वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 165
From जैनकोष
अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगजुदो ।
हवदित्ति हुक्खमोक्खं परसमपरदो हवदि जीवो ।।165।।
सूक्ष्मपरसमयपने का आख्यान―जैसे लोग कहते हैं कि अपने ही घर में बैठा हुआ गुप्त दुश्मन अधिक खतरनाक होता है । यद्यपि प्रकटरूप से आपत्ति उपसर्गों का आना व्यक्त दुश्मनों की ओर से होता है । घर में छुपे हुए दुश्मन से कोई बिगाड़ सामने नजर नहीं आता, लेकिन वह भी जड़ काटने वाला दुश्मन है । ऐसे ही मिथ्यात्व विषयकषाय हिंसा आदिक पाप ये सब व्यक्त दुश्मन हैं और इनसे जीव का बिगाड़ है, जीव की अवनति है, ये प्रकट जाहिर हैं, किंतु इन व्यक्त दुश्मनों को दूर कर देने पर भी अंतरंग में कोई बैरी बसा हुआ होता है जो बड़ा सुहावना लगता है और यह बैरी है, इस प्रकार का कि उस पर संदेह भी नहीं होता । उस आत्म बैरी की चर्चा इस गाथा में की गई है अर्थात् सूक्ष्मता से परसमयपन में क्या होता है उसका इसमें वर्णन किया गया है । ज्ञानी पुरुष अर्थात् सराग सम्यग्दृष्टि जीव अथवा व्यवहार सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् अज्ञानभाव से कोई सूक्ष्म विवेक न होने से ऐसा मानते कि शुद्ध जो अरहंत आदिक पदार्थ हैं, उनके लगाव से, उनके लगने से, शुभोपयोग से दुःखों से छुटकारा होता है, ऐसा गाथा समझ ले तो उस जीव को परसमय में अनुरक्त हुआ समझिये ।
प्रभुभक्ति में उपकार व रागलेश का बंध―अरहंत आदिक भगवान ये सिद्धि के साधनीभूत हैं । जैसे कहते हैं ना कि जो यह जिनवाणी न होती तो हम मोक्षमार्ग में कैसे लगते? तो किस भांति पदारथ हांति कहाँ लहते रहते अविचारी । तो इसमें कुछ संदेह नहीं है कि अरहंत भगवान हम सब भव्य जीवों की सिद्धि के साधनभूत हैं, उनका बहुत उपकार है । यहाँ हम आप संसारी जीव किसी की सहायता से कुछ अपनी आजीविका का साधन बना लेते हैं तो उसका बहुत बड़ा आभार मानते हैं जो कि सब मोह की निद्रा के स्वप्न हैं, फिर उनके उपकार का कौन वर्णन कर सकता है जिनकी दिव्यध्वनि की परंपरा से चला आया हुआ यह समस्त उपदेश है जो अंतरंग के मिथ्या भ्रम को दूर करके एक सम्यग्ज्ञान का प्रकाश करा देता है, उसके उपकार का ऋण कौन चुका सकता है? जीव के सुख दुःख आनंद का संबंध तो ज्ञान की पद्धति से है, बाहरी चीजों से नहीं है । जिस ज्ञानपद्धति से आनंद प्राप्त हो सके वह ज्ञानपद्धति जिसकी कृपा से बन जाय उसके उपकार का ऋण: कौन चुका सकता है? भगवंत अरहंत परम उपकारी पुराण पुरुष हैं, उन अरहंत परमेष्ठियों की भक्ति के फल से अनुरंजित अर्थात् धर्मानुराग करते हुए जो चित्तवृत्ति है उसका नाम है शुद्ध संप्रयोग । शुद्ध पावन चैतन्य द्रव्य में उपयोग का जो भली प्रकार प्रयोग है वह है शुद्ध संप्रयोग । ठीक है, उसे जान ले, शुद्ध का उपयोग करें, शुभोपयोग करें, पर अज्ञान का लेशमात्र होने से ज्ञानवान होकर भी यदि कोई ऐसा मान बैठे कि इस शुद्ध संप्रयोग से मोक्ष होता है तो इस अभिप्राय से उसे विधी बंध होता है व खेद पहुंचता है ।
