वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 76
From जैनकोष
वादरसुहुमगदाणं खंधाणं पुग्गलोत्ति ववहारो ।
ते होंति छप्पयारा तेलोक्कं जेहिं णिप्पण्णं ।।76।।
स्कंध में पुद्गलत्व का व्यवहार―वादर और सूक्ष्म इन दो प्रकारों में और प्रभेदों में प्राप्त हुए स्कंधों को ये पुद्गल हैं, ऐसा व्यवहार किया जाता है । स्कंधों में पुद्गल का व्यपदेश व्यवहार से है । जिन स्कंधों के द्वारा ये समस्त तीनों लोक निष्पन्न हुए हैं ये स्कंध 6 प्रकार के हैं । इस गाथा में यह बताया है कि पुद्गल के जो दो प्रकार किए गए हैं―परमाणु और स्कंध, उनमें परमाणु तो सही सीधा पुद्गल द्रव्य है, किंतु स्कंध जो परमाणुवों में मेल से बनता है उसमें पुद्गलपना व्यवहार से कहा गया है ।
परमाणु में पुद्गलत्व―पुद्गल का अर्थ है पूरण और गलन स्वभाव वाला । पुद्गल का अर्थ पूरण है और गलन का अर्थ गलन है । परमाणु में पाये जाने वाले स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुणों के द्वारा उनमें ही जो वृद्धि-हानि चलती हैं उन वृद्धि-हानियों से पूरण और गलन होता रहता है और उनमें स्कंध की व्यक्तियों का आविर्भाव होता है तथा स्कंध की व्यक्तियों का तिरोभाव होता है । इस कारण उनमें भी पूरण गलन होता है । यों परमाणु पुद्गल कहलाते हैं ।यहाँ एक विशेष बात यह दिखायी है कि पुद्गल का तो अर्थ पूरण और गल का अर्थ गलन है, और पूरण गलन स्कंधों में संभव है । मिल गए तो पूरण हो गया और बिखर गए तो गलन हो गया । प्रत्येक पुद्गल में पूरण गलन होता है ।
परमाणु में पूरण गलन―यही यह बतलाते हैं कि मूल में वास्तविक पूरण गलन तो पुद्गल में होता । कैसे? पुद्गल-पुद्गल न्यारे-न्यारे हैं, उनका मिलान हो गया, पूरण हो गया अथवा उनका बिछुड़ना हो गया, एक-एक परमाणु रह गये, गलन हो गया । तो इस प्रकार से स्कंध बनने की शक्ति का आविर्भाव होता है और स्कंध की व्यक्ति का तिरोभाव होता है । इस कारण पुद्गल में पूरण और गलन बन गया । एक तो दृष्टि यह है और दूसरी दृष्टि यह बतायी है कि पुद्गल में एक-एक परमाणुवों में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण गुण हैं, परमाणु में 4 में से कोई दो का स्पर्श रहा करता है एक साथ । स्निग्ध रूक्ष शीत उष्ण में इन चार में दो रहा करते हैं―स्निग्ध रूक्ष में एक और शीत उष्ण में एक । परमाणु में हल्का भारी कोमल कठोर ये नहीं हैं, ये स्कंधों में ही समाये हैं । और 5 प्रकार के रसों में से एक रस खट्टा, मीठा, कडुवा, तीखा, कषैला इनमें से कोई एक―यों तीन गुण हुए, तीन पर्यायें हुईं । गंध में से एक गंध, वर्ण में एक वर्ण, इस तरह परमाणु में एक साथ 5 गुण पर्यायें होती हैं तो उन पर्यायों में वृद्धि-हानि निरंतर चलती रहती है, उसको षट्स्थानपतित वृद्धि-हानि कहते हैं । इनसे उसमें पूरणगलन विदित कर लिया जाता है ।
