वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 62
From जैनकोष
पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पसंसियं वयणं।
परिचत्ता सपरहियं भासासमिदी वदंतस्स।।62।।
भाषासमिति में परिहार्य पञ्चवचन—चुगली, हसी, कठोर वाणी, परनिन्दा, अपनी प्रशंसा रूप जो वचन है उनका परित्याग करने वाले साधुसंत जो निज पर कल्याण के ही वचन बोलते हैं उस वचनालाप के करने को भाषासमिति कहते हैं। भाषासमिति के लक्षण में इतनी बातों को अत्यन्त हेय प्रदर्शित किया हे। चुगली, हसी, मर्मभेदी वचन बोलना, दूसरों की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना—ये पाच बातें परिहार के अर्थ ख्याल में रखिये। अपने जीवन में भी इन 5 बातों का परिहार बना रहे तो आपका आत्मा भी आनन्दरूप बर्तेगा और जहां आप होंगे वहाँ के वातावरण में जितने मनुष्य लगे होंगे वे भी प्रसन्न हो जायेंगे। जैसे इत्र लगाने वाले के समीप सब लोग खुशबू लेते रहते हैं ऐसे ही सज्जन पुरुषों के समीप बसने वाले सब मनुष्य प्रसन्नबदन रहा करते है। उन पाचों चीजों का क्रम से कुछ स्वरूप सुनिये।
पैशुन्यवचन—चुगली कहो या दोगलापन कहो, चुगली का अर्थ है चार गले की बात का नाम। इससे कही उससे कही, जो चार जगह यहाँ से वहाँ, वहाँ की यहाँ बातें करे, बैठे वह है चुगल और दूसरे के गले में उतार दे दूसरे की बात वह है चुगली। चुगल का नाम है संस्कृत में कर्णेजप, जो दूसरों के कान में जाप देवे। चुगल दूसरे के कान में धीरे-धीरे बात कहा करता है। कोई बात चुगल ने जोर से बोल दी तो ऐसा लगेगा सुनने वाले को कि कोई महत्त्व की बात नहीं है और धीरे से कहे, कान में कहे कि अमुक ऐसा है तो वह जानेगा कि यह कोई खास भीतरी मर्म की बात कह रहा है। चुगल का नाम क्या है? कर्णेजप। जो दूसरों के कान में जाप किया करे। उस चुगल के मुख से निकले हुए जो वचन हैं वे पैशुन्य कहलाते हैं, चुगली के वचन कहलाते है।
पैशुन्यवचन से विपदा का विस्तार—कोई चुगली एक पुरुष की विपत्ति का कारण है। कोई चुगली एक कुटुम्ब भर की विपत्ति का कारण हो जाती है, और कोई चुगली एक गांव भर की विपत्ति का कारण हो जाती है। क्या सार रक्खा है चुगली में? जो चुगल है वह सदा भयभीत रहता है, कहीं मेरे मायाचार की बात प्रकट न हो जाय, ऐसी सदा शंका बनी रहती है। यहाँ की बात वहाँ करे, वहाँ की बात यहाँ करे, और उन दोनों में परस्पर में कलह करा दे। क्या पड़ी है? हाँ अपना कोई मित्र हो और उसको सावधान रखने के लिए किसी की आलोचना कर दी जाय तो वहाँ आशय उसका खोटा न हो तो वह मित्रता में शामिल है, न होगा चुगली में शामिल, किन्तु ऐसा भी होता कहां है?