वस्तुस्वातंत्र्य के प्रतिकूल विचार में खेद―विकल्प करना और विकल्पों से अनुरंजित होना, यह तत्काल खेद को उत्पन्न करने वाली वृत्ति है । शुभोपयोग से मोक्ष होता है―इस प्रकार की श्रद्धा, इस प्रकार के विकल्प से ही उसे अविदित खेद पहुंच रहा है । जो बात जहाँ यथार्थ नहीं है, जो बात जहाँ फिट नहीं बैठती है उसको वहाँ जोड़ने के समय खेद तो होता है । आप किसी मशीन में कोई पेंच पुर्जा लगायें, मान लो एक ढिबरी ही लग रहे हैं और वह किसी दूसरी कीली पर लगाया है, फिट नहीं बैठती है तो चित्त दुःखी हो जाता हैं खिन्न हो जाता है । देखो है मामूली-सी बात, पर उसमें ही आप खेदखिन्न हो जाते हैं, और जब वह ढिबरी ठीक फिट हो जाती है तो वहाँ आप खुश होते हैं । ऐसे ही कोई आशय बने भीतर में जो आशय वस्तुस्वरूप के विरुद्ध हो उस आशय के करने मात्र में ही खेद उत्पन्न होता है, और फिर उससे जो काम बिगड़ेगा उसका खेद होगा वह अलग बात है, पर तत्काल ही एक विरुद्ध आशय होने पर खेद होता है यह तो उसी समय का उसका ही काम है । तो जब यह जीव ज्ञानवान होकर भी इस शुभ राग से मोक्ष होता है इस अभिप्राय से खेद करता है उस शुभ राग में प्रवृत्ति करता है तब तक वह भी राग का सद्भाव होने से परममयरत कहा गया है ।
विरोधी से सावधानी―जैसे कोई पुरुष बहुत से दुश्मनों में घिर जाय तो वह बुद्धिमान पुरुष क्या करता है? उनमें फूट डाल देता है । इससे बहुत से दुश्मनों से वह रक्षा कर लेता है और जिनमें रह जाता है उनके संबंध में भी जानता वह सब है कि इससे भी हमें छूटना है, यह भी मेरा बैरी है । जैसे पहिले समय में कुछ ऐसी घटनाएँ हुई हैं यहाँ भारत में कि अँग्रेज़ों के राज्य में कोई इन्हीं भारतीयों में एक दूसरे को आपस में मार दे या बरबाद कर दे, ऐसा करने वालों के लिए प्रलोभन दिया, इनाम देने के लिए बोल दिया । पर जब उन्हें मार दिया, बरबाद कर दिया और इनाम लेने अथवा सम्मान लेने गए तो यह उत्तर दिया गया कि तुम्हारा क्या विश्वास? जब तुम अपने भारतीयों के भी होकर नहीं रहे तो तुम हमारे होकर कहाँ रहोगे? यों ही समझिये कि यह ज्ञानी चतुर जीव भी सर्वप्रकार के सूक्ष्म रागों से भी सावधान रहता है, सूक्ष्म राग में वह भक्ति करता है, परोपकार करता है । सब कुछ कर के भी जानता यह है कि राग का लेशमात्र भी हमारे लिए अहितकर है ।
सूक्ष्म परसमयता से भी निवृत्ति की दृष्टि―देखो भैया ! ऐसा भी पुरुष जो प्रभु की भक्ति करके यह मानता हो कि हमारा तो मोक्ष निश्चित हो गया, हम रोज प्रभुभक्ति करते हैं, रोज पूजा करते हैं, उस जीव का जो परद्रव्यों के प्रति आकर्षण है राग है उस राग के सद्भाव से उसे परसमयरत कहा गया है । भला बतलावो जब ऐसा ज्ञानी निर्मल परोपकारी उदार, जो विषयों में भी आसक्त नहीं है, जिसे परिग्रह का भी कोई ममत्व नहीं है ऐसा यह पुरुष प्रभु की इतनी विशेष भक्ति करके भी इतनी सी बात के कारण यह परसमयरत बन गया तो जो लोग निरंकुश स्वच्छंद राग की कालिमा से कलंकित चित्त वाले हैं उन जीवों के लिए तो क्या कहा जाय? अथवा इस प्रकरण में संभले हुए को समझाया जा रहा है इसीलिए उस सूक्ष्म दोष की भी बात निकाली जा रही है ।