पदार्थ के गुणपरिणमनों में प्रतिसमय हानि-वृद्धि―किसी भी चीज में वृद्धि हमें मालूम पड़ी तब जाना कि वृद्धि हुई है, पर मालूम करने से पहिले जो विदित भी न हो सके उस सीमा में तो वृद्धि है । जैसे कोई बालक 7 वर्ष का है, और बढ़कर जब 8 वर्ष का हो जाये तो एक वर्ष बाद मालूम पड़ता है कि यह 4 अंगुल बढ़ गया है, पर उसकी वृद्धि रोज-रोज हो रही है, घंटे-घंटे में हो रही है, मिनट-मिनट में हो रही है, प्रति सेकेंड हो रही है, और चलो तो समय-समय पर हो रही है । यदि प्रति समय उसकी वृद्धि न होती तो एक वर्ष बाद भी वृद्धि नहीं हो सकती । ऐसे ही उसके साथ हानि भी चल रही है । तो यों वृद्धि और हानि इन गुणों में निरंतर चलती रहती है । उन गुण विशेषों से कभी उनमें पूरण होता है, कभी गलन होता है ।
पूरण गलन का प्रायोगिक आधार―यहाँ एक शंका रक्खी जा सकती है कि ऐसा पूरण गलन तो सभी पदार्थों में है । जीव में ज्ञानादिक जितने गुण हैं उन गुणों में भी वृद्धि-हानि प्रतिसमय चलती है । ज्ञान बढ़े, ज्ञान घटे, इस बढ़ाव-घटाव में और रूप में डिग्री बढ़ा दिया, घटा दिया, इसी प्रकार इस मूर्तिक गुण की वृद्धि-हानि होती रहती है । मूर्त की वृद्धि-हानि में जो अंतर है वह अंतर पुद्गल की ओर तो पूरण गलन के लिए झुकता है, किंतु जीव में पूरण गलन का परिणमन नहीं होता है । तो यों पूरण गलन स्वभाव होने से पुद्गल परमाणु वास्तव में पुद्गल हैं, किंतु स्कंध अनेक पुद्गल के मिलकर एक पर्याय होने से पुद्गल से अभिन्न ही तो है, परमाणुवों से जुदा भी नहीं है, वह स्कंध दशा इस कारण स्कंध पुद्गल कहलाता है और वह व्यवहारनय से पुद्गल कहलाता है ।
पुद्गलत्व का निर्णय व व्यवहार―जैसे शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन इसका शुद्ध प्राण है―ज्ञान दर्शन चैतन्यप्राण करके यह जीव जीवित है, इसलिए जीव वास्तव में चैतन्यभाव से रखने के कारण जीव है, और इस दृष्टि से तो जो सिद्ध भगवान हैं वे ही जीव कहलाते हैं व्यक्त रूप से, क्योंकि वे निर्लेप और शुद्ध प्राणोंकर जीवित रहते हैं । किंतु व्यवहार से फिर आयु आदिक जो अशुद्ध प्राण हैं, दश प्राण हैं उन 10 प्राणों से जो जीवित होते हुए रहते हैं वे जीव हैं और फिर गुणस्थान मार्गणा आदिक अनेक विस्तार हो जाते हैं तो उसमें जीवत्व व्यवहार से कहियेगा और सिद्ध में जीवत्व निश्चय से कहियेगा । लोकव्यवहार से हम जिन पर्यायों को, संसारी जीवों को जीव कह रहे हैं उनमें भी स्वभावत: वे शुद्ध चैतन्यप्राण रहते हैं । ऐसे ही व्यवहार से हम पुद्गल कहते हैं स्कंध को । स्कंध स्थिति में परमाणुवों का सत्त्व परमाणुवों का निजस्वरूप फिर भी एक शुद्ध स्थिति के कारण वस्तुत: है, फिर भी इस अशुद्ध स्थिति में एक प्रकट मिलान को व्यवहार में स्कंध पुद्गल कहा जाता है ।
पुद्गलों के अवगम का प्रयोजन भेदविज्ञान―पुद्गलादिक पदार्थों संबंधी ये सब बातें भेदविज्ञान के काम में आती हैं । इन सबको जानकर यदि भेदविज्ञान का लक्ष्य नहीं चलता है तो हम इतना ज्ञान कर के भी न ज्ञान करने की तरह रहे, क्योंकि ज्ञान का प्रयोजन है आनंद ।जिसको शुद्ध आत्मीय आनंद प्रकट हो ऐसी जानन परिणति को वास्तव में ज्ञान कहते हैं । ये पुद्गल, ये सूक्ष्म, ये वादर अनेक प्रकार के स्कंधों से यह मैं आत्मा भिन्न हूँ और केवल अमूर्तज्ञानानंद स्वरूप हूं। जब भावात्मक निजस्वरूप पर दृष्टि पहुंचेगी तब इसका आनंद प्रकट होगा और तब इस स्पष्टरूप से विदित होगा कि इस मेरे स्वरूप के अतिरिक्त अन्य जितने भी समागम हैं वे सब भिन्न हैं ।
