वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 45
From जैनकोष
अविभत्तमणण्णत्तं दव्वगुणाणं विभत्तमण्णत्तं ।
णिच्छंति णिच्चयण्हू तव्विरीदं हि वा तेसिं ।।45।।
गुणगुणी की अविभक्तप्रदेशिता―द्रव्य और गुणों का जो अनन्यभाव है, ज्ञान है, सो ही आत्मा है । आत्मा है सो ही ज्ञान है । आत्मा ज्ञानमय है, ज्ञानस्वरूप है, इस रूप से जो अनन्यता ज्ञात होती है वह अविभक्तता है । पदार्थ तो भिन्न तब कहलाता है जब कि प्रदेश न्यारे-न्यारे हों । वह अपनी बा᳴डी में हो, वह अपनी बा᳴डी में हो, तब तो वे दो पदार्थ कहलाते हैं । पर यहाँ तो अग्नि का और द्रव्य का एक ही प्रदेश है । समझाने के लिए गुणगुणी का भेद किया जाता है । यहाँ तो जो है सो है । तो ऐसी अनन्यता को ही अविभक्तपना कहते हैं । इस अविभक्तपने में यह बात बनी हुई है कि कदाचित् द्रव्य की सिद्धि न हो, गुण का नाश हो तो गुण का भी अभाव होगा । द्रव्य का नाश हो तो द्रव्य का भी अभाव होगा । जैसे एक परमाणु एकप्रदेशी है, क्या वह परमाणु अपने प्रदेश से विभक्त है? एक प्रदेश में जैसे वह परमाणु द्रव्य रह रहे हैं ऐसे ही रूप, रस, गंध, स्पर्श ये सब शक्तियाँ रहती हैं, पृथक् नहीं हैं, ऐसी ही समस्त द्रव्यों की बात है । जिस-जिस द्रव्य के जो-जो गुण हैं वे उस द्रव्य से पृथक् नहीं हैं ।
गुणगुणी में लक्षणभेद होने पर भी प्रदेशों का अभेद―द्रव्य और गुण में लक्षण का तो भेद है, पर प्रदेश का भेद नहीं है । लक्षण के यों भेद हैं । गुण उसे कहते हैं जो एक अंशरूप हो, द्रव्य उसे कहते हैं जो गुणों का पिंड एक अंशी हो । यों लक्षण में तो भेद आता है, पर प्रदेश में भेद नहीं आता । जैसे आम में रंग, स्वाद, गंध, स्पर्श ये चार जाति मालूम होती हैं ना, स्पर्श का ही तो नाम रस नहीं, स्वाद का ही तो नाम रंग नहीं । रंग चीज अलग है, स्वाद चीज अलग है, पर क्या प्रदेशभेद भी है? रंग किसी प्रदेश में हो, स्वाद किसी प्रदेश में हो, प्रदेश एक है, पर लक्षणभेद में उनमें भेद पड़ा हुआ है । यों तो जीव के गुणों-गुणों में परस्पर व्यतिरिक्तता जानना । आम का प्रदेश, रूप आदिक का प्रदेश वह सब एक ही है । ऐसे ही आत्मा का और ज्ञान का प्रदेश एक ही है, केवल लक्षणभेद है । आत्मा गुणी है और ज्ञान गुण है । यों गुणी गुण की व्यतिरिक्तता का जानना । किसी भी एक वस्तु में 50 बातें हम जानना चाहते हैं तो प्रदेश तो वही है और उन 50 बातों में फर्क जरूर है । एक मोटा दृष्टांत लो―यह एक चौकी हैं, इस चौकी में लंबाई है ना? चौड़ाई भी है, रंग भी है, तो लंबाई जिस जगह है रंग उस जगह नहीं होता । चौड़ाई जहाँ है वहाँ रंग न हो, दूसरी जगह हो, क्या ऐसा है? नहीं है । चीज वह एक है और उस एक चीज के संबंध में हम जितनी बात समझेंगे उन सबका आधार वही प्रदेश है । यों ज्ञानी और ज्ञान में भेद न डालना।
ज्ञानी और ज्ञान में अव्यतिरिक्तता के अवगम का लाभ―ये सब बातें जोर देकर क्यों कही जा रही हैं? इसलिए कि हम यह श्रद्धान बनायें कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । अन्य बातें तो जानें, पर अन्य बातों पर लक्ष्य न बनायें । लक्ष्य बनाये असाधारण स्वरूप पर । मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ । जो जानन है, ज्ञानप्रकाश है तन्मात्र हूँ । ऐसा ज्ञानप्रकाशमात्र कोई अपने को जाने तो वह ज्ञान की अनुभूति कर लेगा । और ज्ञानानुभूति को ही आत्मानुभूति कहा है । आत्मा में अनेक