वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 84
From जैनकोष
अगुरुगलहुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदंणिच्चं ।
गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं ।।84।।
अगुरुलघुक गुणों द्वारा षड्गुण हानिवृद्धि―यह धर्मद्रव्य अपने में ही साधारण गुणरूप से जो अगुरुलघुत्व गुण है उन गुणों से परिणत होने में प्रतिसमय षड्गुणहानि वृद्धियों से, अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से जो अगुरुलघुत्वगुण परिणत हैं उनके कारण यह निरंतर उत्पाद व्यय करता रहता है । फिर भी यह धर्मद्रव्य नित्य हैं। देखिये यह सीधी अँगुली है। इसे मान लो टेढ़ी कर दिया तो आपके ज्ञान में अंगुली कितनी टेढ़ी होने पर यह समझ बैठी कि यह अंगुली टेढ़ी हुई है ? जितना कम से कम टेढ़ी आ जाने पर आपकी समझ में आया कि यह अंगुली टेढ़ी हुई है, उसके भीतर भी कितनी ही टेढ़ी होने की डिग्रियां ऐसी पड़ी हैं जो आपकी समझ में नहीं आ सकती । एक बालक एक वर्ष में 6 अंगुल बढ़ गया तो इसे आप कब समझ पाये कि यह बालक बढ़ गया? आप कहेंगे कि कुछ-कुछ तो 3 महीने में ही समझ में आ जाता है । यदि तीन महीने में बढ़ा हुआ वह मालूम पड़ा तो क्या एक महीने में वह कुछ भी न बढ़ा था? और एक महीने में बढ़ा था तो क्या एक दिन में न बढ़ा था? यों ही एक घंटे में, एक सेकेंड में क्या वह कुछ भी न बढ़ा था? अरे वह प्रति समय परिणम रहा है, बढ़ रहा है, वृद्धि की ओर चल रहा है । यह सूक्ष्म परिणमन जो षट्स्थानपतित वृद्धि हानि की बात है । यह हम आपके ध्यान में नहीं आता और इसके बारे में ऋषियों ने यह बताया है कि यह केवलज्ञानगम्य है । हाँ धर्मद्रव्य है, इस लोकाकाश में सर्वत्र भरा हुआ है, एक पदार्थ है और वह निरंतर अनंतगुणा अनंतभाग बढ़ता है, घटता है, फिर भी यह निरंतर वैसाही चलता रहता है ।
षड्गुणहानिवृद्धि के अनुमान में―भैया ! सर्व प्रथम तो धर्मद्रव्य ही स्पष्ट समझ में सुगमतया नहीं आ रहा, फिर उसकी षड्गुणहानिवृद्धि यह तो बहुत ही सूक्ष्म बात है । देखो किसी बालक ने एक अक्षर का ज्ञान किया, अब वह दूसरे अक्षर का ज्ञान करता है तो पहिले के ज्ञान से इस बालक का कितना ज्ञान बढ़ गया? लोग यह कहेंगे कि एक अक्षर का ज्ञान बढ़ गया । उस एक अक्षर के बढ़ने में क्या आधा अक्षर नहीं बढ़ा, क्या पाव अक्षर नहीं बढ़ा? और ऐसे ही हिस्से करते जावो तो उसमें अनंत डिग्रियाँ हैं, अनगिनती डिग्रियां हैं और कुछ तो ज्ञान की ऐसी डिग्रियाँ होती हैं कि क्रम भंग करके हो जाती हैं । जैसे इस मिनट में हजार डिग्री का ज्ञान है, अगले ही क्षण में उसके 3 हजार डिग्री का ज्ञान हो गया तो दो हजार डिग्रियां इसमें बढ़ी तो हैं, मगर वृद्धि के क्रम में नहीं? कुछ ऐसी भी वृद्धियां होती हैं । यों इस धर्म-द्रव्य में सूक्ष्मरूप में ऐसे अनंत अगुरुलघुवों का परिणमन होता है।
धर्मद्रव्य की नित्यता व गति में उदासीनकारणता―धर्मद्रव्य नित्य है और गतिक्रिया में लगे हुए जीव पुद्गल के गमन कार्य में कारणभूत है । जैसे हम आप सिद्ध भगवान का ध्यान करते हैं तो उस ध्यान के प्रताप से हम इस मोक्षमार्ग के गमन में बढ़ते हैं ना, तो सिद्धगति के बहिरंग सहकारी कारण, निमित्त कारण सिद्ध भगवान हुए । किंतु कोई भी सिद्ध क्या इस प्रकार के परिणमन करने का प्रयत्न भी कर रहा है? कोई भी नहीं कर रहा है । सिद्ध भगवान के गुणों में अनुराग करने वाले के लिए सिद्धगति के वे सिद्ध सहकारी कारण हो जाते हैं निमित्तमात्र, इसी प्रकार यह धर्मद्रव्य भी स्वभाव से उदासीन हे । यह धर्मद्रव्य जीव व पुद्गल को जबरदस्ती चलाता नहीं है, फिर भी गति क्रिया में परिणमते हुए जीव पुद्गल की गति में सहकारी कारण हो जाया करता है निमित्तमात्र । और यह जीव पुद्गल की गति क्रिया का तो कारण है पर स्वयं अकार्य है । जैसे सिद्ध भगवान तो शुद्ध अस्तित्व से निष्पन्न होने के कारण वे अकार्य हैं, किसी अन्य के द्वारा किये गये नहीं हैं, इसी प्रकार यह धर्मद्रव्य भी अपने अस्तित्व से बना हुआ है अत: किसी समय इस धर्मद्रव्य को किया गया नहीं है । यह सनातन अपनी ही सत्ता से शुद्धधर्मद्रव्य है, जिसका निमित्त पाकर हम आप गति क्रिया में परिणत हुआ करते हैं ।
शुद्ध द्रव्य की चर्चा का लाभ―यद्यपि यह धर्मद्रव्य सूक्ष्म है फिर भी इस ज्ञान से हम ऐसे पदार्थों के ज्ञान में लाये हुए ज्ञान के प्रयोग से हमारे में विषय कषाय उत्पन्न नहीं होते ।धर्मद्रव्य का वर्णन कर के किसी विषय के भोग में मदद मिलती है क्या? एक शुद्धद्रव्य है ।हमारे रागादिक भावों के लिए अनाश्रय है । कोई सोचता हो कि फाल्तू चर्चा से क्या लाभ है तो यह फाल्तू बात नहीं है । द्रव्य के स्वरूप की चर्चा में उपयोग जाये तो यहाँ विषय कषायों का आक्रमण तो बंद हो गया ना, यह लाभ की बात है । इस प्रकार पुद्गलद्रव्य के वर्णन के बाद यह धर्मद्रव्य का वर्णन किया है । अब आगे धर्मद्रव्य को विशेष बताने के लिए एक दृष्टांत देंगे ।