वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 131
From जैनकोष
मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि ।
विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो ।।131।।
पुण्यपापपदार्थ का व्याख्यान―नव पदार्थाधिकार में जीव और अजीव का वर्णन करके 7 पदार्थों के वर्णन करने के लिए एक आवश्यक भूमि तैयार करके अब पुण्य पदार्थ का व्याख्यान करते हैं । जिसके भाव में मोह और परद्रव्यों से प्रीति अप्रीति और चित्त की प्रसन्नता रहती है, उस जीव के शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं । इस गाथा में पुण्य और पाप, इन दोनों पदार्थों पर कुछ निर्देश किया जाता है । मोह, राग, द्वेष व चित्त की प्रसन्नता―इन चार प्रकार के परिणामों को बताकर पुण्य और पाप भाव भी बता दिये गए हैं।
मोहपरिणाम―दर्शन मोहनीय के उदय से जो कलुषित परिणाम होता है उसे मोह कहते हैं । यह मिथ्यात्वभाव तो सर्वप्रकार से पापरूप ही है, इसमें पुण्य की बात रंच भी नहीं आती । जहाँ गहन अज्ञान भरा हुआ है, परपदार्थों में यह मैं हूँ, यह मेरा है, इस प्रकार की वृत्ति जगी हुई है वह मोहपरिणाम तो केवल पापरूप है और यह इस आत्मप्रभु पर महान कलंक है । एक मिथ्यात्व भाव न हो फिर काहे का दुःख? यह जीव जिस-जिस भव में गया है उस-उस भव में मिले हुए समागमों में मोहपरिणाम ही करता रहा । उस मोहपरिणाम से इसे सिद्धि तो कुछ नहीं मिली, बल्कि यह जन्म जंमांतरों में दुःख पाने का और अपना भवितव्य निश्चित कर लेता चला आया है । आज जो कुछ पाया होगा यह कितनी सी विभूति है? राजा सम्राट होकर अथवा इंद्र होकर कितने प्रकार के ठाठ पाये होंगे, उनके समक्ष आज की पाई हुई विभूति क्या है? लेकिन जिसको यह ही सर्वस्व दिख रही है उसके इस मोह और अज्ञान परिणाम के लिए क्या कहा जाय?
सत्संग के दुरुपयोग पर विषाद―इस अज्ञानी जीव की श्रद्धा सही नहीं है, और जिस जीव की श्रद्धा सही नहीं है वह कहीं चला जाय, उसका दुःख नहीं मिट सकता । जिस जीव की श्रद्धा सही नहीं है वह कुछ भी पा ले, शांति नहीं पा सकता । अब कितना दुर्लभ जीवन पाया है, वीतराग सर्वज्ञ की वाणी सुनने में आयी, वीतराग सर्वज्ञ के स्वरूप का स्मरण करने का अवसर मिला और वीतरागता के चाहने वाले गुरुवों का, श्रावकों का संग मिला, कितना उत्तम संग है हम आप सबका, तिस पर भी विषयवासना और मोहवासना में ही अपना उपयोग लगाये रहे, तब बतलावो इससे बढ़कर और विषाद की बात क्या होगी? जब कि यह बात है कि बाहरी चीजों का समागम आपके विकल्पों के आधार पर नहीं होता है ।
मोहविडंबना―भैया ! आप कुछ सोचें, जैसा होना है, जैसा उदय है वह होता है ।जो बात अपने अधीन नहीं उसकी ओर इतना भाग रहे हैं और जो बात तत्काल आनंद दे, स्वाधीन है, सारे संकटों को टाल दे ऐसी आत्मदृष्टि की बात, प्रभुस्वरूप की भक्ति की बात इसे कठिन लग रही है । इन बाह्यपदार्थों की मूर्छा, अन्याय ये कोई शरण नहीं हैं । इस जीव को यह जीव ही शरण है जब कि वह शरण के ढंग का अपना ज्ञान बनाये । यह मोहपरिणाम, यह अशुभ परिणाम, राग और द्वेष-ये नाना प्रकार के चारित्र मोहनीय के उदय से हुआ करते हैं। किसी पदार्थ में प्रीति का परिणाम होना, किसी पदार्थ में अप्रीति का परिणाम होना यही है राग और द्वेष।