शुभानुराग―भगवान का यह उपदेश है कि हे भव्य जीवो ! तुम सब अपने स्वरूप को निहारो और भले ही हमारा सहारा लेकर अर्थात् हम को स्मरण करके, भक्ति करके कुछ अपनी तैयारी बना लो, ठीक है लेकिन हमारा भी ध्यान छोड़कर, हमारा भी आस्रव तजकर अपने अंतःप्रकाशमान उस शुद्ध परमब्रह्म में ही तुम लीन हो, इसमें ही तुम्हारा गुजारा है, कितना स्पष्ट उपदेश है । रागी भगवान तो यह कोशिश करता है कि तुम एक मुझ को ही शरण मानो, अन्यत्र किसी की शरण में मत जावो तो तुम्हारा उद्धार होगा । लेकिन वीतराग सर्वज्ञदेव के उपदेश में ऐसे बहकावा की और दबाव की कोई बात नहीं है । कोई पुरुष निर्विकार शुद्ध आत्मा की भावनारूप परम उपेक्षा संयम में ठहरने की इच्छा तो कर रहा है, लेकिन उस परम उपेक्षाभाव में, उस समतापरिणाम में ठहरने के लिए असमर्थ हो रहा है । तब ऐसी स्थिति में काम, क्रोध आदिक राक्षस इस पर आक्रमण कर दें ऐसी गुंजाइश है लेकिन ये ज्ञानी जीव क्या करते हैं कि उन काम क्रोधादिक अशुद्ध परिणामों से बचने के लिए और संसार की स्थिति का भी छेदन बना रहे इसके लिए पंचपरमेष्ठी में भक्ति करते हैं, उनके गुणों का स्तवन करते हैं । जब यह शुभोपयोग किया जा रहा है तब उस समय तो वे सूक्ष्मकषायों से परिणत हैं ना, अत: वहीं भी शुभानुराग का बंध है ।
कषायपंक्ति―इंद्रिय के विषयों में लगे वह तो तीव्र कषाय है, लेकिन भगवद्भक्ति, यह भी अकषाय अवस्था में नहीं होती । सूक्ष्म कषाय है, शुभ राग है उसमें यह अवस्था हो रही है, ऐसा सूक्ष्म परसमय में परिणत होता हुआ यह सराग सम्यग्दृष्टि जीव है, वही सम्यग्दृष्टि जीव जो शुद्ध आत्मा की भावना में तब भी समर्थ तो था, पर कषायों के वेग में कर नहीं रहा था, अब वह उस सूक्ष्म भी कषाय परिणति को त्यागकर निवृत्त होता है, सूक्ष्म राग से भी निवृत्त होकर वह स्वसमय बनता है, लेकिन शुद्ध आत्मा की भावना को त्यागकर शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है, ऐसा वह बन जाय, हठ कर जाय तो वह स्थूल परसमय से परिणत हो जाता है । तब अज्ञान से यह जीव नष्ट हो जाता है, बरबाद हो जाता है ।
रक्षक ज्ञान―इस जीव को बचाने वाला, रक्षा करने वाला एक ज्ञान है और ज्ञानों में ज्ञान वही है जो ज्ञान अपने ज्ञान के स्वरूप को जानता रहे और यह प्रतीति में लेता रहे कि मैं तो यह ज्ञानमात्र हूं । जिन असमानजातीय द्रव्यपर्यायों से इन मायामयी मनुष्यों को रिझाने के लिए हम अपने स्वरूप से चिगकर नाना विभाव परिणमनों में आते है―न तो ये लोग कोई साथ देंगे और न कोई यहाँ की परिणति साथ देगी । ये सब संसार में रुलाने के कारण हैं ।कुछ क्षण तो हम इस परमपुरुषार्थ को अपनाएँ कि सर्व परद्रव्यों से, परभावों से परम उपेक्षा करके शाश्वत निज चैतन्यस्वभाव में अपनी दृष्टि करें, यही है कल्याण का साधन । इस गाथा में सूक्ष्म परसमय का स्वरूप बनाकर इस ज्ञानी जीव को उस सूक्ष्म कषाय से राग से भी दूर होने का उपदेश किया है ।