वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 8
From जैनकोष
सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरुवा अणंतपंजाया।
भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का।।8।।
अस्तित्व का स्वरूप―इस गाथा में अस्तित्व का स्वरूप कहा गया है। अस्तित्व कहो या सत्ता कहो एक ही अर्थ है, जिसे हिंदी में है कहते हैं। है पना सर्व पदार्थों में मौजूद है। है का जितना भाव है उस दृष्टि से सब पदार्थों में वही बात है। है में है का रहना सबमें एक समान है। उस है में जो विशेषता आती है अर्थात् अमुक पदार्थ अमुक रूप है, पदार्थ इस प्रकार परिणमने वाला है इस तरह है में जो विशेषताएं होती हैं वे अन्य गुणों के कारण होती हैं। ‘‘है’’ सब पदार्थों में है और एक ही वस्तु के समस्त गुणों में है, इसी कारण सत्ता स्वरूप है। कहां सत्ता नहीं है। जो है सो ‘‘है’’ ही तो है। है की दृष्टि में सब द्रव्य एक समान है। जैसे हम जीव-जीव में ही विशेषता जानना चाहते है तो शुद्ध यह सिद्ध भगवान है पर जीवदृष्टि से सिद्ध संसारी सब एक चित्स्वरूप हैं। इसी प्रकार जीव और अजीव में हम ‘है पना’ हो जावेंगे तो परमाणु का ‘है पना’ और सिद्ध का ‘है पना’ सभी एक समान हैं।
अस्तित्व का सादृश्य―हम आप चूंकि कर्मों के प्रेरे हैं, इनसे छूटना चाहते हैं, शांतिलाभ लेना चाहते हैं इस कारण हम आपकी दृष्टि में सिद्धप्रभु का महत्व है, सिद्ध अनंत सुखी है, परिपूर्ण सुखी हैं, यों सिद्ध प्रभु का महत्व है, किंतु एक परमाणु और सिद्ध और सभी एक सामान्यरूप से देखा जाय, अस्तित्व की दृष्टि से देखा जाय तो वह सब एक ही समान है। परमाणु भी है, सिद्ध भी है और जितने भी शुद्ध द्रव्य हैं वे सब ही हैं। इस दृष्टि से सबकी बराबरी है। है पना शुद्ध हो, अशुद्ध हो, समस्त पदार्थों में एक रूप रहता है इस कारण सत्ता सर्व विश्वरूप है।
अस्तित्व की सर्वव्यापकता―जो लोग ऐसा मानते हैं कि ब्रह्म सर्वव्यापक है, जो कुछ दिखते हैं चेतन अचेतन पदार्थ ये सब वही एक ही है ब्रह्म, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। यह दृष्टि उनके एक सादृश्य अस्तित्व मात्र को लेकर होती तो इसमें कोई अड़चन न थी। यदि कोई ब्रह्मनामक व्यापक एक अर्थक्रियाकारी सत् मान रहे हो, अलग एक व्यक्ति का रूप और उसे सर्वव्यापक तथा इन दृश्यमान परिस्थितियों के रूप में उखड़ने वाला मानते हो तो वहाँ विरोध है, परंतु सत् ही यदि ब्रह्म है तो इसमें कोई विरोध नहीं है। समस्त विश्व एक सद्ब्रह्मरूप है। सत्त्व से कुछ न्यारा क्या है।
