वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 85
From जैनकोष
उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए ।
तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ।।85।।
धर्मद्रव्य की गतिहेतुता पर दृष्टांत―इस गाथा में धर्मद्रव्य जीवद्रव्य व पुद्गलद्रव्य की गति का कारण होता है, इस संबंध में दृष्टांत बताया गया है । जैसे जल स्वयं तो नहीं चलता और जबरदस्ती किसी दूसरी मछली को चलाता भी नहीं है, किंतु स्वयमेव चलने वाली मछलियों को यह जल उदासीन रूप से अविनाभूत सहायक कारण मात्र होता है । यहाँ दो शब्द दिए गए हैं उदासीन और अविनाभूत । मछली के चलने में जल होना ही चाहिए, यों तो अविनाभूत है और होकर भी जल अत्यंत उदासीन है, वह न खुद क्रिया करता है और न मछली को क्रिया कराता है । इस ही प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वयं नहीं चलता धर्मद्रव्य निष्क्रिय है और दूसरों को भी नहीं चलाता है किंतु स्वयं चलने वाला जीव पुद्गल जब स्वयं चले तब यह धर्मद्रव्य उदासीन अविनाभूत सहायक कारणमात्र उनके गमन में होता है ।
धर्मद्रव्य की गतिहेतुता पर आध्यात्मिक दृष्टांत―धर्मद्रव्य की गति कारणता में अन्य दृष्टांत लो । जैसे रागादिक दोषों से रहित, शुद्ध आत्मानुभव से सहित निश्चय धर्म सिद्ध गति का उपादान कारण होता है अर्थात् भव्य जीवों में जब निज शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र आत्मतत्त्व की अनुभूति होती है तो इस अनुभव में हुआ जो निश्चय धर्म है वह सिद्धगति का खास कारण है । तब वहाँ पुण्यरूप धर्म सहकारी कारण होता है, पर हो पुण्य ऐसा जो निदानरहित परिणामों से उत्पन्न किया गया है । तीर्थंकर प्रकृति, उत्तम संहनन आदि विशिष्ट पुण्यरूपधर्म भी सहकारी कारण होता है । यहाँ यद्यपि जीव पुद्गल के विषय के परिणमन में अपना ही अपना उपादान कारण है फिर भी वहाँ धर्मास्तिकाय भी सहकारी कारण होता है ।
आध्यात्मिक दृष्टांत का विवरण―अभी जो दृष्टांत दिया है उसका तात्पर्य यह हैकि भव्यजीव जो सिद्ध लोक में पहुंचते हैं उनकी सिद्धगति का उपादान कारण तो उन ही जीवों का निश्चय धर्मरूप परिणमन है । वह निश्चयधर्म के कारण स्वयं जाता है, लेकिन उस गति में अन्य तप किया, संयम किया, तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, उत्तम संहनन मिला―ये सब भी बाह्य कारण हैं, अर्थात् ये सब बहिरंग सहायक मात्र कारण हैं । जिस पुरुष को समागम अच्छा मिला, आजीविका अच्छी मिली अथवा नाना बड़प्पन की बातें मिली हैं, ऐसी अच्छी स्थिति मिली है जिसमें उसको संक्लेश नहीं है, ऐसी स्थिति इस जीव के कल्याण में बाह्य सहकारी कारण बनती है । भले ही कोई जीव इस समागम का दुरुपयोग करे, किंतु कोई ऐसी स्थिति में ज्ञानार्जन का चित्त करना चाहे, ध्यान को चित्त चाहे तो उसके लिये अवसर है ।
प्राप्त अप्राप्त समागम में प्राय: लोकों की प्रवृत्ति―भैया ! कुछ ऐसा भी अंदाज करिये जिस मनुष्य के पास जो वस्तु नहीं है उस मनुष्य को उस वस्तु संबंधी तृष्णा उत्पन्न होती है, यह बात प्राय: करके कह रहे हैं, और जिसके पास जो समागम है वह पायी हुई चीज में तृष्णा क्या करेगा, लोभ होगा, पर तृष्णा न होगी । तृष्णा और लोभ में कुछ अंतर समझ लीजिए । पाई हुई चीज में आसक्त होना लोभ है और न पाई हुई चीज की प्राप्ति के लिये विकल्प बढ़ाना तृष्णा है । अब देखिये प्राप्त और अप्राप्त के बारे में लोकप्रवृत्ति को । जैसे किसी भाई से कहा जाये कि तुम रात्रिभोजन का त्याग कर दो तो किसी से यह भी उत्तर मिल सकता है कि देखो साहब हम रात्रि को भोजन कभी नहीं करते, आज तक रात्रिभोजन नहीं किया ।अच्छा तो रात्रिभोजन का त्याग करने में कुछ कठिनाई होती है क्या? साहब त्याग कर देंगे तो फिर रात्रि में भोजन करने को मन चलेगा और नहीं त्यागते हैं तो रात्रि को भोजन करने का मन नहीं चलता है । यों कुछ और बढ़कर देखें―जो पाया हुआ समागम है वह समागम प्राय: कर के ज्ञान और वैराग्य का कारण बन सकता है । थोड़ा सत्संगति मिले, अच्छा वातावरण मिले, कुछ सुबुद्धि जगे तो ये बाह्य पुण्यकर्म भी, ये बाह्य पुण्य वैभव भी जीव के कल्याण में सहकारी कारण होते हैं किंतु निश्चय से तो जो आत्मा में निश्चयधर्म का परिणमन होता है वह ही अनिवार्यरूप से कल्याण का कारण बनता है ।
धर्मद्रव्य के गतिहेतुत्व पर अन्य आत्मविषयक दृष्टांत―धर्मद्रव्य के गतिहेतुत्व की प्रसिद्धि में एक अन्य दृष्टांत लीजिये―इस लोक रचना के भीतर देखो, जैसे भव्य हो अथवा अभव्य हो, इसका जो चारों गतियों में गमन होता है उस गमन का उपादान कारण तो उन-उन जीवों का आंतरिक शुभ अशुभ परिणाम है फिर भी द्रव्यलिंग, व्रत, दान, पूजा अव्रत आदि बहिरंग सहकारी कारण होते हैं । जो जिस गति में जायेगा उस गति के योग्य जो परिणमन किया अंतरंग में, वह परिणाम तो निश्चय से कारण है, पर मन, वचन, काय की जो और क्रियाएँ की गई हैं वे क्रियाएँ बहिरंग सहकारी कारण हैं, अथवा देखो कोई जीव विशुद्ध ऊँचा ध्यान बना रहा है तो उसकी आंतरिक जो स्थिति है, परिणामों की जो विशुद्धि है वही-वही तो आंतरिक मुनिधर्म है, उससे वह उन्नति कर रहा है, लेकिन बहिरंग में निर्ग्रंथ अवस्था में जो भी क्रियाएँ की जाती हैं वे सब मुनिधर्म की सहकारी कारण हैं । ऐसे ही जो जीव पुद्गलगमन कर रहा है वह उस गमनशक्ति से गमन किया करता है, किंतु उस प्रसंग में धर्मद्रव्यनामक यह अमूर्त व्यापक तत्त्व द्रव्य इस जीव पुद्गल की गति में बहिरंग सहकारी कारण होता है । यों धर्मद्रव्य जीव पुद्गल की गति का कारण होता है, इस संबंध में दृष्टांत दिया गया है । अब अधर्मद्रव्य के स्वरूप का वर्णन करते हैं ।