जैसे किसी को जुवे की आदत पड़ जाय तो उसे बिना खेले चैन नहीं पड़ती। जिन बच्चों को तास खेलने की आदत होती है वे सुबह होते ही तास लेकर बैठ गये, 12 बज गये—मां बुला रही बेटा खाना खा जावो। तो वह कहता है कि अभी एक दांव तो और चलने दें। जिसको जिसकी आदत पड़ जाती है वह बंधन में हो जाता है। किसी परपुरुष से या किसी परस्त्री से स्नेह का प्रारम्भ करना भी महान् विडम्बना है। थोड़ा प्रारम्भ करे तो वह फिसल कर अंत में बरबाद ही होगा। किसी भी दुराचार के लिए बात प्रारम्भ करना भी खतरे से भरपूर है। इस जीवन में बड़ा सावधान रहना चाहिए।
चुगल की मच्छरवत् चर्या—चुगल को बताया है मच्छर की तरह। जैसे मच्छर पहिले पैर में गिरता है, फिर पीठ का मांस खाता है और फिर कान में कुछ धीरे-धीरे बोला करता है, समझ गये ना? ये काट खाने वाले मच्छर ऐसा ही करते हैं। इसी तरह ये चुगल पहिले पैरों में गिरता है और फिर पीठ पीछे उसकी हानि की बात किया करता है और फिर दुबारा उसके कान में भरभराया करता है। क्या तत्त्व रक्खा है चुगली की बात में?
साधुवों में पैशुन्य का पूर्ण अभाव—साधुसंत पुरुषों में चुगली का लेश भी नहीं रहता। किसकी चुगली करना, किससे चुगली करना? मुनिजनों को तो जरा भी अवकाश नहीं है कि बैठकर तो खा लें। इसलिए वे खड़े ही खड़े आहार करके चले जाते हैं। देखा होगा मुनियों को। अब कोई यों जानें कि हम तो साधु हैं, खड़े होकर खाना चाहिए तो यह तो उसकी पर्याय बुद्धि है। अरे साधु को इतनी नहीं है, उसे तो ध्यान है आत्मचिन्तन का, आत्महित का, अपने ज्ञान ध्यान में लवलीन रहने का, सो उन्हें बैठकर अच्छी तरह आहार करने का अवकाश ही नहीं हे। यह है आन्तरिक मर्म खड़े होकर भोजन करने का। और व्यवहार में मर्म यह है कि खड़े होकर कम खाया जाता है। तो आलस्य न आयगा। अब किसी के खड़े होकर भी डबल खाने की आदत पड़ जाय तो उसका इलाज क्या होगा हमें तो नहीं मालूम। तो जिसको आत्महित की धुन लगी है ऐसे ज्ञानी संतपुरुष को अवकाश कहां है? फिर किसकी वह चुगली करे और किससे करे? चुगली विपत्ति का कारण है। चुगली कुटुम्ब की विपत्ति का कारण है अथवा ग्राम का ग्राम एक चुगल की वजह से नष्ट हो जाया करता है। चुगली का वचन अत्यन्त हेय है।
हास्यकर्म की हेयता—जैसे चुगली हेय है इसी प्रकार हंसी मजाक करना भी हेय है। कहीं पर किसी समय कुछ भी दूसरे मनुष्य के विकृत रूप को देखकर अथवा कोई बात को सुनकर जो कुछ खुशी के परिणाम से मिलीजुली हसी करने वाले के मुख में विकार हो जाता है वह हसी मजाक कहलाता है। जो हसी मजाक करे उसका जरा कैमरे से जरा फोटो तो उतार लो और फिर उसे दिखावो बड़ा खराब उसका लगेगा। दूसरे के मुख विकार को देखकर जिसने हसी की उसका मुख विकार उससे भी विकृत बन जाता है, और फिर कहते हैं कि रोग की जड़ खांसी और झगड़े की जड़ हांसी। हसी करने के लिए रंच भी उन्मुख मत हो। अभी लग रही है हसी, और किसी समय हो जायगा यही भयंकर रूप तो जीवन भर के लिए बैर बंध सकता है। तो हसी मजाक के भी वचन साधु संतपुरुषों के नहीं हुआ करते हैं। इस प्रकरण में उन 5 निन्द्यनीय वचनों की चर्चा चल रही है।