अस्तित्व की एक रूपता―यह सत्ता अनंत पर्यायों रूप है। जितने भी भूतकाल के परिणमन हुये हैं तथा भविष्यकाल के परिणमन होंगे समस्त परिवर्तनरूप हैं, सब परिणमनों में यह अस्तित्व बराबर बना रहता है। यह अनंत पर्यायोंरूप है। वहाँ भी तिर्यक्रूप से देखा जाय तो जितने भी पदार्थ है उन पदार्थों में प्रत्येक गुण में परिणमन हो रहे हैं इस तरह यह सत् अनंत पर्यायोंरूप हैं। यह सत्ता किस रूप में कहां मिलेगी, इसका स्पष्ट रूपक किसी एक व्यवस्था में नहीं नियत किया जा सकता है। यह सत्त्व ऐसे ही बिना ही परिणमें, किसी पदार्थ में रह जाता हो सो रह नहीं सकता। सत्त्व है तो उसमें ये तीन अवस्थाएं अवश्यंभावी हैं कि वे किसी नवीन परिणमन रूप में होवें और पुराने परिणमन के रूप में विलीन हो जायें। तथा समस्त परिणमनों का आधारभूत वही एक रहा करे। इस प्रकार उत्पादव्यय ध्रौव्यरूप से यह सत्ता प्रवर्तती है। इन सब दृष्टियों से देखा जाय तो सारा विश्व एक सत्तात्मक है। यहाँ प्रदेशों पर दृष्टि न दो, व्यक्ति पर दृष्टि न दो, किंतु जो सत्त्व का स्वरूप है उस स्वरूप पर दृष्टि देकर निरखो तो स्वरूप से कोई पदार्थ किसी पदार्थ से भिन्नता नहीं रखते हैं। सर्वसत् स्वरूप हैं। यों यह सत्ता एक रूप हैं।
सत्ता में सप्रतिपक्षता―सत्ता संबंध में अब तक जितनी बातें कही गयी हैं उन सब बातों से उल्टा स्वरूप भी यह रखता है अर्थात् सत्ता प्रतिपक्ष सहित है। जैसे बताया गया था कि सत् सर्व पदार्थों में है तो उसकी यह भी एक विशेषता है कि वह सर्व पदार्थों में एक नहीं है, किंतु प्रत्येक पदार्थ में भिन्न-भिन्न सत्ता है। दूसरा विशेषण बताया था कि यह सत्ता विश्वरूप है तो उससे उल्टी बात भी पायी जाती है कि सत्ता व्यक्तिगत भी है। यदि व्यक्तिगत सत्ता न रहे तो कोई काम बन ही नहीं सकता। जैसे बोझ ढोना, व्यापार आदिक करना इन सबको मनुष्य जाति करती है या व्यक्तिगत मनुष्य किया करते हैं? और उन सब करते हुये मनुष्यों को समुदाय रूप में कल्पना से हम मनुष्य जाति मात्र लेते हैं, तो व्यक्तिगत सत्त्व है। तीसरे विशेषण में बताया था कि सत्ता अनंत पर्यायात्मक है। लेकिन वे प्रत्येक पर्यायें चूंकि अपना-अपना स्वरूप न्यारा रखती है इसलिये वे व्यतिरेकी हैं इस कारण सत्ता एक पर्यायरूप है। सत्ता का चौथा विशेषण कहा कि सत्ता उत्पादव्यय ध्रौव्यरूप है, लेकिन इससे भी एक-एक अंश का जो स्वरूप है उस स्वरूप पर दृष्टि देकर निरखा जाय तो ये तीन स्वरूप हैं, इस कारण सत्त्व भी प्रत्येक स्वरूप में प्रत्येक स्वरूप हैं। 5वें विशेषण में कहा था कि यह एक है, तो इससे उल्टी बात भी है कि सत्ता अनेक हैं, सत्ता अनेक न हों तो प्रतिवस्तु में परिणमन और अनुभवन हो ही नहीं सकता। इस प्रकार संक्षेपरूप में इस गाथा में अस्तित्व को ही कहा गया है।