गुण हैं, आत्मा असंख्यातप्रदेशी है । यह आत्मा पैरों से लेकर सिर तक फैला हुआ है, इतनी लंबी-चौड़ी जगह में आत्मा फैल रहा है, ये बातें तो आत्मानुभूति के निकट नहीं करने वाली हैं, इन बातों से आत्मानुभूति नहीं हो रही है । अच्छा और-और बातें विचारो, आत्मा आकाश की तरह अमूर्त है, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित है । यों दृष्टि में लेने से भी आत्मा की अनुभूति नहीं हो पाती । आत्मा की और-और बातें सोच लीजिए । आत्मानुभूति के निकट ला सकने वाली कोई दृष्टि है तो वह ज्ञानदृष्टि है ।
मौलिक कल्याणमयी चिंतन―अब कुछ ऐसा भी सोचने लगिये―मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञानप्रकाशमय हूँ । ज्ञान क्या? जानन । जानन क्या? यह प्रतिभास । यों चिंतन करते-करते जानन ज्ञान में आ जाय, स्वरूप की झांकी आ जाय तो ज्ञान की तो अनुभूति हुई ना? उस ज्ञान की अनुभूति के ही साथ निर्विकल्प दशा होती है । कारण यह है कि अब इस प्रसंग में जानने वाला भी ज्ञान है और जिसे जान रहा है वह भी ज्ञान है । तो जब ज्ञान और ज्ञेय अभेद हो गया वहाँ निर्विकल्पता आती ही है, विकल्प क्या करेगा? जानन में दूसरा आये, जानने वाला दूसरा हो तो वहाँ विकल्प रहता है । जब निर्विकल्प स्थिति हो जाती है तो ऐसी स्थिति का अनुभव आत्मानुभव कहलाता है । यह कल्याण की बात, आत्मानुभूति की बात एक अपने सहज ज्ञानस्वभाव के अनुभव में बसी हुई है । सर्वोत्कृष्ट आनंद पाने का उपाय हम आप सबमें सहज बसा हुआ है ।
बाह्यदृष्टि में अनर्थलाभ―यह बाह्य पदार्थों का संयोग, बाह्य पदार्थों का लक्षण, बाह्यपदार्थों का प्रेम, परिजन कुटुंब आदिक को प्रसन्न बनाये रखने का यत्न―ये सब बड़े कठिन हैं । ज्यों-ज्यों नम्र बनो, ज्यों-ज्यों परिजनों की ओर झुको, ज्यों-ज्यों उनसे प्रेम करो, ज्यों-ज्यों अपना सर्वस्व उन्हें सौंपने की बात सुनावो त्यों-त्यों उनके और मान चढ़ता है, और अपने आप में वे ऐसा महत्त्व आंकने लगते हैं कि कुछ ही समय बाद उनकी ऐसी चेष्टाएँ होने लगती हैं कि वे व्यापक चेष्टावों को प्रतिकूल मानने लगेंगे। तब फिर क्या करें आप ? यह तो ज्ञानी पुरुषों के सोचने की बात है ।
अज्ञानियों का स्पष्ट निर्णय―अज्ञानियों का तो स्पष्ट निर्णय है कि घर वाले कैसे भी रक्खें, वे रहने के लिए तैयार हैं । जैसे कोई एक बाबाजी को उसके नाती-पोते बहुत परेशान करते थे । कहीं मूंछ पटाये, कहीं सिर पर चढ़े । वह बूढ़ा कभी-कभी रोने भी लगे । एक बार उधर से निकला कोई संन्यासी, पूछा―बाबाजी ! तुम क्यों रोते हो? तो उस बूढ़े बाबा ने सारी बात बतायी कि ये हमारे नाती-पोते हमें बहुत तंग करते हैं―कभी सिर पर चढ़ते हैं, कभी मूंछ पटाते हैं । तो संन्यासी ने कहा―अच्छा हम तुम्हारा संकट मिटा दें? तो वह बूढ़ा बोला, हाँ महाराज हमारे संकट मिटा दो । उसने सोचा कि संन्यासी जी कोई ऐसा मंत्र फूंक देंगे कि ये नाती-पोते फिर हमारे आगे हाथ जोड़े खड़े रहा करेंगे । तो जब कहा कि हमारे संकट मिटा दो तो संन्यासी बोला―अच्छा घर छोड़कर हमारे साथ चल दो, तुम्हारे सारे संकट मिट जायेंगे । उस बूढ़े ने कहा―अरे ! तुम कौन हमें बहकाने आये, हम तुम्हारे संग नहीं जायेंगे । अरे ये चाहे कितने ही मारे, पीटें, ये मेरे नाती-पोते ही रहेंगे और हम उनके बाबा ही रहेंगे । तो अज्ञानियों का तो स्पष्ट ही निर्णय है । निर्णय तो ज्ञानियों को करना है कि हमें क्या करना है?
