वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 160
From जैनकोष
धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्बगदं ।
चिट्ठा तवंहि चरिया ववहारो मोक्खमग्गोत्ति ।।160।।
व्यवहारमोक्षमार्ग का वर्णन―इस गाथा में व्यवहारमोक्षमार्ग का प्ररूपण है । धर्मादिक द्रव्यों का यथार्थ श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यक्त्व है । 11 अंग 14 पूर्व में प्राप्त हुए ज्ञान को व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं और 12 प्रकार के तपों में 13वें प्रकार के चारित्रों मे जो चलन है, प्रवृत्ति है उसे व्यवहारचारित्र कहते हैं । इस प्रकार व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक्चारित्ररूप व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है । व्यवहार मोक्षमार्ग में व्यवहार का यह अर्थ है कि यह निश्चय मोक्षमार्ग को कारण होता है । व्यवहारनय का आश्रय करके जिसमें भिन्न साध्य हो, भिन्न साधन हो और जो स्व और पर का कारण पूर्वक हो वह सब वर्णन व्यवहार का वर्णन कहलाता है । यह व्यवहार भी निषिद्ध नहीं है, क्योंकि निश्चय और व्यवहार का परस्पर में साध्यसाधन भाव है ।
साध्यसाधनभाव का दृष्टांत―जैसे स्वर्ण और जिस मिट्टी से स्वर्ण निकलता है वह स्वर्णपाषाण । स्वर्ण यद्यपि स्वर्ण नहीं है, स्वर्ण पाषाण में यदि विधिपूर्वक प्रयोग किया जायतो मन-दो मन पाषाण में से कोई एक-दो तोला स्वर्ण निकलता है, लेकिन स्वर्णपाषाण कारण तो हुआ स्वर्ण निकलने का । जैसे इन दोनों में परस्पर साध्यसाधन भाव है इसी प्रकार व्यवहारमोक्षमार्ग में और निश्चयमोक्षमार्ग में साध्यसाधन भाव है जो निश्चयमोक्षमार्ग का कारण है वह व्यवहारमोक्षमार्ग है अर्थात् जो स्वयं यथार्थ तो मोक्षमार्ग नहीं है, किंतु यथार्थ मोक्षमार्ग के पहिले होने वाला जो परिणाम है वह व्यवहारमोक्षमार्ग है । परमेश्वर की आज्ञा अथवा उनका तीर्थ प्रवर्तन दोनों नयों के अधीन होता है, निश्चय और व्यवहारनय । केवल निश्चयनय का ही एकांत किया जाय तो तीर्थप्रवृत्ति नष्ट हो जायगी । तीर्थ का प्रवर्तन व्यवहार के अधीन है और यदि केवल एकांत का व्यवहार किया जायगा तो तत्त्व की बात समाप्त हो जायगी । अतएव प्रभु का उपदेश निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों नयों के अधीन हुआ करता है । इससे पहिले भी व्यवहारमोक्षमार्ग का वर्णन किया है । अतएव यहाँ पर इस ढंग से व्यवहारमोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं कि निश्चयमोक्षमार्ग की साधकता सिद्ध हो ।
प्रयोजनभूत श्रद्धान की श्रावक व साधु में समानता―वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत जीवादिक पदार्थों के विषय का यथार्थ श्रद्धान होना और ज्ञान होना―ये दोनों गृहस्थ के और तपस्वी के समान हैं । श्रद्धान का जहाँ तक प्रश्न है गृहस्थ साधु से पीछे नहीं रहता और मोक्षोपयोगी मोक्षमार्ग में लगने के लिए जो एक ज्ञान चाहिए, भेदविज्ञान स्वरूप परिज्ञान, वह भी तपस्वी से कम नहीं होता । केवल एक चारित्र में अंतर होता है । तपस्वी जनों के तो आचार आदिक ग्रंथों में जैसा मार्ग बताया है उस मार्ग से 13 प्रकार का चारित्र होता है । 6 आवश्यक होते हैं, किंतु गृहस्थ जनों के उपासकाचारों में जैसे कहा गया है पंचम गुणस्थान के योग्य दान, शील, पूजा, उपवास आदिकरूप अथवा एकादश प्रतिमावों के पालनरूप चारित्र होता है, किंतु श्रद्धान में जो तपस्वी का श्रद्धान है वही गृहस्थ का श्रद्धान है ।