सत् की नित्यानित्यात्मकता―अस्तित्व नाम सत् का है। सत् के भाव को सत्ता कहते हैं। न केवल नित्य हो वह सत् है, न केवल क्षणिक हो वह सत् है, किंतु नित्यानित्यात्मक उत्पाद–व्यय-ध्रौव्यात्मक जो वस्तु है उसे सत् कहते हैं, क्योंकि सर्वथा नित्य वस्तु हों तो चूंकि सर्वथा नित्य माना है अर्थात् अपरिणामी माना है तो उस पदार्थ में क्रमभावी कोई बात हो ही नहीं सकती। जब क्रमभावी परिणमन न होगा तो उनमें विकार कैसे होगा, अर्थात् काम कैसे होगा। कोई भी पदार्थ बिना काम के नहीं है। लोकव्यवहार में कहते हैं कि जो भी चीज है वह बिना काम के नहीं है, किसी न किसी काम में आती है। चाहे उसका उपयोग हमें न मालूम हो। यह तो है लौकिक बात, पर वास्तविक बात यह है कि जो भी वस्तु है अपनी अर्थक्रिया प्रतिसमय करती ही रहती है। यदि परिणमन न हो, अर्थक्रिया न हो तो वह पदार्थ ही नहीं रह सकता। यों सर्वथा नित्य वस्तु को सत् नहीं माना। सर्वथा नित्य वस्तु है नहीं, ऐसे ही यदि सर्वथा क्षणिक माना जाय तो जो सर्वथा क्षणिक है उसमें अब प्रत्यभिज्ञान हो ही नहीं सकता। फिर उसमें एक संतानपना कैसे रहेगा। प्रत्यभिज्ञान कहता है यह वही वस्तु है जो पहिले थी। इस प्रकार का पूर्व और अपर पर्यायों में एकत्व का भान करना, ज्ञान करना सो प्रत्यभिज्ञान है। हम आपको रोज देखते हैं आप वही हैं जो कल थे और वैसा ही व्यवहार करके सारी व्यवस्था बनी हुई है। यदि सर्वथा क्षणिक हो बात―तो आप कल कैसे भी थे, आज आप अत्यंत भिन्न हैं, तो क्या व्यवस्था बनेगी। क्या व्यवहार होगा, फिर एक संतानपना ठहर नहीं सकता। सर्वथा क्षणिक वस्तु मानने पर प्रत्यभिज्ञान न होने से एक संतानपना नहीं रहता है, इस कारण प्रत्यभिज्ञान का कारणभूत कोई स्वरूप अवश्य है यह मानना चाहिये, और क्रम से प्रकट होने वाली पर्यायों का भी स्वरूप अवश्य है जिससे कि नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय विलीन होती हे।
सत् की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता―उत्पाद व्यय और ध्रौव्य ये तीनों लक्षण पदार्थ में एक ही समय में रहा करते हैं। पदार्थ में ध्रुवता तो निरंतर ज्ञान में आना सुगम ही हैं कि यह सदा रहा करता है। अब इसमें प्रतिसमय में एक-एक नवीन-नवीन दशा हो जाती है। यह सत् प्रतिसमय नवीन परिणामात्मक चलता रहता है। अब उस नवीन परिणमन में ये दोनों बातें एक साथ गर्भित है। नवीन पर्याय का उत्पाद और पुरानी पर्याय का विलय, जैसे 8 बजकर एक समय के बाद जैसे ही दूसरा समय लगा तो 8 बजकर दूसरा समय में उत्पाद और 8 बजकर पहिले समय की परिणति का विलय ये दोनों एक साथ हैं जैसे अंतिम संयोग और वियोग ये दोनों एक साथ हैं। जैसे किसी को आप स्टेशन पहुंचाने जायें और वह स्टेशन से आगे चला गया। आप स्टेशन से लौट आये। आपसे पूछा जाय कि तुम्हारा उससे वियोग कहां पर हुआ था? तो आप कहेंगे कि स्टेशन पर हुआ था। अरे स्टेशन पर तो संयोग था, वियोग कहां से हो। अंतिम संयोग और वियोग दोनों एक ही बात है। जैसे मिट्टी का एक खिलौना बनवाया या एक दिया ही बनवाया तो दिया बनाने से पहिले जैसा पिंड रूप में थी वह मिट्टी, दिया बनाने पर दिया का तो उत्पाद हो गया और उस मृतपिंड का विनाश हो गया। ये दोनों एक साथ हुए। जैसे सीधी अंगुली को टेढ़ी किया जाय तो टेढ़ी का उत्पाद हुआ, सीधा का विलय हुआ। ये दोनों एक साथ हुए। क्या कभी ऐसा होता कि अंगुली पहिले तो सीधी मिट जाय, इसके बाद में फिर टेढ़ी हो, ऐसा कोई कर सकेगा क्या? अरे टेढ़ी होने का ही नाम सीध मिटाना है।