हास्यभाव में रुद्रता का आशय—लोग हसी किया करते हैं कब? जब हास्य नामक नोकषाय का उदय रहता हे। इसका उदय प्राय: करके थोड़ी-थोड़ी देर बाद चला करता है तब वहाँ बाह्य निमित्त पाकर और उस ओर उपयोग होने पर उसकी हसी मजाक की वृत्ति हो जाती है। यह हास्य यद्यपि कुछ हर्ष से भरा हुआ है, फिर भी यह अशुभ कर्मबंध का कारण है। किसी की हसी मजाक करना पापबंध का कारण है। दूसरे को क्लेश पहुंचाये बिना और शरीर में दु:खी करने के परिणाम आये बिना अथवा अपने आपमें मद आये बिना हसी मजाक नहीं किया जा सकता है। इस कारण यह हास्य कर्ममय वचन भी अतिनिन्दनीय है, इसका प्रयोग न करना चाहिए।
कर्कश वचन का रूप—तीसरा हेय वचन कहा जा रहा है कर्कश वचन। जो वचन दूसरों को अप्रीति पैदा करे उसका नाम है कर्कश वचन।यह कान एक टेढ़ी-मेढ़ी पूड़ी की तरह है, अथवा मूग की दाल के बरोले की तरह है। ऐसे कर्णशष्कुली के बिल के निकट पहुंचने मात्र से ही जो वचन दूसरों को अप्रीति उत्पन्न करें उसे कर्कश वचन कहते हैं। क्रोध कषाय में लोग प्राय: कर्कश वचन बोलते ही हैं। उन वचनों के क्या उदाहरण देना, और उदाहरण देकर समय क्यों खराब करना? देहातीजन, असभ्यजन मर्मभेदी कठोर वचनों का प्रयोग करते हैं।
कर्कश वचन की चोट—एक लकड़हारा था, वह लकड़हारा लकड़ी बीनने जंगल में गया। सामने देखा कि एक शेर लंगड़ाता हुआ आ रहा है। पहिले तो वह डरा, पर क्या करे? सिंह तो अत्यन्त निकट आ गया और लकड़हारे के सामने पड़कर अपना पंजा दिखाया। पजे में बहुत बड़ा कांटा लगा था, लकड़हारे ने उस कांटे को निकाल दिया। सिंह उसका बड़ा कृतज्ञ हुआ, और गिड़गिड़ाकर कहने लगा कि रे लकड़हारे, तुम लकड़ी का बोझ अपने सिर पर लाद कर ले जाते हो सो ऐसा न करो, अब तुम हमारी पीठ पर लादकर ले चला करो। वह सिंह की पीठ पर लकड़ी का बोझ लादकर घर ले गया। दूसरे दिन भी गया तो उसने सोचा कि यह सिंह तो लादकर ले ही जाता है चलो 25 सेर की जगह अब 1। मन लकड़ी ले चलें। 2 मन लादे, फिर चार मन लादे और अपने घर लकड़ी ले जाय। इस तरह वह लकड़हारा थोड़े ही दिनों में धनी हो गया। जिस समय वह लकड़ी रख रहा था तो लोगों ने पूछा कि कहो भाई, तुम कैसे इतना जल्दी धनी हो गये? तो वह बोला कि मेरे हाथ एक स्याल गधा लग गया है वह बोझा लाता है जिसके कारण मैं धनी हो गया हू। यह बड़ी तेज आवाज में बोला था, सो शेर ने सुन लिया, सुनते ही उसके दिल में गहरी चोट लगी।
कर्कश वचन में प्राणघात से भी अधिक विघात—इसके बाद दूसरे जब लकड़हारा चार मन लकड़ी लादकर लाने की उत्सुकता में था कि वह सिंह लकड़हारे के पास आकर कहता है रे मनुष्य ! आज तुम अपनी कुल्हाड़ी बड़ी तेजी से मेरे सिर पर मारो, मैं जीना नहीं चाहता हू। बड़ा डरा। सिंह ने कहा देखो यदि तुम नहीं मारते हो तो मैं तुम्हें मार डालूगा। इस मनुष्य ने अपनी जान बचाने के लिए सिंह के सिर पर बड़े जोर से कुल्हाड़ी मारी। शेर मरता हुआ कह रहा है कि तुम्हारी कुल्हाड़ी धार उतनी ही पैनी मुझे नहीं लगी जितने पैने तीक्ष्ण तुम्हारे ये वचन लगे थे कि मेरे हाथ एक स्याल गधा लग गया है।