वादरवादर तथा वादर स्कंध―अब इन पुद्गलों को 6 प्रकार के रूपों में दिखा रहे हैं । ये सब स्कंध 6 प्रकार के हैं―वादरवादर, वादर, वादरसूक्ष्म, सूक्ष्मवादर, सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म । जो पिंड ऐसे हैं कि छिद जायें और फिर अपने आप जुड़ने में असमर्थ हैं वे सब वादरवादर कहलाते हैं । जैसे काठ पत्थर इत्यादि छिन्न होकर टुकड़े होकर फिर ये अपने आप नहीं जुड़ सकते । जैसे कि घी तेल दूध पानी ये अलग कर दिये जायें, छिन्न हो जायें और फिर मिल जायेंगे, तो ये अपने आप जुड़ जाते हैं और ये ऐसे मिल जाते हैं कि फिर इनमें विभाग नहीं कर सकते कि इतना यह दूध है और इतना यह पानी है । तो वादरवादर स्कंध वे हैं कि जो छिद जाने पर, अलग हो जाने पर स्वयं न जुड़ सकते हों और बादर वे कहलाते हैं कि छिद जाने पर जुदा हो जाने पर स्वयं संधान में समर्थ हैं, स्वयं फिर पिंड रूप बनने में समर्थ हैं । जैसे दूध, घी, तेल, रस आदिक ।
वादरसूक्ष्म स्कंध―वादरसूक्ष्म वे हैं कि जो स्कंधरूप से अवलोकन में तो आते हैं, दिखते हैं, समझ में आते हैं, पर छेदन-भेदन और ग्रहण करने में नहीं आते हैं । जैसे छाया समझ में आ रही है यह है छाया, पर उसे उठाकर कोई जेब में धर सकता है क्या? या उस छाया के दो हिस्से कर के कोई अलग-अलग कर सकता है क्या? तो न छेदन हुआ, न भेदन हुआ, न ग्रहण हुआ, मगर स्थूल रूप से उपलब्धि में आ रहा है । धूप है, छाया है, अंधकार है ये सब वादरसूक्ष्म कहलाते हैं ।
सूक्ष्मवादर स्कंध―सूक्ष्मवादर वह है कि जो सूक्ष्म होने पर भी स्थूलरूप से उपलब्धि में आता है । जैसे स्पर्श, रस, गंध, और शब्द सुनने में आ रहे तो इनकी आप उपलब्धि तो कर लेते, किंतु उन छाया, धूप वगैरा से भी ये शब्द सूक्ष्म हैं । रस का स्वाद आ गया, पर असल में वह रस सूक्ष्म है इस छाया और धूप वगैरा की अपेक्षा भी । जिसे मुंह में चबाते हैं वह रस नहीं है, वह तो पिंड है, वादरवादर है । रस तो वह है जो स्वाद में आया जो जिह्वाइंद्रिय के द्वारा जाना जाता है वह रस है, और देखो यह रस छाया आताप आदिक से भी सूक्ष्म है । जैसे हम इन इंद्रियों में स्पष्ट कैसे बताये कि यह जिह्वा है? असली जिह्वा याने रसना । जो स्वाद बताने का काम करती है उसको कोई देख सकता है क्या? कोई जिह्वा निकालकर कहे कि लो यह है असली जीभ तो वह असली जीभ नहीं है । जो चीज पकड़ने में आये वह तो स्पर्श वाली चीज हुई । रस ग्रहण करने वाली चीज नहीं है । जो चाम है, पिंड है वह तो स्पर्श है । नासिका में बतावो वास्तविक नासिका नजर आती है क्या? जिस नासिका को पकड़कर आप बतावोगे वह वास्तविक नासिका नहीं है, यह तो स्पर्श है । पकड़ने में तो स्कंध आयेगा तो जैसे इन इंद्रियों में रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये सब गुप्त पड़े हुए हैं, समझ में आते हुए भी हम आप उनका विश्लेषण नहीं कर सकते । जैसे रसनाइंद्रिय स्वाद का काम करती है, ऐसे ही घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के काम हैं, पर उन सभी इंद्रियों के द्वारा जो गम्य विषय है वह विषय, सूक्ष्म वादर है । स्थूल रूप से उपलब्धि में आकर भी अनुपलब्ध है ।