राग द्वेष की मत्तता―रागद्वेष परिणमन भी एक पागलपन है । जब यह जीव सबसे न्यारा केवल अपने स्वरूपमात्र है, इसका सब कुछ कर्तव्य अपने आपके गुणों में है, अपने गुण और प्रदेश के पुंज से बाहर कहीं रहता नहीं है तब बाह्यपदार्थों में से किसी को इष्ट मान लेना और किसी को अनिष्ट मान लेना, यह भी अज्ञानता की बात है या नहीं? इष्ट पदार्थों में राग करना और अनिष्ट पदार्थों में द्वेष करना, यह पुण्य और पाप के बंध का कारण होता है । जगत में कुछ भी पदार्थ इष्ट नहीं हैं और न कुछ भी अनिष्ट हैं । जीव में जिस प्रकार का कषाय भाव जगता है उस कषायभाव की पूर्ति में जो बाह्यपदार्थ निमित्त होने लगते हैं, आश्रय बनते हैं उन्हें तो यह जीव इष्ट मानता है और कषायभाव की पूर्ति में जो साधक नहीं प्रत्युत बाधक नजर आता है उसे अनिष्ट मान लेता है ।
पुण्य और पाप―नाना प्रकार के चारित्र मोहनीय के उदय का निमित्त पाकर जो राग और द्वेष का परिणाम है वह पुण्य और पाप का आधार है अथवा वही पुण्य और पाप है । पुण्य दो प्रकार के होते हैं―एक जीवपुण्य और एक अजीवपुण्य । पाप भी दो प्रकार के हैं―एक जीवपाप और एक अजीवपाप । जीव में जो शुभ और अशुभ परिणाम है वह तो जीवपुण्य और जीवपाप है, इसका निमित्त पाकर जो पुद्गलकर्म का बंध हुआ है अथवा जो पुण्य प्रकृति है वह तो है अजीवपुण्य और जो पाप प्रकृति है वह है अजीवपाप । इस गाथा में जीवपुण्य और जीवपाप का वर्णन है । राग और द्वेष परिणाम करना यह है पुण्य और पाप । राग और द्वेष में द्वेष तो नियम से पाप ही है । द्वेष में पुण्य नहीं होता । कहीं ऐसा द्वैत नहीं है कि यह द्वेष पुण्य है और यह द्वेष पाप है । कभी यह शंका की जा सकती है कि किसी का हित करने के लिए जो कुछ गुस्सा की जाती है, कुछ द्वेष किया जाता है वह तो पुण्य हो जायगा । सुनिये―हित का आशय रखने वाले के तो द्वेष परिणाम जगता ही नहीं है और मान लो किसी के हृदय में कुछ द्वेष परिणाम बन जाय तो जितने अंश में द्वेष जगा है वह तो पापपरिणाम ही है । हाँ रागपरिणाम में 2 भेद हैं । जो शुभ राग है वह तो पुण्य है और जो अशुभ राग है यह पाप है ।
चित्तप्रसाद―रागद्वेष का मंद उदय होने पर अर्थात् चारित्र मोहनीय नामक प्रकृति का मंद उदय होने पर जो आत्मा में कुछ विशुद्ध परिणमन होता है और इस ही कारण चित्त में जो प्रसन्नता रहती है वह है चित्तप्रसाद परिणाम । चित्तप्रसाद परिणाम भी शुभपरिणाम है । कभी कोई दुष्ट किसी का बिगाड़ होने पर जो खुश रहता है वह चित्तप्रसाद नही कहलाता । प्रसाद का अर्थ खुश होना नहीं है किंतु निर्मल होना है । शरदऋतु में नदी प्रसन्न हो जाती हैं, तालाब प्रसन्न हो जाते हैं अर्थात् निर्मल हो जाते हैं । प्रसाद का अर्थ निर्मलता है । चित्त में विशुद्ध परिणाम होने का नाम है चित्तप्रसाद । चित्तप्रसाद का परिणाम शुभभाव है, पुण्यरूप है । यह भाव जिस जीव के होता है उसका नियम से शुभ परिणाम होता है । शुभ परिणाम है पुण्यभाव ।