कर्कश वचन की हेयता—भैया ! कर्कश वचन का घाव बहुत बुरा हो जाता है। इस मनुष्य जीवन में यदि बोलचाल के लिए जीभ पायी है तो उसका सदुपयोग करें। भूलकर भी किसी दूसरे के द्वारा कितना ही सताये गये हों फिर भी कर्कश वचन मुख से न निकलना चाहिए। घर में जितने कलह हो जाते हैं वे खोटे वचनों के कलह होते हैं। एक दूसरे का सम्मान नहीं रख सकते, उससे कलह बढ़ जाती है। जिन घरों में पुरुष, स्त्री का और बच्चों का भी अपने प्रति या बाप के प्रति बड़ा सुन्दर व्यवहार रहता है। कर्कश वचन भाषासमिति पालक साधु संतजनों के स्वप्न में भी नहीं निकलता है।
परनिन्दावचन की क्रोधचाण्डाल से भी अधिक चाण्डालता—इसी तरह निन्द्यनीय वचन है परनिन्दा का वचन। दूसरों में दोष हों उन्हें, अथवा न हों उन्हें बताते हुए वचन बोलना इसका नाम है परनिन्दा वचन, दूसरों की निन्दा करना बहुत बुरा दोष है। एक टूटीफुटी भाषा का पद्य है ‘मुनीनां क्रोध चांडाल:, पशु चाण्डाल गर्दभ:। पक्षीनां काक चांडाल: सर्वचांडाल निन्दक:।।’ मुनि का चांडाल है क्रोध, अथवा यों कहो कि क्रोधी मुनि चांडाल है, मुनि नहीं। मुनि के जो कषाय पड़ी हुई है वह है चांडाल। क्रोध मुनि के शोभा नहीं देता है। इससे भी गया बीता निन्दा का वचन है।
निन्दक की पशु चाण्डाल से भी अधिक मलिनता—पशुवों में चांडाल है गधा। कुछ इस ओर गधे को छू जाना दोष नहीं माना जाता, पर बुन्देलखण्ड में गधा छू जाय तो लोग नहाते हैं। नहाये बिना वे अपने को इतना अपवित्र मानते हैं जितना कि विष्ठा में पैर भिड़ जाने पर अपवित्र मानते हैं। क्यों गधा चांडाल है? कोई कारण होगा। एक तो गधा घूरे पर बना रहता है, गंदी चीजों में भी वह अपना मुख लगाता है, गन्दे स्थानों में भी वह लोटता रहता है, और दूसरे बुद्धिहीन है। और गन्दे भार लादने के काम किया करता है। कुछ भी हो पशुवों में चांडाल गधे को बताया है। निन्दक पुरुष पशु चाण्डाल से भी अधिक मलिन है।
परनिन्दक की काक चाण्डाल से भी अधिक मलिनता—पक्षियों में चाण्डाल कौवे को कहा गया है। कौवा खोटी चीज खाता है—थूक, कफ, विष्टा इन सब दुर्गन्धित, अपवित्र चीजों में यह कौवा अपना मुख लगाता है। एक ऐसी किम्वदन्ती है कि कौवा बैकुण्ठ में भगवान् के गांव में रहता था। सो वह भगवान् की बातें सुन ले और यहाँ आकर मनुष्यों को बता दे। जिसे चुगली कहते हैं, भगवान् की चुगली मनुष्यों से कर दे। जब भगवान् को मालूम पड़ा तो उन्होंने कौवों को श्राप दिया कि जा तेरा मुख गंदी चीजों में ही रहा करेगा। अब कौवे बड़े हैरान हो गये। कौवों ने सलाह की कि अपन मिलकर भगवान् से माफी मांगें। सो वे गये भगवान् से माफी मांगने, बोले—भगवान् !