जीवन मरण की तरह उत्पाद व्यय का एक समय―किसी जीव के मनुष्य आयु चल रही है। मानो यह मनुष्य आयु अमुक नियत दिन में ठीक 10 बजे तक चलेगी तो 10 बजे तक मनुष्य आयु का उदय है और 10 बजकर पहिले समय में मानो देव आयु का उदय आ गया तो हमें यह बतलावो कि यह मनुष्य 10 बजे मरा या 10 बजकर पहिले समय में मरा यदि यह कहा जाय कि वह मनुष्य 10 बजे मरा तो गलत बात है। 10 बजे तो मनुष्य आयु का उदय चल रहा है। मनुष्य आयु का उदय रहते संते मनुष्य का मरण कहा जा सकता है क्या? 10 बजकर पहिले समय में जब कि वह देव आयु के उदय में है उस समय मनुष्य का मरण कहलायेगा। तो नवीन आयु का उदय हो और पुरानी आयु का क्षय हो इन दोनों का एक समय है। यों अनेक दृष्टांतों से समझते जायें कि उत्पाद और व्यय का एक ही समय है, इसमें अपेक्षा भाव है ना। उसही पर्याय का उत्पाद और उसही पर्याय का विनाश एक समय में नहीं कहा जा रहा है, किंतु नवीन पर्याय का उत्पाद और पुरानी पर्याय का विनाश में दोनों बातें एक समय में हुआ करती हैं। यों उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों अवस्थावों को एक साथ धारण करने वाला पदार्थ जानना चाहिए। इससे यह जानो कि सत्ता उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है।
सत्ता और सत्तावान में अभेद―सत्ता और सत्तावान में दो पदार्थ कुछ अलग-अलग नहीं है। जैसे मेरा अस्तित्व और मैं वे दो न्यारी-न्यारी चीजें नहीं है। यदि दो न्यारी-न्यारी चीजें हो तो ये मेरी हो ही नहीं सकती। जैसे लोग कहते हैं कि यह मेरा पैन हैं। ये दोनों बातें विरुद्ध हैं। कैसे यह पैन मेरा है जब कि यह मैं और पैन यह एक ही बात नहीं है। अरे मैं चेतन हूं यह पैन जड़ है, भिन्न-भिन्न पदार्थ है। और जब भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं तो फिर मेरा क्यों कह रहे हैं। वह भिन्न कलम मेरा हो ही नहीं सकता। जो मेरा है वह मुझसे अभिन्न है। जो मुझमें अभिन्न नहीं है वह केवल कहने का और कल्पना का ही मेरा है। तो सत्ता और सत्तावान ये दोनों न्यारे नहीं हैं, किंतु भाव और भाववान का भेद किया जा रहा है। जैसे इन्सानियत और इन्सान में क्या दो अलग-अलग चीजें सत् हैं, एक ही चीज है, सिर्फ भाव और भाववान का इसमें एक भेद बताया गया है समझने के लिए, यों भाव और भाववान कथन्चित् एक स्वरूप है, इस कारण वह उत्पादव्ययध्रौव्य रूप त्रिलक्षणात्मक सत्ता समस्त वस्तुवों में सदृश्यता का सूचक होने से एक है। उसमें क्या अंतर है?
