वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 96
From जैनकोष
धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिणमा ।
पुधगुवलद्धिविसेसा करंति एगत्तमण्णत्तं ।।96।।
धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य व आकाशद्रव्य की एकता व अन्यता―धर्म, अधर्म और लोकाकाश ये समान परिमाण वाले हैं । जहाँ तक सब द्रव्य हैं उतने का नाम लोकाकाश है । जितना बड़ा लोकाकाश है उतना ही बड़ा धर्मद्रव्य है, उतना ही बड़ा अधर्मद्रव्य है । नाप की दृष्टि से देखो तो तीनों एक बराबर हैं, अमूर्त स्वभाव की दृष्टि से देखो तो वे तीनों एक बराबर हैं ।संपूर्ण एकक्षेत्रावगाही व अमूर्त स्वभावी होने से एकत्व को प्राप्त होने पर भी ये वास्तव में अपने-अपने रूप को लिए हुए हैं और पृथक्-पृथक् अपनी सत्त्व रखते हैं । व्यवहारदृष्टि से, स्थूल दृष्टि से समान परिणाम होने के कारण और एक ही जगह रहने के कारण इनमें एक समानपना पाया जा रहा है, लेकिन वास्तविक दृष्टि से इनका स्वरूप न्यारा-न्यारा है । धर्मद्रव्य तो गति का कारण है, अधर्मद्रव्य स्थिति का कारण है, आकाशद्रव्य अवगाह का कारण है और इनका प्रदेश भी विभक्त है ।
एकता व अन्यत पर एक स्थूल उदाहरण―जैसे एक ही घर में 10 आदमी रह रहे हैं, पर उन दसों का परस्पर में एक का किसी से मन नहीं मिलता तो जैसे यह कहा करते हैं कि एक घर में रहते हुए भी ये सब न्यारे-न्यारे ही हैं, मन ही नहीं मिलता । यह एक मोटी बात कही जा रही है । ऐसे ही ये धर्म अधर्म लोकाकाश एक प्रमाण वाले हैं । एक ही जगह रह रहे हैं परिवार के आदमी फिर भी एक जगह नहीं हैं । उनका शरीर न्यारा है, क्षेत्र न्यारा है, पर यहाँ तो ये तीन अमूर्त पदार्थ एक जगह रह रहे हैं, फिर भी किसी का स्वरूप किसी से मिलता नहीं है । जैसे पानी में मिट्टी का तेल डाल दिया तो एक जगह होकर भी वह पानी अपने ही स्वभाव को लिए हुए है, तेल अपने स्वभाव को लिए हुए है । मन नहीं मिलता अर्थात् उनका स्वरूप नहीं मिलता तो यों ये तीन द्रव्य विभक्त प्रदेशी हैं और विशेष रूप से पृथक् उपलब्ध हैं, इस कारण ये जुदे-जुदे ही हैं ।
एकता व भिन्नता बताने का हितकारी तात्पर्य―इसका तात्पर्य यह हुआ कि जैसे यह जीवद्रव्य पुद्गल आदिक 5 द्रव्यों के साथ और शेष अन्य जीवों के साथ एकक्षेत्रावगाह रूप से रहता है यों व्यवहार से यहाँ एकत्व समझ में आ रहा है, फिर भी निश्चय से सबके अपने-अपने धर्म जुदे-जुदे हैं अतएव उन सबसे मैं भिन्न हूँ । देखिये यहीं की बात, आप जितने में फैले हैं, जितने में चेतना प्रकाश हैं, ज्ञानभाव है उतने में आप हैं ना? उस क्षेत्र में ही यह शरीर है, उसी क्षेत्र में धर्मद्रव्य है, आकाशद्रव्य है,और आपके शरीर में जो असंख्याते जीव बस रहे हैं और असंख्याते जीवों की ही बात क्या, इस शरीर में निगोद जीव भी बस सकते हैं, तो अनंत जीव भी उसी जगह में अवगाह लिए हुए हैं, किंतु पैर में जो कीड़े फिर रहे हैं उन कीड़ों की संज्ञा, उन कीड़ों का उपयोग, उन कीड़ों की प्रवृत्ति कीड़ों जैसी है । आपकी संज्ञा, आपका विचार, आपका मन आप में आपकी तरह है, भिन्न-भिन्न स्वरूप को लिए हुए है । यह एक क्षेत्रावगाही जीवों की बात है ।
जीवों की परस्पर भिन्नता―भैया! परिवार में तो सभी प्रकट भिन्न नजर आते हैं ।यह इस शरीर में रहने वाला मैं, यहाँ दूसरे शरीर में रहने वाले दूसरे जीव, यों भिन्न-भिन्न शरीरों में रहने वाले ये भिन्न-भिन्न जीव हैं । आपको थोड़ा फोड़ा फुंसी हो तो आप ही उसकी वेदना को सहेंगे । दूसरा कोई प्रेमी हो तो चूंकि आपको विषयभूत बनाकर उसने रागपरिणमन उत्पन्न किया तो वह अपने रागपरिणमन से दुःखी होगा, न कि आपकी फोड़ा फुंसी के निमित्त से । उस फोड़ा फुंसी का क्लेश तो आपको ही भोगना पड़ेगा, कोई दूसरा नहीं भोग सकता । प्रत्येक जीव अत्यंत न्यारा है।