हमारी गलती क्षमा करें, हमें माफी मिल जाय, अब से कभी आपकी चुगली नहीं करेंगे। सो भगवान् ने कहा अच्छा जावो, 15 दिन की तुम्हें छूट दे दी जाती है। वही 15 दिन हैं असौज बदी एकम से अमावस तक के। जावो तुम्हारा मुख 15 दिन मीठा रहेगा। उन दिनों लोग उन्हें बुला-बुलाकर खिलाते हैं। जिस भगवान् की इसमें चर्चा है वह भगवान् भी कौवों की गोष्ठी के होंगे। तो पक्षियों में चाण्डाल कौवे को कहा है, निन्दक इससे भी मलिन है।
परनिन्दक की सर्वचाण्डालता—किन्तु भैया ! सबमें चाण्डाल है निन्दा करने वाला। अत्यन्त निंद्यनीय हैं परनिन्दक पुरुष। दो चार आदमियों में बैठकर दूसरे की निन्दा करना और मौज मानना, खुश होना, अमुक यों है, अमुक यों है ये सब परनिन्दा की ही तो बातें हैं। क्यों करते हैं लोग परनिन्दा? क्या लाभ मिलता है उन्हें? खुद के गुणों का विकास तो होता नहीं। जितनी देर दूसरों की निन्दा में उपयोग लगाया जाय उतने काल तो इसका उपयोग मलिन रहता, गंदा रहता है। खुद का भी इससे कोई सुधार नहीं होता है, जिनको सुनाते हैं उनका भी कोई सुधार नहीं होता है, बल्कि जो निन्दा सुनने के व्यसनी हैं वे अपना रौद्रध्यान पुष्ट कर रहे हैं, उनका तो और बिगाड़ है और जिसकी निन्दा की जा रही है उसका भी सुधार नहीं है। किसी पुरुष में कोई ऐब हो और उसको दो आदमियों के समक्ष खोटे वचनों से बोलकर उस ऐब को छुड़ाना चाहे तो नहीं छुड़ा सकता। उल्टा वह और ऐबों में आ जायेगा। उसको लोग अकेले में भी डाटकर और निन्दा करके थोड़ा ऐब छुड़ाये तो भी वह नहीं छोड़ सकता।
परदोष छुटाने का उपाय—किसी के ऐब छुड़ाने का एक उपाय है। जिसमें ऐब है उसमें कोई भी गुण कुछ न कुछ है जरूर, सो पहिले उसके गुण का वर्णन करें, आपमें ऐसी कला है, आपमें ऐसा गुण है, आप ऐसे श्रेष्ठ हैं। गुणों का वर्णन करने के बाद फिर कहेंगे कि इतनी सी बात यदि और न होती तो आपका बड़ा उत्कर्ष होता। इस शिक्षा को वह ग्रहण कर लेगा। पर निन्दा से न निन्दक का भला, न निन्दा सुनने वालों का भला और न जिसकी निन्दा की जा रही है उसका भला है। पर निन्दा का वचन भाषासमिति में सर्वथा निंद्यनीय है। भाषासमिति के प्रकरण में उन 5 प्रकार के वचनों की चर्चा की जा रही है जिन्हें साधुजन रंच भी उपायों में नहीं लेते।
पञ्चम हेय वचन—पांचवां दुर्वचन है आत्मप्रशंसा का। अपने में गुण हों तो, न हों तोउनका स्तवन करना, बताना इसको आत्मप्रशंसा कहते हैं। अपने में गुण हों और उन गुणों के अपने ही मुख से प्रकट किया जाय तो उन गुणों में कमी आ जाती है। फिर वह कला इतनी उत्तम नहीं होती हैं। जैसे कोई कहे कि तुम मेरा गाना सुनो—मैं बहुत बढ़िया गाऊगा, ऐसा कहकर गाये तो उसके गाने में वह कला नहीं आ सकती। और दूसरे लोग उससे बहुत-बहुत कहें—अजी एक गाना तो सुना ही दो, और फिर उसे सुनाना ही पड़े तो उसके संगीत में आपको कला मिलेगी। अपने आप अपनी प्रशंसा करना यह भाषासमिति में योग्य नहीं बताया गया है।