सत्त्वसामान्य और सत्त्वविशेष―जैसे कहा जाय कि जरा एक मनुष्य को लाना, तो लाने वाला किसी भी मनुष्य को लाये, बूढ़े को ला दे तो भी यह नहीं कह सकते कि इसे तू क्यों लाया। अरे ! तुमने मनुष्य कहा था, यह मनुष्य नहीं है क्या? भले ही किसी प्रसंग में जवान पुरुष को आदमी कहा जाता है। तो उस आदमी के कहने का अर्थ ही जवान है। जैसे आप कहीं जा रहे हों, सामान जाना है स्टेशन पर तो किसी से कह दिया कि भाई एक आदमी तो आना। और, वह ले आये साल डेढ़ साल का लड़का, तो ले आये आदमी? वह तो प्रासंगिक बात नहीं हुई। वहाँ तो प्रयोजन यह था कि किसी जवान को लावो जो सामान लेकर चले। तो वहाँ आदमी शब्द का अर्थ आदमी ही नहीं है, किंतु एक हष्ट-पुष्ट पुरुष है। जब कहा गया कि किसी जवान को लावो तो इसमें भेद पड़ गया। तो जैसे मनुष्य-मनुष्य में कोई अंतर नहीं है, सब एक रूप है, चाहे रंक हो, राजा हो, ज्ञानी हो, मूर्ख हो सब मनुष्य हैं। यहाँ तक कि चाहे अरहंत हों और चाहे यहाँ का कोई दीन हो, सब मनुष्य हैं। एक भगवान है अरहंत वह भी मनुष्य गति में है। तो जैसे मनुष्य कहने में सब मनुष्य एक समान ज्ञात होते हैं ऐसे ही सत् इतना मात्र कहने से अनंत द्रव्यों का समूह समझाना है।
सत्ता की सर्वपदार्थस्थता―द्रव्यात्मक समस्त विश्व एक सत् रूप निरखा जाता है। यों यह सत्ता सर्व पदार्थों में स्थित है, क्योंकि सत्ता से शून्य कोई भी पदार्थ नहीं है। त्रिलक्षणात्मक सत्ता का प्रत्यय परिज्ञान सब पदार्थों में एक समान ही देखा जाता है। यह समस्त विश्व समस्त वस्तुवों का समुदाय है। जैसे घर कहने से एक घर आया, मोहल्ला, मोहल्ला कहने से 100 घर आये नगर कहने से हजार घर आ गए। तो नगर सर्वगृहात्मक है। ऐसे ही यह विश्व समस्त वस्तु विस्तारात्मक है। यह विश्व अलग से कुछ वस्तु नहीं है, अनंत पदार्थों का समूह ही यह विश्व है।
सत्ता की अनंतपर्यायरूपता―जैसे प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यरूप रहा करते हैं तो उत्पादव्ययध्रौव्यरूप रहने वाले समस्त पदार्थों का समूह रूप माना हुआ यह विश्व क्या उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वरूप न कहा जायगा। जैसे काम तो करता है मनुष्य और कहते हैं यों कि देखो यह मनुष्य जाति कितना काम करती है। तो समस्त व्यक्तियों का जो कुछ स्वरूप है वही जाति का स्वरूप है। यों सारा विश्व स्वयं ही वस्तु विस्तारात्मक है और वह उत्पादव्ययध्रौव्य रूप स्वभाव से प्रवर्त्तमान है। यह सत्ता अनंतपर्यायात्मक है क्योंकि द्रव्य में अनंत पर्यायों की व्यक्तियां होती हैं और वे सब त्रिलक्षणात्मक हैं। यों यह अस्तित्व, सत्ता सर्व अनंत पर्यायात्मक है। इतने विशेषणों से पदार्थ का स्वरूप बताने के बाद अब यह बतावेंगे कि यह सत्ता केवल इस ही रूप नहीं है, किंतु इससे विपरीत स्वरूप वाली भी है, अर्थात् प्रतिपक्ष सहित है। उसही प्रतिपक्षपने का अब आगे वर्णन आयेगा।
