मुक्ति मिलेगी उस मोक्षमहल की नींव सर्वप्रथम तो यह ही है कि कारणसमयसार का परिचय कर लेना। यह स्वभाव नरकगतिआदिक सर्व पर्यायों को स्वीकार नहीं करता। मेरे स्वभाव में ये नरनारकादिक भव हैं ऐसा यह स्वीकार भी नहीं करता। अच्छा तो स्वीकार न करे, किन्तु परित्याग तो करता होगा। अरे जब स्वीकार नहीं करता तो परित्याग कैसे करेगा?
समयसार की परपरित्याग स्वीकाररहितता—भैया ! परित्याग करने का नाम ही पूर्वकाल में अपराध किया, इसको सिद्ध करता है;स्वीकार किया, इसे सिद्ध करता है। किसी से जरा कह तो दो कि तुम्हारे पिता ने जेल से मुक्ति पा ली है। किसी को भी यह सुहावना न लगेगा। अरे मुक्ति की ही तो बात कह रहे हैं। मोक्षतत्त्व की बात कह रहे हैं, फिर क्यों बुरा लगता है? अरे भाई ! तुम तो मुक्ति की बात कह रहे हो, पर इस मुक्ति के शब्द के भीतर यह घुसा है कि तुम्हारे पिता जेल में बंद थे, अब मुक्त हुए हैं। अपने आत्मा के स्वभाव को देखो कि यह तो विभावों को स्वीकार भी न कर रहा था तो मुक्ति की बात कैसे कहें? विभाव का स्वीकार व्यवहारनय से है तो मुक्ति भी व्यवहारनय से है। व्यवहारनय झूठ तो नहीं है, किन्तु परद्रव्य का सद्भाव या अभावरूप निमित्त को पाकर जो अवस्था प्रकट होती है, उसका वर्णन करने का नाम व्यवहार है। यह में आत्मा सर्वप्रकार के विभावों का परित्याग और स्वीकार भी नहीं करता हू, इस कारण मैं अविनाशी हू।
समयसार की अतीन्द्रियता—भगवान् सिद्ध अतीन्द्रिय हैं, वे एक साथ अपने द्रव्य गुणपर्यायों को, सत् को जानने में समर्थ हैं और जो ज्ञान सर्व को जानने वाला है, वह ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न नहीं होता। इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान किया जाता है, उसमें दो कैदें है—एक तो यह कैद है कि तुम अमुक विषय को ही जान सकते हो, सबको नहीं। जैसे कि आँख ! तुम केवल रूप को ही जानने का काम करोगे, रस का नहीं। ऐसे ही सब इन्द्रियों का अपना-अपना जुदा-जुदा विषयों का काम है। दूसरी कैद यह है कि उस विषय के सम्बन्ध में भी कुछ-कुछ हद तक जान सकेंगे और कुछ एक देश तक जान सकेंगे। इन्द्रियज्ञान में कहां सामर्थ्य है कि वह समस्त विश्व को जान सके?
भगवान् प्रभु ने जो ऐसे ज्ञान का उत्कृष्ट विलास पाया है, वह किस उपाय से पाया है? परमनिजतत्त्व में स्थित जो सहज दर्शनादिक कारण शुद्धरूप है अर्थात् अपने आपका शुद्धस्वभाव प्रतिभासमात्र उस कारणशुद्धस्वरूप का परिच्छेदन करने में समर्थ जो निजसहज ज्ञानज्योति है, उस ज्ञानज्योति का अनुभवन करके समस्त संशय विपर्यय अनध्यवसान इन सबको दूर कर दिया है और सारे विश्व का ज्ञायक बन रहा है—ऐसा सिद्ध प्रभु है और यह कारणपरमात्मतत्त्व भी जो कि सब संसारी जीवों में एक समान है और वह भी अपने प्रतिभासस्वरूप को लिये हुए है, वह भी अतीन्द्रिय है।
आत्मावबोध में मनोगति की सीमा—भैया ! आत्मावबोध में इन्द्रिय की गति तो है ही नहीं। आत्मा के स्वरूप को जानने में कुछ थोड़ी बहुत गति है तो मन की है। सो यह मन भी इस उपयोग को आत्म भगवान् जहां विराजे हैं, उस महल के बाहर आँगन तक ही पहुंच पाता है। इस आत्मदेव ये जो भेंट होती है, वहाँ मन नहीं काम कर सकता है। वहाँ तो यह उपयोग अपने इस अभेदस्वरूप के साथ अभेदरूप में वर्तता है। यह मैं आत्मतत्त्व अतीन्द्रिय हू।
समयसार की निर्मलता—सिद्धभगवान् निर्मल है। मल को उत्पन्न करने वाले क्षायोपशमिक आदिक विभावस्वभाव नहीं हैं प्रभु में, इसलिए वे निर्मल हैं। हमारे क्षायोपशमिक ज्ञान में मल संभव है, क्योंकि थोड़ा जानते हैं, सामने की जानते हैं, वर्तमान की जानते हैं, इससे आगे गति नहीं है। तो ऐसे अधूरे ज्ञान में ही मल सम्भव है। ऐसे मल को उत्पन्न करने वाले क्षायोपशमिक भाव सिद्ध के नहीं है। तो इस कारणसमयसार में भी क्षायोपशमिक भावों का स्वभाव नहीं है। इस कारण यह कारणसमयसार भी निर्मल है।