ज्ञानी गृहस्थों की चर्या―गृहस्थजन परिजनों के बीच रहते हैं, उन्हें सब प्रकार के व्यावहारिक कार्य करने पड़ते हैं, करें, पर व्यावहारिक रागव्यवहार कार्य करके जो भी बाधाएँ आ सकती हैं, उन बाधावों से दूर होकर अपने काम में तो लग जाये-यही करने का काम है । धन, वैभव, परिजन, इनको ही सर्वस्व मानने का मोहांधकार यह दुःखी ही करेगा, बरबाद ही करेगा । कोई इसमें सार नहीं है, लेकिन परिस्थिति गृहस्थी की है, वहाँ अनेक बातें करनी पड़ती हैं, कर लीजिए, किंतु जो यथार्थ बोध की बात है उससे विमुख मत होइये । यह सब साहस सम्यग्ज्ञान होने पर ही तो हुआ करता है ।
ज्ञानबल का महत्त्व ―देखिये भैया ! महत्त्व ज्ञान का ही है । एक भैंसा जो कि 60-70 मन बोझ ढोता है, वह कितना ताकतवर होता है? पर एक 8,9 वर्ष का लड़का उसे जहाँ चाहे ले जाता है । यह क्या बात है? अरे उस लड़के में ज्ञान है, विवेक है और उस भैंसे में उतना ज्ञानबल नहीं है, इस कारण वह भैंसा उस छोटे से लड़के के वश में रहता है । तो बुद्धिबल की, ज्ञानबल की महिमा अद्भुत है । अपना ज्ञानबल बढ़ावो तो यह साहस भी बढ़ेगा । आध्यात्मिक जीवन अध्यात्म ज्ञान बिना नहीं बन सकता ।
आत्मा की ज्ञानमयता―इस अंतराधिकार में यह चर्चा चल रही है कि यह मैं आत्मा ज्ञानस्वरूप हूँ । यह जल और दूध की तरह भी एक जगह बसा हुआ नहीं है । वहाँ भी प्रदेशभेद है । जल की अत्यंत छोटी बूंद जो आप हाथ से भी नहीं कर सकते, सीक डालकर भी नहीं कर सकते, जिस बूंद को आप सुई से गिराये उसमें भी अनगिनती और बूंदें हैं । ऐसे ही दो-दो एक-एक बूँदें दो-दो एक-एक दूध की बूँद के आसपास बसी हुई हैं । दूध में पानी नहीं है, पानी में दूध नहीं है, पर उनका इतना घनिष्ट मिलाप है, संपर्क है कि हम आपकी समझमें नहीं आ पाता । तो जैसे दूध और पानी भिन्नप्रदेशी हैं उतने भी भिन्न प्रदेश में आत्मा और ज्ञान नहीं हैं । ये एक रूप हैं । भगवान के स्वरूप की भक्ति की बात भी हमारे उपयोग में तब ही होती है जब हम अपने उपयोग को ‘केवल ज्ञानमात्र हूं’ इस प्रकार अनुभव करें । वह ज्ञानमात्र प्रभु स्वयं में है ना, और उस ही रूप से हम प्रभु में निरखें तो यह समानता हो जाने के कारण प्रभुभक्ति बनती है ।
ज्ञानी और ज्ञान में व्यवहार में कथंचित् भेद व निश्चय अभेद―इस आत्मा और ज्ञान में केवल पहिचानने के लिए भेद है, वैसे भेद नहीं है कि आत्मा कुछ न्यारी जगह की बात हो और ज्ञान कुछ न्यारी जगह की बात हो । अपने आपको मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, जाननरूप हूँ, जानन प्रकाशमात्र हूँ, ऐसा प्रतीत करके इस प्रकार की भावना में रत हो जाइये । अन्य बातों को छोड़ दो । तो अन्य विकल्प दूर कर लेने से और एक ज्ञानमात्र अपने आपकी धुन बना लेने से ऐसी निर्विकल्पता आयगी कि बस उस ज्ञानमात्र होने की स्थिति में ही, अनुभव में ही विशुद्ध आनंद जगेगा, इससे ही कर्मक्लेश कटेंगे ।
विशुद्ध आनंद की कर्मक्लेशसंहारकता―कर्मक्लेश कटेंगे, तो इस विशुद्ध आनंद के द्वारा ही कर्म कटेंगे । तपस्या की वेदनाओं से कर्म न कटेंगे । तपस्या तो विषयकषायों के परिणामों को रोकने में एक सहायक उपाय है । जैसे दो बच्चों में लड़ाई हो जाय, तीसरा कोई मित्र है तो वह दूसरे बच्चे को मारेगा तो नहीं, किंतु उसका कुछ हाथ पकड़ लेगा, उसको रुद्ध कर देगा और वह मार देगा, उसे अवसर मिल गया । ऐसे ही यह तपस्या विषयकषायों को रुद्ध कर देती है, रोक देती है, फिर इस ज्ञान को मौका मिलता है । वह अपने आपके स्वरूप में प्रवेश कर जाता है । यों यही निर्णय रखिये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ । इस ज्ञानस्वरूप की भावना बनायें, इस ही रूप अपनी प्रतीति रक्खें, इस ही रूप अपना आचरण बनायें, इसको ही सार समझे, इससे ही अपने भाव उज्ज्वल होंगे और निकट भविष्य में ही अवश्य शांति पा लेंगे ।