प्रयोजमभूत श्रद्धान―मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत जीवादिक 7 तत्त्वों का किस प्रकार का श्रद्धान होता है सम्यग्ज्ञानी के, वह संक्षेप में इस प्रकार समझिये । जीव के संबंध में यह अवगम रहता है कि यह जीव स्वभाव से निश्चयनय से एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप है, परभावों से रहित अपने स्वरूप में तन्मय चैतन्यमात्र यह जीव है, किंतु अनादिकाल से अज्ञानवश रागद्वेष मोह की प्रेरणा से इसकी संसाररूप अवस्था बन रही है और यह संसाररूप अवस्था किसी परउपाधि के निमित्त से हो रही है । स्वयं ही कोई पदार्थ स्वयं के विकार का कारण नहीं होता है और ऐसा विकार होने में जो कारण है वह है अजीव पदार्थ, कर्म पदार्थ । ये कर्म जीव के रागादिकभावों का निमित्त पाकर अति हैं, बँधते हैं, और जब इनका उदयकाल होता है तब जीव में रागादिक पुनः आते हैं और इस प्रकार भावास्रव, द्रव्यास्रव, भावबंध, द्रव्यबंध की परंपरा चलती रहती है । और इस परंपरा में ये आस्रव और बंध तत्त्व आ जाते हैं । जब यह जीव अपने स्वरूप की सम्हाल करता है तो परद्रव्यों से मोह रागद्वेष इसके दूर होते हैं तब सम्वर और निर्जरा होती है । नवीन कर्म नहीं आते, पुराने कर्म झरते हैं ये दो तत्त्व प्रकट होने लगते हैं, और इन दो तत्त्वों के प्रसाद से इस जीवका, सदा के लिए कर्मों से मोक्ष हो जाता है ।
परिणमनस्वातंत्र्य का अवलोकन―इस नवतत्त्व की प्रक्रिया के होते हुए भी वस्तुत्व की दृष्टि से देखा जाय तो जीव-जीव में ही जीव का कार्य करता है, अजीव-अजीव में ही अजीव का कार्य करता है । जीव ने रागादिक किया और यहाँ कर्मों में आस्रव बंध हुआ, इतने पर भी जीव ने अपने आप में रागादिक भावों का आस्रव किया, कर्म का आस्रव बंध नहीं किया, और उन कार्माणवर्गणाओं में उनके ही प्रसाद से आस्रवत्व और बंधत्व आया, ऐसे ही यह जीव जब सम्वर और निर्जरा कर रहा है तो जीव कर्म का सम्वर नहीं कर रहा, वह तो स्वयं हो जाता है जीव के सम्वर का निमित्त पाकर । जीव तो अपने आपके भावों में अपने रागादिक भावों का सम्वरण कर रहा है और कर्म-कर्म में सम्वर कर रहा है, इसी प्रकार निर्जरा जीव में रागादिक झरने का नाम निर्जरा है, वह जीव में हो रहा है, और कर्म में कर्मत्व प्रकृति स्थिति अनुभाग हट रहे हैं यह कर्मों की निर्जरा है और जब मोक्ष हो जाता है तब भी जीव ने कर्मों को नहीं छोड़ा । कर्मों ने जीव को नहीं छोड़ा । यद्यपि दोनों छूट जाते हैं, कर्म अलग हुए, जीव अलग हुआ, परजीव ने वस्तुत्व की दृष्टि से अपने आप में समस्त विकारों को छोड़ा, यही है जीव का मोक्ष, और कार्माणवर्गणाओं में कर्मत्व परिणमन छूट गया, यही है कर्ममोक्ष ।