सूक्ष्म व सूक्ष्मसूक्ष्म स्कंध―सूक्ष्म वह है जो सूक्ष्म है और इंद्रियों द्वारा उपलब्धि में नहीं आता । जैसे कर्मवर्गणायें । कर्मवर्गणायें सूक्ष्म हैं और न किसी भी इंद्रिय से ज्ञान में आती हैं । तो स्थूल तो हैं ही नहीं, उपलब्धि में भी नहीं आती अत्यंत सूक्ष्म हैं । आगम और युक्तियों से गम्य हैं, और सूक्ष्मसूक्ष्म वर्गणावों से नीचे गलन होकर कम पिंड वाले बनकर सूक्ष्म चले जाते हैं द्वि-अणुक स्कंध तक । दो परमाणुवों से मिलकर जो स्कंध बना है वह सूक्ष्म-सूक्ष्म है ।ये 6 भेद स्कंध के किए गये हैं, ये भेद केवल स्कंध के हैं ।
लोक की षट्स्कंधनिष्पंनता―पुद्गल के इन 6 प्रकारों के स्कंधों से निष्पन्न यह लोक है । इसको किसी पुरुष ने धारण नहीं किया है, न यह किसी विशेष पुरुष का बनाया हुआ है । कुछ लोग कहते हैं इन्हें किसी ने धारण कर रक्खा है तब तो यह पृथ्वी बनी है । बहुत से लोग कहते हैं कि इस पृथ्वी को शेषनाग ने धारण किया है, कोई लोग मानते हैं कि यह पृथ्वी कोई कीली पर टिकी हुई है । चाहे किसी ने इस पृथ्वी को धारण किया हो, न किया हो, पर कुछ अंदाज तो हो ही जायेगा इन बातों से भी कि यह पिंडरूप चीज है, इसकी भी सीमा होगी । वादरवादर है यह पृथ्वी जो कि बहुत बड़ी है । पूरी पृथ्वी पर अपन जा भी नहीं सकते, लेकिन यह पिंडरूप है, इसलिए इसका अंत जरूर है । चाहे कितने ही बड़े विस्तार की पृथ्वी है, पर किसी न किसी जगह उस पृथ्वी का अंत है । केवल एक ओर ही नहीं, चारों और अंत है । चाहे उसे कोई गोल माने, चाहे कोई चौकोर माने।
स्कंधों की सादिसांतता―जैनसिद्धांत में पृथ्वी को चौकोर कहा गया है थाली की तरह नहीं, थाली की तरह तो द्वीपसमुद्र की रचना है, पर यह पहिली पृथ्वी एक मोटी बर्फी की तरह चौकोर है, इसके 6 पाले हैं―ऊपर नीचे के दो और चारों दिशावों के चार । ऐसी-ऐसी ये पृथ्वियां 7 हैं । इन सातों पृथ्वियों में नरक की रचना है । ऊपर की इस पहिली पृथिवी में पहिले नरक की रचना है । जिसके ऊपर हम आप लोग चलते हैं, इस पृथ्वी के तीन भाग हैं । नीचे के भाग में तो नारकियों का निवास है, दो भाग हैं ऊपर, जिन में भवनवासी और व्यंतर देवों के निवास हैं, इसके ऊपरी तल पर हम आप रहा करते हैं । तो इस पृथ्वी का अंत अवश्य है ।
पृथ्वी का आधार―पृथ्वी के वादरवादरपना सिद्ध होनेपर यह शंका होगी कि ये सधे किस तरह हैं? तो इन समस्त पृथ्वियों के चारों ओर 5 दिशावों में तीन वातवलय हैं । ये वातवलय तीनों लोक के अंत में भी है और इन समस्त पृथ्वियों के पांचों ओर भी हैं । उन वातवलयों पर ये समस्त पृथ्वियाँ सधी हैं । वे वातवलय इतने दृढ़ हैं कि जिन पर ये महास्कंध अनादि से ही इसी तरह चले आ रहे हैं । उन्हीं वातवलयों का नाम शेषनाग रख लीजिए । शेष जो नाग है उसके आधार पर पृथ्वी है अर्थात् नाग में तीन शब्द हैं―न अ ग, ग मायने जो चले, गच्छति इति गः, जो चले सो ग है, न गच्छति इति अग:, जो न चले सो अग न अंग अर्थात् जो चले नहीं ऐसा नहीं अर्थात् चले सो नाग, मायने जो निरंतर चले सो नाग अर्थात् हवा, नाग मायने हैं हवा । जो शेष हवा है उसे कहते हैं शेषनाग । हवा जो लोक के अंत में, पृथ्वी के अंत में, अपने में निरंतर चलती रहती है उसे शेषनाग कहते हैं । हम आप सभी लोगों के काम में आने वाली है यह हवा उन हवाओं से बची हुई अर्थात् लोक के अंत में शेष रूप से पड़ी हुई हवा का नाम शेषनाग है ।