सत्ता की सप्रतिपक्षता का निर्देशन―इस गाथा में पदार्थों के अस्तित्व का स्वरूप कहा गया है। पदार्थ है। उस है की विशेषता बतायी गई है। है किस तरह का होता है। पदार्थ का अस्तित्व सत्ता सब पदार्थों में है, विश्वरूप है, अनंत पर्यायात्मक है। उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त है। उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त है इतना कहने के बाद अब इससे उल्टी बात को सत्ता में घटाते हैं। जैन दर्शन प्रत्येक वक्तव्य को प्रतिपक्षसहित मानता है। जैसे कोई किसी चीज को हाथ में लेकर कहे कि यह है, तो उसके साथ यह भी कह सकते हैं कि यह नहीं है। सुनने में कुछ अड़चन सी पड़ती होगी कि यह है और इसी को यह कह सकते हैं कि यह नहीं है। यह घड़ी है, ठीक है, चौकी नहीं है, तो जहां इसमें है पना सिद्ध किया वहाँ इसमें नहीं भी आ गया है। है और न ये दोनों अविनाभावी है। अगर न मुकर जाय तो है भी मर जायगा और है मुकर जाय तो न भी मर जायगा। कहा कि यह घड़ी है, यदि यह बात गलत हो जाय तो यह चौकी नहीं है यह भी गलत बात हो जाय। यह चौकी नहीं है ऐसी न की बात गलत हो जाय यह भी गलत हो जायगा कि यह घड़ी है।
सत्ता की सप्रतिपक्षता का विवरण―सत्ता भी सप्रतिपक्ष है। सत्ता है इसका उल्टा क्या? असत्ता है, नहीं है, तो किसी पदार्थ में ‘‘है’’ है तो उसमें ‘‘नहीं है’’ भी है। सत्ता में यह विशेषण कहा था कि यह त्रिलक्षणात्मक है तो उससे उल्टी बात भी है कि अत्रिलक्षण भी है। सत्ता को एक कहा था कि सत्ता एक है, तो उसमें उल्टी बात भी कह सकते हैं कि सत्ता अनेक है। सत्ता सब पदार्थों में स्थित है तो उससे उल्टा यह कह सकते है कि सत्ता एक पदार्थ में स्थित है। सत्ता विश्व स्वरूप है तो उससे उल्टा कहेंगे कि सत्ता एक रूप है। सत्ता अनंत पर्यायों रूप है तो उससे उल्टा यह कहेंगे कि एक पर्याय रूप हैं।
सत्ता की सप्रतिपक्षता का मुख्य आधार―सत्ता दो तरह की होती है एक महासत्ता और एक आवांतर सत्ता। सत्ता मायने है पन। जैसे यह वस्तु है तो है के मायने क्या है, है के मायने सत्ता, मौजूदगी। तो सत्ता दो तरह की है एक महासत्ता और एक आवांतर सत्ता। सब पदार्थों में यह पदार्थ हैं, केवल है की ही दृष्टि रक्खी जाय तो वह ‘है’ सब पदार्थों में है। उस सामान्य ‘‘है’’ का नाम महासत्ता है, और एक-एक चीज, यह पुस्तक है, ऐसी एक-एक चीज जो है वह आवांतर सत्ता है। जैसे पुस्तक की सत्ता पुस्तक में ही है, चौकी में नहीं है और सत्ता सामान्य सबमें है, और यह बालक है, यह जवान है, यह बूढ़ा है, इस तरह जो विशेष सत्ता है, वह सबमें नहीं है। समस्त पदार्थों में रहे ऐसी सत्ता तो यह महासत्ता कहलायेगी। माने सदृश्य अस्तित्व की सूचना देती है महासत्ता और प्रत्येक पदार्थ में उसही की जो सत्ता है वह पदार्थ के स्वरूप का सूचक है। वह आवांतर सत्ता है।