भाषासमिति में हित, मित, प्रिय, वचन का ही स्थान—भैया ! इन 5 प्रकार के दुर्वचनों से दूर रहो। इसके अतिरिक्त इतनी बात का और ध्यान हो कि भाषासमिति के धारक साधु संतजनों के वचन हित, मित और प्रिय हों। ये तीन विशेषण उत्तम वचन बोलने के लिए बताये गये हैं। ऐसे वचन बोले जाय जो दूसरों का भला करें, हित करें। ऐसे वचन बोले जायें कि जो दूसरों को प्रिय लगें। हितकारी भी वचन हों और अप्रिय हों तो उस वचन को सुनकर वह हित में लग ही नहीं सकता। इसलिए वचन प्रिय भी हों, साथ ही अपनी रक्षा करने के लिए वचनालाप परिमित हो। अधिक बोलने वाले को क्षण-क्षण में अपने बोल पर पछतावा आता है, क्योंकि अधिक बकवाद करने से कोई वचन छोटे भी निकल सकते हैं, हल्के भी हो सकते हैं और न भी हल्के हों, बहुत-बहुत बोलने के बाद इसे कुछ ऐसा महसूस होगा कि मैं कितना व्यर्थ बकवाद कर गया हू। इस कारण हितकारी वचन हों, परिमित वचन हों और प्रिय वचन हों। ऐसे इन तीन प्रकार के सद्वचनों से सहित भाषासमिति का व्यवहार होता है।
इस प्रकार सभी खोटे वचनों को त्यागकर ऐसे वचन बोलना चाहिए जो अपने शुभ और शुद्ध प्रकृति का कारण हों और दूसरों के शुभ और शुद्ध प्रकृति का कारण हों, ऐसे वचनों का पालना सो भाषासमिति कहलाती है। जिस साधु पुरुषों ने समग्र वस्तुस्वरूप जान लिया है, जो संतपुरुष सर्व प्रकार के पापों से दूर हैं, जिनका चित्त अपना हित करने में सावधान रहता हैं ऐसे पुरुष अपने और दूसरे के भला करने के ही वचन बोला करते हैं।
मनुष्यों के पास अत्यन्त निकट वाला धन और है क्या? चार चीजें बतायी गयी हैं—तन, मन, धन और वचन। इन चारों में धन तो बिल्कुल अत्यन्त दूर की चीज है। तन, मन और वचन ये निकट की चीजें हैं। लेकिन व्यामोह में धन के पीछे तन का भी दुरुपयोग, मन का भी दुरुपयोग और वचन का दुरुपयोग किया करते हैं। धन तो अत्यन्त दूर की चीज है। यह तो तब तक लक्ष्मी की भांति स्थान रखता है जब तक इसके संतोषधन नहीं आता। जब संतोषधन आ जाता है तो ये सारे ठाटबाट धूल के समान विदित होने लगते हैं। भला बतलावो तो सही कि अचानक कभी गुजर गए तो फिर क्या इसके साथ जायेगा? चला गया यह। दिखता तो है। उसके साथ तो जो संस्कार किया है, जो कर्मबंध हुआ है उसके अनुसार वहाँ स्वयमेव ही नटखट वातावरण बन जायेगा और वहाँ सारी नई-नई चीजों का प्रसंग आ जायेगा। यहाँ का तो उसके साथ कुछ भी न जायेगा। अत्यन्त दूर की चीज है यह धन वैभव। निकट वाली चीज है तो तन, मन और वचन है। ऐसी दुर्लभता से ये तन, मन और वचन मिले हैं तो इनका सदुपयोग करने में ही हित है।