प्रलय में विध्वंसता का अभाव―कुछ लोग इसका प्रलय मानते हैं । यह है और सब एक दिन इसका प्रलय हो जायेगा, कुछ भी न रहेगा, केवल एक आसमान रहेगा । ये स्कंध, ये पुद्गल 6 प्रकार के हैं, ये कहाँ जायेंगे जब प्रलय हो जायेगा । प्रलय के मायने एक विध्वंस है, और विध्वंस का अर्थ यह है कि जो सही शकल है, ढंग का आकार है वह बिगड़ गया । यह ही इस विध्वंस का अर्थ है या सत्ता से बिल्कुल नष्ट हो जाये उसका नाम विध्वंस है? ये सब बिगड़ जायेंगे इसका नाम विध्वंस है, प्रलय है । और प्रलय की बात तो केवल भरत और ऐरावतक्षेत्र में है, आर्यखंड में है जो जगह सारी जमीन के सामने एक बिंदु की तरह है । इन स्कंधों का कभी अभाव न होगा।
लोक की अकृत्रिमता―इसी प्रकार कुछ लोग समझते हैं कि यह लोक किया जाता हे । जैसे प्रलय नहीं होता इसी प्रकार इसका उत्पाद भी नहीं होता। जो सत् है उसका कभी लोप नहीं होता, ऐसे ही जो असत् है उसका कभी उत्पाद नहीं होता । इस लोक को किसी ने किया नहीं है, न कोई धारे हुए है, किंतु यह स्वयं सिद्ध अनादि से ऐसा ही व्यवस्थित है । क्षेत्र की अपेक्षा यह 343 घनराजू प्रमाण है, और स्कंधों की अपेक्षा यह सारा लोक 6 प्रकार के स्कंधों से भरा है, परमाणुवों से भरा है, और सर्व स्कंधों को एक रूप लिया जाये तो उसे कहते हैं महास्कंध । उसका ही नाम लोक है । सभी जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल पदार्थों का जो जोड़ है, योग है, पिंड है वह लोक है । आकाश लोक के भीतर भी है और लोक के बाहर भी है । इसी प्रकार यह समग्र लोक जो पिंडरूप से देखा गया है वह इन 6 प्रकार के स्कंधों से बना हुआ है, और उसका मूल कारण परमाणु है।
परमाणु की द्विविधता―परमाणु के संबंध में भी दार्शनिकों ने दो भेद किए हैं―कारणपरमाणु और कार्यपरमाणु । जैसे परमात्मतत्त्व के दो प्रकार हैं―कारणपरमात्मतत्त्व और कार्यपरमात्मतत्त्व । संसारी जीवों के संसार अवस्था में जब हम उनके स्वभावपर दृष्टि देते हैं तो समझ में आता है कि संसार होकर भी इसमें कारणपरमात्मतत्त्व शाश्वत है, और जब यह परमात्मा बन गया, कार्यपरमात्मा हो गया उस कार्यपरमात्मा के होते हुए भी जिस स्वभाव की व्यक्ति कार्यपरमात्मा निरंतर बनती चली जा रही है वह कारणपरमात्मतत्त्व है, ऐसे ही इन स्कंधों की स्थिति में कारणपरमाणु की बात झट समझ में आती हैं । इसमें एक-एक परमाणु है और वे परमाणु मिलकर स्कंध बने हैं तो इसका कारणभूत परमाणु हैं, और वे परमाणु मिलकर बने हैं तो इसका कारणभूत परमाणु है । और जब यह परमाणुरूप में व्यक्त हो जाता है केवल परमाणु रह गया उस समय भी कारणपरमाणु रूपता और कार्यपरमाणु रूपता बराबर बनी हुई है ।
लोक के अवगम का लाभ―इन परमाणु और स्कंधों का जोड़ ये सब मिलकर जो पिंड है वह जितने में है सो यह एक लोक है । इस लोक में ऐसा कोई प्रदेश नहीं बचा जहाँ इस जीव ने अनंत बार जन्म मरण न किया हो । उसका कारण है अपने स्वरूप का अज्ञान । देखो लोकविस्तार का विशद अवगम उत्तम धर्मध्यान का कारण है । इस कारण लोक का अवगम करना भी ध्यान व वैराग्य का कारण है । अब हम अधिकाधिक यत्न अपने स्वरूप की ओर मुड़ने का करें, जिसके प्रताप से यह संसारभ्रमण मिटे और मुक्ति प्राप्त हो ।