अपूर्व लाभ का अवसर―देखिये जैनधर्म का लाभ लूटने का यह ही मौका है । यह संसार विषम है । आज मनुष्य है, कल का कुछ पता नहीं कि किस गति में पहुंच जायेंगे, फिर क्या होगा, कब चेतना बनेगा? सोच लीजिए । इस भव में यदि धर्म और ज्ञान के लिए वर्द्धमान परिणाम हो रहे हैं तब तो संतोष की बात है । यदि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में वर्द्धमान भाव नहीं होता है तो एक बड़े खेद की बात है । आज मनुष्य हैं, कुछ अच्छे समागम मिले हैं, जैसा चाहे मन को स्वच्छंद बना ले, क्योंकि प्रभुता कुछ पायी है इस समय, लेकिन यह संसार तो अतिविषम है । जीव लोक पर दृष्टि डालकर देखिये, केवल यहाँ के थोड़े से वैभव और थोड़े से सुख में क्या तत्त्व बसा है? ऐसा उपाय बनावो कि यह आत्मा अपने स्वरूप का ज्ञान श्रद्धान और आचरण करके सदा के लिए संसार के संकटों से मुक्त हो सके, ऐसा उपयोग बनाना चाहिए, इसी में बड़प्पन है । धन बढ़ा लिया तो इससे कुछ बड़प्पन नहीं है । परिवार को योग्य बना लिया अथवा वे बुद्धिमान हो गए तो इससे भी आत्मा का कुछ बड़प्पन नहीं है । आत्मा का बड़प्पन तो रत्नत्रय की सिद्धि करना ही है । अपने आपका केवल यथावत् निश्चय हो जाये और इस ही रूप में अपने को लेते रहने का परिणाम हो जाये तो यही एकमात्र शरण है ।
मोहांधकार―यहां अन्य कुछ भी शरण नहीं है, सब असार है । घर के चार छ: जीवों में रमने का तो भाव रहे और पड़ौसियों के या गांव के किसी भी मनुष्य में कुछ चित्त भी नहीं जाता, उन पर कुछ दया की बुद्धि ही नहीं जाती तो इसको कम विपदा न मानो । अरे जब तक ऐसी बात मन में न आये कि जीव-जीव तो सब एक समान हैं, स्वरूप तो सबका एकसा है । न्यारे की दृष्टि से देखो तो जितने न्यारे गैर को देखते हो उतने ही न्यारे पर के लोगों को भी मानो, ऐसी झलक यदि कभी आती नहीं है तो समझो कि हम पर बड़ी विपदा है । यह अज्ञान का घोर अंधकार है ।
अंतर्ज्ञान में अनाकुलता―भैया! जिस उपाय से सम्यक्त्व जगे, सम्यग्ज्ञान की स्थिरता रहे, बस यही मात्र एक उपाय सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है, और कुछ नहीं । आज जैसे कुछ डर लग रहा है अचानक न जाने क्या हो जाये? जो भी वैभव है वह आपके हाथ न रहे । स्थितियां तो भयंकर हैं । जो परिजन हैं वे न रहे ऐसी शंकायें रखते हैं ना? ठीक है । यह तो हुई बाह्य व्यवस्था और एक होता है अंतरंग का अज्ञान―इन दो में तो महान् अंतर है । अंतरंग में जो अज्ञान बसा हुआ है तो इसकी घबड़ाहट है और अंतरंग में अज्ञान नहीं बसा है, सम्यग्ज्ञान बन रहा है तो अंतरंग में अनाकुलता रहते हुए भी ये बाह्य व्यवस्थाएँ बना सकते हैं ।
उपदेश का प्रयोजन―जितने उपदेश हैं उन समस्त उपदेशों का सार इतना है कि यह ज्ञान में आ जाये कि जीव जुदा है और यह पुद्गल जुदा है । मेरा विनाश मेरे जीवपरिणामों में मलिनता कलुषता आने से होगा । किन्हीं बाह्यपदार्थों के नष्ट होने से मेरा विनाश न होगा, और यह विनाश भी क्या है? सत्ता से विनाश की बात यहाँ भी नहीं है, किंतु हम आनंदरूप में न रह सकें, क्षोभरूप प्रवृत्ति में रहा करें, यह हमारी बरबादी है, ऐसी बरबादी हम में तभी होती है जब हम अपने आप में मलिन परिणाम किया करते हैं । अंतरंग में मलिनता न जगे, यही एक हमारा सच्चा बड़प्पन है और यही सच्ची विभूति है ।