साधु व श्रावक की स्थिति―भैया ! निश्चय से व्यवहार से प्रमाण से जीवादिक 7 तत्त्वों के संबंध में जैसा यथार्थ ज्ञान साधु जनों का होता है वैसा ही ज्ञान गृहस्थों को होता है । श्रद्धान और ज्ञान की अपेक्षा गृहस्थ और तपस्वी समान हैं । हाँ, चारित्र में गृहस्थ के संयमासंयम है और साधुजनों के सकल चारित्र है । जब भव्य जीव इस व्यवहारमोक्षमार्ग को धारण करता है तो उस समय इस भव्य जीव की स्थिति व्यवहारनय का आश्रय करके परिणमनों की होती रहती है और परपदार्थों के प्रत्यय से जो भी परिणमन हुआ उसका प्ररूपक व्यवहारनय है अर्थात् व्यवहारनय भिन्न-भिन्न चीजों को बतलाता है ।
व्यवहाररत्नत्रय में भेदरूपता―जैसे 7 तत्त्वों का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । यहाँ 7 तत्त्व बताया, श्रद्धान करना बताया, एक भेदपरिणमन दिखाया, यह व्यवहारनय का विषय है और अंग और पूर्व का ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है, इसमें भी ज्ञाता और ज्ञानका. विषय ये भिन्न-भिन्न बताया है । यही इसमें व्यवहार अंश है, और 5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्तियों का पालन करना यह व्यवहारचारित्र है । यह भी यहाँ भेद करण कर दिया है । निश्चयसम्यग्दर्शन में भेद करण नहीं होता, विपरीत अभिप्रायरहित आत्मा की जो स्वच्छता होती है उसका नाम सम्यग्दर्शन है निश्चय से और इस ही स्वच्छ परिणमन रूप ज्ञातृत्व के रहने का नाम सम्यग्ज्ञान है और ऐसी स्थिति की स्थिरता होने का नाम सम्यक्चारित्र है ।
व्यवहार सम्यग्दर्शन का काल―व्यवहार सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ-साथ भी होता है । जैसे अंतरंग में जो एक बार सत्य प्रतीति हो गई, परमार्थ परमब्रह्म का प्रत्यय हो गया है तो वह तो हो ही चुका है । भले ही उसके अनुभव में काल का द्वैविध्य हो कि कभी अनुभव हो, कभी न भी हो, किंतु सम्यग्दर्शन का परिणाम तो सतत रहा करता है और ऐसे सतत निश्चय सम्यग्दर्शन के धारी जीव के जीवादिक तत्त्वों का भी यथार्थ श्रद्धान बना हुआ है और उस प्रकार के वार्तालाप में भी चलते हैं तो व्यवहार सम्यग्दर्शन भी । इसी प्रकार निश्चय सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ व्यवहार सम्यग्ज्ञान भी होता है और एक बार यथार्थ परम स्वरूप का बोध हो गया वह तो फिर हो ही गया । अब उसकी योग्यता मिटती नहीं है । पर प्रयोजनवश व्यवहारिक तत्वों का भी वह ज्ञान करता है । भला जिसको यथार्थतया सम्यक्त्व हो गया वह अविरत अवस्था में या संयमासंयम अवस्था में जब पंचेंद्रिय के विषय में भी वह प्रवर्तन कर लेता है वहाँ भी उपयोग चला जाता है तिस पर भी निश्चय सम्यग्दर्शन है तो व्यवहार सम्यग्ज्ञान के काल में अन्य-अन्य तत्त्वों का ज्ञान करते हुए वह निश्चय ज्योति बनी हो तो इसमें क्या विरोध है? ऐसे ही अंतरंग में स्वरूपाचरण नाम का निश्चय सम्यक्चारित्र, जितने अंशों में इसके चारित्र संबंधी स्वच्छता जगी हो चल रहा है । फिर भी व्यवहार से महाव्रत समितिरूप इसका प्रवर्तन होता है । यों निश्चयरत्नत्रय के साथ ही किन्हीं-किन्हीं जीवों के यह व्यवहाररत्नत्रय पाया जाता है, किंतु जिसके निश्चयरत्नत्रय तो नहीं है, किंतु व्यवहाररत्नत्रय का पालन है, यद्यपि वह परमार्थत: मोक्षमार्गी नहीं है, तिस पर भी जैसा व्यवहाररत्नत्रय ज्ञानी जीव के होता है वैसा ही होने के कारण और उस रत्नत्रय में रहने के अनंतर यह निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति का पात्र हो सकता है, इस कारण वह भी व्यवहार रत्नत्रय है ।
