वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 94
From जैनकोष
जदि हवदि गमणहेदू आयासं ठाणकारणंतेसिं ।
पसजदि अलोगहाणी लोगस्स य अंतपरिवुड्ढी ।।94।।
आकाश में गतिस्थिति कारणता मानने पर आपत्ति―आकाश जीव पुद्गल की गति और स्थिति का कारण क्यों नहीं है? इस संबंध में फिर भी और युक्ति देते हैं । यदि आकाश जीव पुद्गल की गति का कारण होता और स्थिति का कारण होता तो एक तो यह दोष है कि अलोकाकाश कुछ कहलाता ही नहीं । दूसरे लोकाकाश के अंत की वृद्धि हो जाती । लोकाकाश तो बहुत बड़ा हो जाता और बड़ा क्या असीम हो जाता और अलोकाकाश रहता ही नहीं ।इससे यह समझना कि आकाश जीव पुद्गल की गति और स्थिति का हेतु नहीं है, क्योंकि अन्यथा लोक और अलोक की सीमा की व्यवस्था नहीं बन सकती ।
अनुमानज्ञान की प्रमाणता―लोग अनुमानज्ञान को एक कमजोर ज्ञान की दृष्टि से देखते हैं । जैसे बोलने लगते कि हाँ पता नहीं कि क्या बात है, अनुमान की बात है । लोग अनुमानज्ञान को कुछ अशक्त दृष्टि से देखा करते हैं, लेकिन अनुमानज्ञान को उतना ही प्रबल प्रमाण कहा गया है जितना प्रबल सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान प्रमाण होता है । न्यायशास्त्र में अनुमान के अंग5 कहे हैं―प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । जैसे बोलें कि इस पर्वत में अग्नि होनी चाहिए, क्योंकि अन्यथा धुवां होना न पाया जा सकता था । धुवां देखो पर्वत में से उठता हो तो अनुमानज्ञान बनाया कि इस पर्वत में अग्नि है धुवां होने से । जहाँ-जहाँ धुवां होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, जहाँ अग्नि नहीं होती है वहाँ धुवां नहीं होता है । इसमें पहली व्याप्ति का उदाहरण है रसोईघर । वहां धुवां है तो अग्नि भी है । दूसरी व्याप्ति का उदाहरण है तालाब । वहाँ अग्नि नहीं है तो धुवां भी नहीं है । और इस पर्वत में धुवां देखा जा रहा है, इससे सिद्ध है कि यहाँ अग्नि अवश्य है । इस ज्ञान में शक की बात है या दृढ़ता की बात है? दृढ़ता की बात है । लोक में प्रसिद्धि है कि अनुमानज्ञान शंका वाली बात में किया जाता है, किंतु ऐसा नहीं है । अनुमानज्ञान उतना ही दृढ़ प्रमाण है परोक्ष प्रमाण में जितना मति स्मृति आदिक हैं ।
आकाश में गतिस्थितिहेतुता मानने पर हुई दोषापत्ति का विवरण―यहां अनुमानज्ञान से यह सिद्ध कर रहें हैं कि आकाश जीवपुद्गल के चलने में कारण नहीं है, ठहरने में कारण नहीं है । अन्यथा लोक और अलोक की सीमा की व्यवस्था नहीं बन सकती । मान लो कदाचित् आकाश जीव पुद्गल के चलने का कारण है तो इसे कहां तक चलना चाहिए था? जहां तक आकाश मिले । और आकाश सर्वत्र है तब फिर जीव और पुद्गल की गति निःसीम हो जायेगी, और वे चलते-चलते रुकेंगे, फिर चलेंगे, फिर रुकेंगे, ऐसी भी बात बनती रहेगी तो रुकना भी अलोक में हो जायेगा, चलना भी अलोक में हो जायेगा । तब होगा क्या कि चलना तो हो ही रहा है और रुकना हो रहा है तब फिर अलोक क्या रहा?
उपग्रह का निर्णय―आकाश को जीवपुद्गल की गति स्थिति में निमित्त मानने परदो दोष ये होते हैं―एक तो अलोकाकाश का अभाव हो जायेगा और दूसरे लोकाकाश की वृद्धि हो जायेगी । इससे यह सिद्ध है कि आकाशद्रव्य का काम मात्र अवगाह देना है और यह भी धर्म अधर्मद्रव्य की तरह उदासीन निमित्त है, जो ठहरे तो ठहर जाये, जो चले तो चला जाये । यों आकाशद्रव्य अवगाह देने के लिए है । इस बात की यहाँ सिद्धि की है । अब आकाशद्रव्य के संबंध में इस ही प्रकरण को उपसंहारात्मक रूप से पुन: कह रहे हैं ।