दृष्टि की सामान्यविशेषरूपता―एक मनुष्य के बारे में जो जवान है, उसके बारे में हम दो दृष्टि लगा सकते हैं जिस दृष्टि में सब मनुष्य बराबर हैं यहाँ। और एक यह जवान है, बलशाली है, पुष्ट है ऐसी एक जवान की भी सत्ता लगा सकते हैं। अब इतनी दृष्टि में उस मनुष्य के बारे में दो तरह की सत्ता समझ में आयी, एक मनुष्य सामान्य और एक जवान सामान्य। तो मनुष्य सामान्य कहकर जैसा है समझ में आया है ऐसा है जवान में नहीं है और जवान मनुष्य में जैसा है समझ में आता है वैसा है सामान्य मनुष्य में नहीं है। तो सामान्य मनुष्य की सत्ता विशेष मनुष्य की असत्ता उसही में है। विशेष मनुष्य की सत्ता और सामान्य मनुष्य की असत्ता उस एक में है। यों समझिये―जैसे मिट्टी का घड़ा बनाया, उसमें जो मिट्टी का ढंग होता है वह तो सामान्य है और जो घड़े का ढंग है वह है विशेष। तो घड़े का ढंग मिट्टी के ढंग में नहीं है, मिट्टी का ढंग घड़े के ढंग में नहीं है। यों वही चीज है भी है और ‘नहीं भी’ है। महासत्ता आवांतर सत्ता के रूप में असत् है और आवांतर सत्ता महासत्ता के रूप से असत् है। इस तरह सत्ता का प्रतिपक्षी असत् हुआ।
सत्ता में त्रैलक्षण्य की सप्रतिपक्षता―अब त्रिलक्षण में देखिये। पदार्थ नवीन पर्याय से उत्पन्न होता है और पुरानी पर्याय उसमें विलीन होती है, और पदार्थ वही का वही रहता है। जैसे घड़ा है, फोड़ दिया, खपरियां बन गयी तो खपरियों का तो उत्पाद हुआ और घड़े का विनाश हुआ और मिट्टी वही रही। यह विषय कठिन है पर जैन दर्शन का तो एक परिज्ञान निचोड़रूप यही तत्त्व है जो सर्वत्र न मिलेगा। पदार्थ का स्वरूप सही जानने में न आये तो आपको शांति का उपाय नहीं मिल सकता। मोह हटाने का उपाय एक सही ज्ञान है। सही ज्ञान के बिना आप कितने ही उपाय कर लें मोह नहीं मिट सकता है।
सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त अन्य पर्यायों में मोहक्षय की असफलता―जैसे कोई चाहे कि हमारा स्त्री पुत्र से अधिक मोह है तो मैं ऐसी लड़ाई छेड़ दूं कि हमारा मोह ही मिट जाय। जब दिल खट्टा हो जायगा तो मोह दूर हो जायगा। तो इससे भी मोह दूर न होगा। प्रथम तो उस स्त्री पुत्र से भी मोह दूर न होगा, और ढंग से उसके बारे में कल्पना जगेगी। मोह की तरंग राग भी है और द्वेष भी है। मोह से केवल राग ही होता हो सो नहीं। मोह से द्वेष भी होता है। तो उस द्वेष का कारण मोह है और यह मोह द्वेष को बढ़ायेगा राग को न बढ़ायेगा, इतना ही अंतर आयेगा। किसी से झगड़ा बनने से इतना अंतर आयगा कि उसका मोह द्वेष के रूप में होता है, रागरूप नहीं, पर झगड़े से मोह न मिट जायगा। दूसरी बात यह है कि झगड़ा बनने से कदाचित् एक पदार्थ से मोह मिट जाय तो अन्य पदार्थ में मोह चलने लगेगा, क्योंकि अज्ञान बसा हुआ है। मोह का मिटाना सिवाय सम्यग्ज्ञान के किसी उपाय से ही नहीं हो सकता है।
मोहक्षय में ज्ञान का सहयोग―मोह मिटाने में इतनी ही दृष्टि तो चाहिए कि यह पदार्थ पूर्ण स्वतंत्र है। उसका गुण, उसका परिणमन, उसकी शक्ति, उसका प्रभाव, उसका स्वामित्व, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सब उसमें ही होता हैं। सभी पदार्थ अपने स्वस्वरूप हैं, तब त्रिकाल भी मेरे करने से दूसरा कुछ बनता नहीं तो फिर मेरा कुछ क्या बनता या बिगड़ता है।