रत्नत्रय में व्यवहाररूपता―मोक्षमार्ग, तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को कहा है । अब उनमें भिन्न साध्य साधन भाव की पद्धति लगे तो वह व्यवहारमोक्षमार्ग है और अभेद पद्धति से रत्नत्रय रहे तो वह निश्चयमोक्षमार्ग है । ये धर्मादिक पदार्थ जिसके द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व आदिक विकल्प होते हैं, भाव हैं, ऐसा उनका यथार्थ श्रद्धान स्वभाव यथार्थ भाव का श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है और तत्वार्थ का यथार्थ श्रद्धान होने पर जो श्रुत अंग पूर्वों का ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है, और तपस्या में जो उन यतियों की प्रवृत्ति है वह उनकी चर्या है । इस व्यवहाररत्नत्रय के पालन में स्वयं की योग्यता का भी परिणमन और विकास चलता रहता है और 7 तत्व अंगपूर्व महाव्रत आदिक इन परतत्त्वों का भी अर्थात् इन भेदभावों का भी वहाँ प्रत्यय चल रहा है, इस कारण यह व्यवहारमोक्षमार्ग है । जैसे स्वर्णपाषाण में लगी हुई अग्नि पाषाण को और सोने को भिन्न-भिन्न कर देती है इसी प्रकार जीव और पुद्गल की एकता को भिन्न-भिन्न करने वाला यह व्यवहारमोक्षमार्ग है । इस तरह भी कारणता समझिये और इस कारणता से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जैसे स्वर्णपाषाण में से पाषाणत्व का ढेर इकट्ठा होने पर स्वर्णत्व की प्राप्ति होती है ऐसे ही व्यवहाररत्नत्रय में से व्यवहारत्व के होने पर एक शुद्ध अभेद रत्नत्रय प्रकट होता हे ।
रत्नत्रयविशुद्धि―जो जीव सम्यग्दर्शन आदिक से अंतरंग में सावधान है उस जीव के सब जगह ऊपर-ऊपर की भूमिकाओं में अर्थात् शुद्ध गुणस्थान में शुद्ध स्वरूप की वृद्धि होती है और अभिन्न विश्राम उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व होने पर चतुर्थ गुणस्थान में इस जीव को स्वविश्राम नहीं मिल पाता है । उससे अधिक पंचम गुणस्थान में स्वविश्राम का अवकाश रहता है और छठे, 7वें, 8वें, 9वें में शुद्ध भूमिकाओं में स्वरूप का विश्राम स्थिर हो जाता है । उन गुणस्थानों में स्थिरता को बनाये वह भी व्यवहारमोक्षमार्ग है । निश्चयमोक्षमार्ग तो उत्कृष्ट रूप में परमार्थ से एक स्वरूप है जो वीतराग होने पर प्रकट होता है । उससे पहिले व्यवहारमोक्षमार्ग और निश्चयमोक्षमार्ग में कुछ ऐसी भी दृष्टि जमती है कि जिस वृत्ति को अभी निश्चयमोक्षमार्ग कहा जा रहा है उससे अधिक अभेद और स्थिरता होने पर भी पूर्वकाल का स्थितिकरण का उद्योग व्यवहारमोक्षमार्ग कहने लगता है ।
भिन्नसाध्यसाधनभाव में व्यवहाररूपता―मोक्ष पद्धति का भेदरूप विस्तार बहुत है और गहन है, किंतु जिसने एकस्वरूप के अवगम की कला प्राप्त की है उस कलावान सम्यग्ज्ञानी पुरुष को यह सब कुछ भी गहन नहीं है । वह सब स्थितियों में यथार्थस्वरूप का परिचय करनेवाला रहता है । यों भिन्न साध्य-साधन भाव का जब तक प्रवर्तन है तब तक व्यवहारमोक्षमार्ग है और यह व्यवहारमोक्षमार्ग साध्य-साधन भाव का अभाव करने के सम्मुख होता है तो स्वयं सिद्ध स्वभाव से यह जीव परिणमता है वह निश्चयमोक्षमार्ग है । यों निश्चयमोक्षमार्ग का जो साधनभूत है उस व्यवहारमोक्षमार्ग का वर्णन किया ।