तन, मन, वचन का सदुपयोग—तन का सदुपयोग यह है कि दूसरों की सेवा करना, किसी जीव को बाधा न पहुंचाना। यहाँ तक कि कीड़ा, मकौड़ा और सभी प्रकार प्राणियों की रक्षा का यत्न रखना, यह है तन का सदुपयोग। और मन का सदुपयोग है सबका हित सोचना। किसी प्राणी को क्लेश न पहुंचे, यह है मन का सदुपयोग। वचनों का सदुपयोग यह है कि हित, मित, प्रिय वचन बोले जायें। हम दूसरे के भले के वचन बोलना चाहते हों और उनकी सेवा शुश्रूषा भी करना चाहते हों, लेकिन अप्रिय वचन बोल दें तो सब कुछ किया हुआ बेकार हो गया। कोई मनुष्य याचक जनों को कुछ दे देवे भोजन वस्त्र कुछ भी, और बुरे शब्द बोलता हुआ देवे तो यह पैसों से भी लुटा, यश से भी लुटा, पाप संचय भी किया। वचन हित, मित, प्रिय होने चाहियें।
अकर्कश वचन में स्वपरमोदता—जो अपने और पर के हितकारी शुभ और शुद्ध वृत्ति का कारणभूत वचन बोलते हैं वे संतजन क्यों न समता के धारी होंगे। देखिए किसी ने अच्छे वचन बोले तो बोलने वाले को भी शांति रहती है, और जिनको बोला उनको भी शांति रहती है तथा जितने सुनने वाले होंगे उन्हें भी शांति रहती है। कोई अप्रिय वचन बोले—कर्कश वचन बोले, बुरे वचन बोले तो पहले उसे अपने आपमें ही संक्लेश विकल्प मचाने पड़ेंगे, तब इतनी हिम्मत बनेगी कि मैं दूसरे को खोटे वचन बोल दू। और फिर वे खोटे वचन जिसे बोले जायेंगे वह भी दु:खी हो जायेगा। ये वचन बाण की तरह घाव किया करते हैं।
मुख धनुष, वचन प्राण—खोटे वचन बोलते हुए यह मुख बिल्कुल धनुष जैसा बन जाता है। जब खोटे वचन बोले जाते हैं तब उसके मुख का फोटो ले लो और चढ़े खींचे धनुष का फोटो ले लो—एकसा आकार हो जायेगा। नीचे का अर्द्धगोल धनुष की डंडी का और ऊपर की अर्द्धगोल धनुष की डोरी का बन जायेगा। इस तरह डंडी और डोरी का सा यह मुख का आकार बन जाता है और उस खींचे हुए धनुष से जब वचन बाण निकलता है तो जिसे बोला जाय उसके मर्म को छेद देता है। फिर बाद में लाखों उपाय करें कि वह निकला हुआ बाण वापिस आ जाय, उस भूल में कितनी ही मिन्नतें की जायें, पर वह बाण वापिस नहीं आ सकता। जैसे धनुष से निकला हुआ बाण वापिस नहीं आ सकता, इसी प्रकार मुखरूपी धनुष से निकले हुए वचन वापिस नहीं आ सकते।
वचनबाण की वापिसी की कठिनता—कदाचित् वचनबाण की चोट पहुंचाकर फिर आप उसकी प्रशंसा स्तवन करके भले ही कहें कि मेरे वचन वापिस कर दें, भूल से वचन निकल गए तो कुछ भले ही शांति हो जाय, पर वह शोभा की बात नहीं रहती है और कोई तो अप्रिय वचन ऐसे होते हैं कि अप्रिय बोलने वाला सैकड़ों बार मिन्नत करे तो भी दिल की चोट नहीं मिटती है। अरे इसने पहिले तो वचनबाण से ऐसा मार दिया अब वह वापिस कैसे वापिस हो? वह होता ही नहीं है। मैं भी चाहता हू कि तुम्हारी बात को मैं भूल जाऊं, पर वह भूला नहीं जा सकता है। ज्ञान का काम तो जानना और स्मरण करना है, वह कैसे भूला जायेगा? सो वचन बोलने में बड़ी सावधानी रहनी चाहिए।