समयसार का विशुद्धत्व—भगवान् सिद्ध विशुद्ध आत्मा हैं। न वहाँ द्रव्यकर्म है, न वहाँ भावकर्म है। यों जैसे लोक के अग्रभाग पर विराजमान् भगवान् सिद्ध परमेष्ठी अत्यन्त विशुद्ध है, इसी प्रकार संसार अवस्था में भी यह संसारी जीव किसी नय बल से परमशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से, परमार्थस्वभाव से ये भी पूर्ण शुद्ध हैं, केवल हैं, अपने आपके स्वरूपास्तित्त्वमात्र है। ऐसे इस शुद्धभाव के अधिकार में शुद्ध भावस्वरूप आत्मतत्त्व की कथनी चल रही है। इस तत्त्व के सम्बन्ध में मिथ्यादृष्टि जन तो शुद्ध और अशुद्ध का विकल्प किया करते हैं, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव की दृष्टि में यह
कारणपरमात्मतत्त्व और वह कार्यपरमात्मतत्त्व अर्थात् अरहंत और सिद्ध अवस्था याने कारणसमयसार और कार्यसमयसार ये दोनों ही तत्त्व शुद्ध हैं।
ज्ञानी का अभिनन्दन—अहो, जो ज्ञानीसंत ऐसी स्वभावदृष्टि से कारणसमयसार और कार्यसमयसार के साम्य स्वरूप को निरख सकते हैं, वे ज्ञानीसंत हमारे अभिनन्दन के योग्य हैं, वे निकटभव्य हैं, शुद्धज्ञायकस्वरूप के उपयोग वाले हैं। समानसमान में अत्यन्त अनुराग रहता हैं। पक्षी तो पक्षियों में बैठना पसन्द करते हैं और उनमें भी मोर मोरों में ही बैठना पसंद करते हैं, सुवा सुवा में ही बैठना पसन्द करते हैं, पशु पशुवों में ही रमा करते हैं, मोही मोहियों में ही रमा करते हैं और ज्ञानी ज्ञानियों में ही रमा करते हैं। यहाँ सब शुद्धतत्त्व का द्रष्टा ज्ञानीसंत सर्वज्ञानियों की इस परम कला को देखकर प्रसन्न हो रहा है और हृदय से उनका अभिनन्दन कर रहा है,वह जयवन्त हो और जिस परमतत्त्व के प्रसाद से सारे संकट टलते हैं—ऐसा यह कारणसमयसाररूप परमात्मतत्त्व भी जयवंत हो, सर्वजीवों में प्रकट होओ। यद्यपि सर्वजीवों में यह कारणसमयसार व्यक्तरूप प्रकट हो नहीं सकता, जो निकटभव्य हैं, उनमें ही होता है, लेकिन ज्ञानी संत क्या ऐसा छांट-छांटकर सोचेंगे कि जो निकटभव्य है, उनमें तो यह तत्त्व प्रकट हो और जो अभव्य हैं वे मरें—ऐसा वे नहीं सोच सकते। जहां स्वरूपसाम्य देखा, वहाँ सब जीवों के प्रति एकसी भावना होती है।
जिज्ञासा—शुद्धभावाधिकार में प्रारम्भ से अब तक इस जीव के शुद्ध सहजस्वभाव के प्रदर्शन में सर्वविभाव भावों का और परभावों का निषेध किया गया है। ऐसा वर्णन सुनकर किसी जिज्ञासु को यह संदेह हो सकता है कि ये रागादिक भाव भी इस आत्मा के नहीं हैं तो और किसी के हुआ करते होंगे। इस सन्देह की तीव्रता में अथवा विपर्यय भाव में यह पुरुष स्वच्छन्द हो सकता है। मुझमें तो रागद्वेष है नहीं। आत्मा का क्या हित करना है? यह तो स्वयं हितस्वरूप है।
असमाधान में स्व्च्छन्दता—गुरु जी ने एक घटना सुनाई थी कि कोई पण्डितजी एक शिष्य को ब्रह्मवाद का अध्ययन कराते थे। वे पण्डित इस श्रद्धा में ही रहते थे कि मैं तो निर्लेप और निष्पाप हू, सर्वथा शुद्ध हू और इस श्रद्धान् से इतनी स्वच्छन्दता आयी थी कि जिस दूकान पर जो चाहे चीज खायें या अन्याय प्रवृत्तियां करें। शिष्य ने बहुत कुछ पूछा, समझा, समझाया, पर पण्डितजी का यह कहना था कि मैं सर्वथा शुद्ध हू। एक बार पण्डित जी किसी ऐसे मुसलमान की दूकान पर जिसमें कि मांस भी बिकता था और मिठाई भी बिकती थी, वहाँ जाकर रसगुल्ले खाने लगे। वह शिष्य वहाँ पहुंचा, शिष्य ने पण्डित जी से कुछ नहीं कहा, बस पण्डितजी के दो तमाचे जड़ दिए। पण्डितजी कहते हैं कि यह क्या करते हो? कहता है कि महाराज, आप क्या करते है? यह क्या, खराब जगह पर और क्या खा रहे हो? पण्डितजी बोले कि अरे कौन खाता है? मैं आत्मा तो निर्लेप सर्वथा शुद्ध हू। वह बोला कि महाराज ! आप नाराज न हों, ये चांटे भी तो इस निर्लेप आप ब्रह्म में जाते ही नहीं होंगे। पण्डितजी ने कहा कि हे शिष्य ! तूने मेरी आंखें खोल दी हैं।
यह मैं आत्मा सर्वथा शुद्ध हू—ऐसी विपरीत धारणा का फल बुरा है। ऐसी स्थिति में निश्चय की उपादेयता के साथ यह व्यवहार का भी समर्थन करना आवश्यक हो गया है। अब आचार्यदेव व्यवहार से वह सब सही है, ऐसा कहते हैं—