वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 142
From जैनकोष
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु ।
णासवदि सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स ।।142।।
आस्रव की अपात्रता―जिस आत्मा के रागद्वेष और मोह नहीं हैं, किसी भी विषय में जिस जीव के शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव नहीं होता ऐसा योगी रागादिक दोषों से रहित शुद्धोपयोग के कारण तपस्वी है, तपोधना है । यह आत्मा सर्वप्रकार के शुभ अशुभ संकल्पों से रहित शुद्ध आत्मा के ध्यान से उत्पन्न हुए सहज आनंदरस का भोगने वाला होता है और इस आनंदामृत की अनुभूति से उत्पन्न हुई तृप्ति के कारण यह सुख और दुःख में समान है । इसमें सुख दुःख हर्ष विषाद आदिक विकार अब प्रकट नहीं होते हैं । ऐसे शुद्धोपयोगी जीव विरक्त ज्ञानी साधुसंत पुरुष जिनको केवल अपने स्वरूप की रुचि है, रुचि क्या, इस स्वरूपमात्र मैं हूँ, इस प्रकार का जो अनुभव करते हैं बस वे ही समस्त संकटो के दूर रहते हैं । जिस जीव को अपने आपके संबंध में एतावन्मात्र मैं हूँ, ज्ञानप्रकाश मैं हूँ, ऐसा बोध नहीं रहता है उसकी बाह्य में दृष्टि जगती है और उस बाह्य दृष्टि में यह क्षुब्ध बना रहता है ।
सुख दुःख के कारणों में समानता―ज्ञाता आत्मा के समस्त परद्रव्यों में न राग है, न द्वेष है, न मोह है, केवल निर्विकार चैतन्यस्वरूप उपयोग में है, वह सुख दुख में समान है । जो जीव सुख और दुःख को एक समान देखता है उसके यह भी श्रद्धा है कि पुण्य का कारणभूत शुभोपयोग और पाप का कारणभूत अशुभोपयोग ये भी समान हैं । यद्यपि अपेक्षाकृत इनमें अंतर है ।अशुभोपयोग से शुभोपयोग कुछ एक शांति और धर्म का वातावरण उत्पन्न करने वाला है, किंतु निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वरूप के समक्ष ये दोनों प्रकार के उपयोग इसके प्रतिपक्ष हैं । यों पुण्य पाप भाव में, पुण्य पाप कर्म में और सुख दुःख में जिसके समानता की बुद्धि उत्पन्न हुई है ऐसे पुरुष के न पुण्य का आस्रव होता है और न पाप का आसव होता है, किंतु एक संवररूप ही दशा रहती है ।
भावसंवर―यहाँ यह जानना कि मोह रागद्वेष वीतराग न होने रूप शुद्ध चैतन्यप्रकाश का नाम भावसम्वर है और भावसम्वर का निमित्त पाकर शुभ अशुभ कर्म परिणाम भी जो रुक जाते हैं वे द्रव्यसम्वर हैं । द्रव्यसम्वर पर इस आत्मा का वश नहीं है, किंतु वह तो स्वयं होता ही है । यह आत्मा भावसम्वर का करने वाला है । यह आत्मा एक ज्ञानस्वरूप है, यह अपने ज्ञान का उपयोग बाह्य को अपनाने का न करे और अंत:स्वरूपमात्र मैं हूँ ऐसी अपनी व्यवस्थित बुद्धि बनाये तो उसके सम्वरभाव प्रकट होता है ।
द्वितीय गुणस्थान से संवर का प्रारंभ―जिस गुणस्थान में जितने अंश में सम्वरभाव प्रकट होता है उस गुणस्थान में उस-उस प्रकार से कर्म प्रकृतियों का बंध रुक जाता है । जैसे दूसरे गुणस्थान में 16 प्रकार की प्रकृतियों का बंध नहीं होता, मिथ्यात्व, हुंडक संस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, एकेंद्रिय, स्थावर, आताप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरक आयु―इन 16 प्रकृतियों का बंध दूसरे गुणस्थान में नही होता, सम्वर है । यद्यपि यह द्वितीय गुणस्थान सम्यक्त्व से गिरने पर होता हैं और उसके अयथार्थ भाव है, अनंतानुबंधी कषाय का उदय है, किंतु मिथ्यात्व प्रकृति का उदय न होने के कारण वहाँ 16 प्रकृतियों का बंध नहीं होता ।
उपरितन गुणस्थानों में संवर का क्रम―तीसरे गुणस्थान में 25 प्रकृतियाँ और भी बंध से रुक जाती हैं और ये 16 और 25 मिलकर 41 प्रकृतियाँ चौथे गुणस्थान में भी नहीं बँधती हैं । इन 25 प्रकृतियों में अप्रत्याख्यानावरण कषाय आदिक वे प्रकृतियाँ हैं जो अनंतानुबंधी कषाय के उदय के कारण बँधा करती थी । तीसरे गुणस्थान में अनंतानुबंधी का उदय नहीं है । इस कारण अनंतानुबंधी के उदय से होने वाली प्रकृतियों का सम्वर हो जाता है । पंचम गुणस्थान में 10 प्रकृतियों का बंध और रुक जाता है । आगे देखिये छठवें में 4 का, 7वें में 6 प्रकृतियों का, 8वें में 36 का, 1॰वें में 5 का, 12वें में 16 का व योगियों के 1 का बंध और रुक जाता है।
द्रव्यसंवर―इस प्रकार जहाँ जैसा शुद्धोपयोग प्रकट हो वहाँ उतनी प्रकृतियों का बंध रुक जाया करता है। यह है द्रव्यसम्वर। और कर्मप्रकृतियों के बंध रुक जाने का कारणभूत जो शुद्ध भाव है वह है भावसम्वर। इस गाथा में शुभ और अशुभ परिणामों का सम्वर करने में समर्थ शुद्धोपयोग को भावसम्वर बताया है और भावसम्वर के आधार से जो नवीन कर्मों का बंध रुक जाता है उसे द्रव्यसम्वर कहते है।