मोह पाप―मोह प्रकटरूप से पाप है, द्वेष प्रकटरूप से पाप है और अशुभ राग पाप है । शेष सभी राग और चित्प्रसाद ये दो पुण्यभाव हैं । इस प्रकार पुण्य पाप पदार्थो के वर्णन करते समय कुछ पुण्य पाप के स्वरूप की भूमिका का दर्शन किया है । जिस काल में जीव के मोहपरिणाम होता है उस समय जीव की क्या स्थिति होती है और पुद्गलकर्म की क्या स्थिति होती है? जीव तो निश्चय शुद्ध आत्मतत्त्व की रुचि से कोशों दूर रहता है । उसे अपने आत्मा के स्वरूप का कुछ भान ही नहीं है, उस दिशा की ओर गमन भी नहीं । साथ ही व्यवहार रत्नत्रय की भी रुचि से वह रहित रहता है । जिसके गहल मोहपरिणाम है उसे व्यवहार रत्नत्रय के पालन की भी रुचि नहीं रहती है । हां कोई मंद मोह वाले साधुजन व्यवहार रत्नत्रय का कदाचित् पालन करते हैं, फिर भी निश्चयरत्नत्रय की रुचि उनके अंदर नहीं है, अथवा यों कहो कि निश्चयरत्नत्रय के लक्ष्य के बिना जो कुछ भी रत्नत्रय के नाम पर किया जा रहा है वह व्यवहाररत्नत्रय भी नहीं है, ऐसी जीव की स्थिति है । यह तो बताया है शून्यता की बात । विपरीत अभिप्राय का परिणाम मेरा नहीं है । हित को अहित मानना, अहित को हित मानना, अपने को पराया मानना अथवा सुध भी न होना और पर को अपना मानना―ये सारे विपरीत आशय इस मिथ्यात्व अवस्था में हुआ करते हैं । यह है जीव की परिस्थिति मोह के प्रसंग में उस समय पुद्गल कर्म की स्थिति कैसी रहती है जिसको निमित्तमात्र पाकर जीव का विपरीत आशय बना रहता है? वहाँ है मिथ्यात्व नामक दर्शन मोहनीय प्रकृति का उदय।
मोहबल―यह सारी विभाव सेना और सारी पौद्गलिक कर्मसेना उस मोह राजा के बूते ही जीवित है । मोह के नष्ट होने पर धीरे-धीरे समस्त, विभावों की सेना नष्ट होने लगती है, यह तो है मोहपरिणाम की घटना । अब रागद्वेष कैसे बनते हैं, इसकी बात सुनो । ये नाना प्रकार के चारित्र मोह हैं । इन प्रकृतियों की अपेक्षा से कोई चारित्रमोह सम्यक्त्व को प्रकट नहीं होने देते, कोई चारित्रमोह सम्यक्त्व में तो बाधा नहीं डाल पाते, किंतु श्रावक का व्रत नहीं होने देते । कोई चारित्रमोह देशव्रत तक तो कुछ बाधा नहीं डालते, किंतु मुनिव्रत नहीं होने देते और कोई चारित्रमोह इसे अकषाय नहीं बनने देते । इससे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं हो सकता । ऐसी प्रकृतियों के भेद से नाना प्रकार के चारित्रमोह हैं और फिर उनमें नाना प्रकार की तीव्र मंद की प्रकृतियाँ पड़ी हुई हैं । चारित्र मोहों के उदय होने पर इस जीव की क्या स्थिति होती है सो देखिये । निश्चयचारित्र से वीतराग चारित्र से यह जीव रहित रहता है और व्यवहार व्रत आदिक परिणाम भी इसके नहीं हो पाते । जिसके जिस प्रकार के चारित्र मोह का उदय है उसके उस प्रकार के अव्रत परिणाम रहा करते हैं । तब इसकी स्थिति क्या रहती है? इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयो में द्वेष जंचता है, और इस ही मोह के मंद उदय होने पर चित्त में जो एक विशुद्धि होती है वह है चित्तप्रसाद ।
पुण्य पाप का विवरण―इस गाथा में 4 बातें कही गईं हैं, उन चार की जगह आप 5 समझ लीजिए―मोह, अशुभ राग, शुभराग द्वेष और चित्तप्रसाद । इनमें से मोह, शुभराग और द्वेष ये तीन प्रकार के भाव तो पापपरिणाम हैं और शुभराग दान, पूजा, व्रत, शील, संयम, तपश्चरण आदिक में जो अनुराग जंचता है वह है शुभराग । और चित्त में जो एक विशुद्ध परिणाम जगता है, प्रसाद जगता है वह है चित्तप्रसाद । यों शुभराग और चित्प्रसाद ये तो हैं पुण्य भाव, शेष विभाव पापभाव हैं ।