वचनों द्वारा मनुजप्रकृति परिचय—मनुष्य की पहिचान तो वचन से ही हुआ करती है। यह भला है या बुरा है—इसकी पहिचान वचनों से है। जहां उल्टे सीधे वचन बोले जायें वहाँ समझो कि इसका चित्त तुच्छ है। बहुत छोटीसी घटना है—राजा, मंत्री और सिपाही कहीं चले जा रहे थे। रास्ता भूल गए। सबसे पहिले सिपाही आगे निकल गया, उसे मार्ग में एक अंधा पुरुष मिला। उससे पूछा—क्यों बे अंधे ! इधर से दो आदमी तो नहीं गये हैं? अंधा बोला कि अभी तो नहीं गये हैं। वह आगे बढ़ गया। अंधे ने समझ लिया कि यह कोई छोटा मोटा सिपाही है। बाद में उसी रास्ते से मंत्री निकला पूछा—क्यों सूरदास, इस रास्ते से दो आदमी तो अभी नहीं गये? तो वह अंधा बोला कि अभी एक सिपाही आगे निकल गया है। अंधे ने सोच लिया कि कोई मंत्री होगा। वह मंत्री भी आगे बढ़ गया। बाद में राजा उसी मार्ग से निकला—अंधे से पूछा क्यों सूरदास जी इस मार्ग से कोई दो आदमी तो नहीं गये? अंधे ने समझा कि यह कोई राजा है, सो कहा, हाँ राजन् पहिले एक सिपाही निकल गया, उसके बाद में एक मंत्री निकल गया है। अब राजा भी आगे बढ़ गया।
वचनों द्वारा मनुजप्रकृति परिचय का विवरण—बाद में आगे चलकर जब तीनों मिल गये तो उस अंधे का किस्सा सुनाया। सबने सोचा कि उस अंधे ने कैसे जान लिया है कि यह सिपाही है, यह मंत्री है और यह राजा है, चलो इस बात को चलकर पूछे। तीनों ही उस अंधे के पास आये। पूछने पर अंधे ने बताया कि राजन् ! मैंने वचनों से पहिचाना था कि यह अमुक है, यह अमुक है। जिसने अबे अंधे कहा उसको मैंने समझ लिया कि यह कोई छोटा ही आदमी सिपाही वगैरह होगा और जिसने कोई सूरदास कहकर पूछा था, उसे मैंने समझ लिया कि यह कोई राजा के निकट का व्यक्ति मंत्री वगैरह होगा और जिसने अंत में कहा, सूरदास जी कहकर पूछा था, उसे मैंने समझ लिया था कि यह कोई राजा होगा।
भाषासमिति के वचनों की शीतलता—तो भैया ! वचनों से मनुष्यों के भले और बुरेपन की पहिचान होती है। वचन ऐसे बोलने चाहिये जिनसे अपना भी हित हो और दूसरों का भी हित हो। हित, मित और प्रियवचन बोलने को भाषासमिति कहते हैं। भाषासमिति के पालक साधु के वचनों की शीतलता जिस संताप को मिटा देती है उस संताप को चंदन आदि की शीतलता मिटाने में समर्थ नहीं है।
वचनगुप्ति के यत्नशील—जो साधुजन परमब्रह्म शाश्वत चित्स्वरूप में निरत रहा करते हैं ऐसे उन ज्ञानीजनों की अन्य जल्पों से भी प्रयोजन नहीं रहता, फिर बहिर्जल्प की बात ही क्या है? मुनिजनों का वचन के प्रसंग में सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य वचनगुप्ति का है। वे किसी भी प्रकार का अन्तर्जल्प और बहिर्जल्प न करके परमब्रह्म के अवलोकन में ही निरत रहते हैं, यह उनका मुख्य लक्ष्य है। ऐसे प्रयत्नशील संतजन अन्तर्जल्प को भी संयत करने का यत्न करते हैं, फिर बहिर्जल्प की तो कहानी ही क्या है? उससे तो दूर ही रहना चाहते हैं, फिर भी स्वपर हित के प्रयोजन से कुछ बोलना पड़े तो भी साधु पुरुष हित, मित, प्रिय वचन बोलते हैं—ऐसे वचनों को कहा जाय जो स्वपर-हितकारी हों, दूसरे के सुनने में प्रिय हों और परिमित हों, ऐसे वचन बोलने को भाषासमिति कहते हैं। यहाँ तक भाषासमिति का वर्णन करके एषणासमिति का वर्णन अब प्रारम्भ किया जाता है।