प्राप्त क्षयोपशम―भैया! इस जीव का जो विकास होता है उस विकास में सबसे पहिले तो क्षयोपशम की जरूरत होती है, क्षयोपशमलब्धि की जरूरत है । तो क्षयोपशमलब्धि तो हम आपको मिल चुकी है । हम आप में इतना ज्ञान है कि जिस बात का निर्णय करना चाहें निर्णय कर लेते हैं । जिस बुद्धि में इतनी सामर्थ्य है कि बड़ी-बड़ी लौकिक व्यवस्थावों की व्यवस्थाएँ हल कर ले, बड़ी ऊँची समस्याएँ सुलझा लें । उस ज्ञान में क्या इतनी योग्यता नहीं है कि इस ज्ञाता को पहिचानने चलें तो पहिचान लें । केवल एक राग का आवरण पड़ा है, इस कारण से हम अपने आत्मा का सीधा सही परिचय न कर पायें, लेकिन योग्यता हम आप सबमें आ चुकी है कि आत्मपरिचय कर ले । तो योग्य क्षयोपशम हम आपके है ।
विशुद्धि व उपदेशग्रहणयोग्यता―देखिये विशुद्धि भी हम आप में अनेक अंशों में आ चुकी है । बहुत क्रूरता भी नहीं है, बहुत लंपटता भी नहीं है । धर्म का भी ख्याल रहता है और धर्म के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का भी भाव रखते हैं, विशुद्धि भी बराबर मिली हुई है, उपदेश भी बहुत मिले हुए हैं । उपदेशों से भरे हुए ये अनेक ग्रंथराज मिले हैं, जिन में इनके समझने की शक्ति है वे इन्हें पढ़कर उपदेश का ही तो लाभ लेते रहते हैं, और इनको जानने वाले जो बतायें वह भी उपदेश है । तो उपदेश पाने की भी सुविधा मिली है और उस उपदेश को ग्रहण करने की भी योग्यता मिली है । अब जरूरत तो मनन की है । हम अपने आप में तत्त्व विषयक मनन बनाये । मैं क्या हूँ, ये अन्य पदार्थ क्या हैं, इनसे मेरा क्य संबंध है? बाह्यपदार्थों का संगम मेरा कहाँ तक पूरा पाड़ेगा, किसमें मेरा हित है? इस बातपर ध्यान दीजिए ।
मनन व भेदविज्ञान का यत्न―यह सब वक्तव्य एक भेदविज्ञान के लिए है । तो अब यहाँ जो कुछ तत्त्व के विषय में ज्ञान बनाया वह ज्ञान वस्तुस्वरूप के माफिक है, लेकिन जिस क्षण में पर के विकल्प टूटकर अपने आपके स्वरूप में उपयोग समायेगा, श्रद्धान होगा, अनुभव होगा तब यही सब ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जायेगा । फिर सम्यग्ज्ञान बनने के बाद ही पूर्वकाल की वासना परेशान करती है, पुन: पुन: अपने आप में शिथिलता आती है । बाह्य में उपयोग चलता है तो उस बाह्य उपयोग की निवृत्ति के लिए बार-बार भेदविज्ञान का प्रयोग करना चाहिए, भेदविज्ञान की भावना भानी चाहिए । सम्यक्त्व हो जाने के बाद भेदविज्ञान की भावना की आवश्यकता नहीं हो, ऐसा नहीं है । सम्यक्त्व होनेपर भी जब तक यह ज्ञान ज्ञान में प्रतिष्ठित न हो जाये, अपने स्वरूप में न समा जाये, जब तक विकल्प रहें तब तक इस भेदविज्ञान की भावना करनी चाहिए ।
अभेदानुभूति का पुरुषार्थ―जब इस भेदविज्ञान की भावना का दृढ़ अभ्यास हो जायेगा तब बाह्य से उपेक्षा करके अभेद निज चैतन्यस्वभाव में स्थिर होने की विशेषता होनी चाहिए ।तब यह कदम होगा अभेदानुभूति का । इस अभेदानुभूति से जो आनंद प्रकट होता है उस आनंद में यह सामर्थ्य है कि रागादिक विभावों का विनाश करे और द्रव्यकर्म कलंकों का भी नाश करने में निमित्त बने । यों सत्य आनंद पाने के लिए ही धर्म का पालन होता है । कष्ट सहने के लिए धर्म का पालन नहीं किया जाता । यों इस सहज परम विशुद्ध स्वाधीन आनंद की प्राप्ति के लिए आनंदधाम निज चैतन्यस्वरूप का अनुभव करना चाहिए, और यह सब होगा ज्ञानद्वारा साध्य । इससे अपने इस जीवन को ज्ञानार्जन में लगाकर उस ज्ञानामृत से सींचकर सफल कीजियेगा । जैनशासन का अनुपम लाभ लूटने का यही मौका है । मौका चूक जाने पर अर्थात् विषयकषायों की मलिनता से अपने आपके जीवन को बिगाड़ लेने पर फिर इस जीव पर क्या बीतेगी, वह बहुत कठिन बात होगी । यहाँ इन 5 अस्तिकायों का वर्णन किया गया है । अब इस चूलिका में अन्य बातें कही जायेंगी ।