वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 97
From जैनकोष
आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्ति परिहीणा ।
मुत्तं पुग्गलदव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ।।97।।
चूलिका में द्रव्यों के विभाग का प्रतिपादन―आकाशद्रव्य, कालद्रव्य, जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य―ये 5 द्रव्य मूर्तिकता से रहित हैं अर्थात् रूप, रस, गंध, स्पर्श से शून्य हैं । एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्तिक है और इस परिस्थिति में उपाधि के संबंध से, उपचार से जीव भी मूर्त कहलाता है । इन सब पदार्थों में से चेतन केवल जीव है । यह उस अधिकार की चूलिका चल रही है ।चूलिका का अर्थ है जो कहा हो, उसमें जो कुछ अंश छूट गया हो उसे कहना । उससे संबंधित कुछ और कहना हो उसे कह देना, इसको चूलिका कहते हैं । जैसे आप किसी अपने मित्र से या किसी से भी एक-आध घंटा बातें करते हैं तो बातें कर चुकने के बाद जब आप उससे विदा होते हैं तो चूलिकारूप में कुछ लगार की बात कहकर जाया करते हैं वह उस प्रसंग की चूलिका है, कही हुई बात भी कहना व न कही हुई बात भी कहना । यहाँ द्रव्यों में मूर्तद्रव्य कौन है, अमूर्तद्रव्य कौन है, चेतन कौन है, अचेतन कौन है? इसका वर्णन किया गया है ।
द्रव्यों में मूर्त व अमूर्त का विभाग―मूर्त कहते हैं उसे जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के सद्भाव का स्वभाव हो । तब निरख डालिये―6 द्रव्यों में से किस द्रव्य में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाया जाता है? केवल पुद्गल में पाया जाता है यह मूर्तिकपना और जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के अभाव का स्वभाव पाया जाये उसे अमूर्त कहते हैं । तो निरख डालो, किन-किन द्रव्यों में ऐसा स्वभाव है कि त्रिकाल भी जिन में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण न हो सकें । इनके अभाव का स्वभाव जिसमें पाया जाये वह अमूर्त पदार्थ है । ऐसे अमूर्त पदार्थ आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म ये 5 हैं ।
द्रव्यों में चेतन और अचेतन का विभाग―अब चेतन और अचेतन का विभाग सुनिये ।जिसमें चेतन के सद्भाव का स्वभाव पाया जाये वह द्रव्य है चेतन । अब निरख डालो, किस द्रव्य में चेतन के सद्भाव का स्वभाव पाया जाता है? एक जीवद्रव्य में । जो प्रतिभासने का काम करे, जिसमें जानकारी बने वही तो चेतनस्वभाव के सद्भाव वाला पदार्थ है, वह केवल जीवद्रव्य है । देखो जिसमें आनंद भरा हुआ है उसमें ही दुःख की नौबत आती है । शेष 5 द्रव्यों में सत्ता तो उनके है, पर सत्ता होकर न उनके आनंद है, न उनके दुःख है । हम आप सोचे कि हम जीव सत् ही क्यों हुए? हम पुद्गल, धर्म, अधर्म आदिक इन सत्रूप होते तो भला था । अब सोचने से क्या होता है? तुम तो जीव ही सत् हो । अब जैसे तुम्हारा गुजारा बने, निपटारा बने उस काम का यत्न करो ।
जीव का प्रबल बैरी―इस जीव का प्रबल बैरी घातक मोहभाव है, जो कि व्यर्थ का मोहभाव है । स्वरूपदृष्टि से देखो तो यह आत्मा अकेला ही है, अनादिकाल से अकेला ही रहा आया है व अनंतकाल तक अकेला ही रहेगा । वर्तमान में भी पूर्ण अकेला है । इसमें दूसरे पदार्थ का संग भी नहीं है । यह मेरा है, ऐसा सोचना यही एक बड़ी विपदा है । परिस्थितिवश जो काम करना हो, जो काम किया जाता हो वह काम कर लेवे वह उतना बुरा नहीं है, पर‘यह मेरा है’इस प्रकार की जो भीतर में प्रतीति है यही है जीव की प्रबल बैरी ।
ज्ञानप्रकाश की विशेषता―कोई यों भी अपनी सफाई पेश कर सकता है कि साहब हम तो सम्यग्दृष्टि हैं, हमारे किसी द्रव्य में ममता नहीं है, मोह नहीं है । गृहस्थी है इसलिए यह सब निभाना पड़ता है । ऐसी बात हो सकती है, पर ऐसी सफाई देने वाली संख्या अधिक हो सकती है । यदि अंत: यह श्रद्धा बन गयी है, भेदविज्ञान हो तो उसके फल में उदारता का परिणाम भी व्यक्त हुआ ही करता है । उदारता का परिणाम न हो, व्यवहार में त्याग की कुछ बात भी न चलती हो और वह भी एक बेअटक दिल से तब यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे भीतर निर्मोहता की परिणति बनी हुई है । जब मेरे एक आत्मस्वरूप से सब कुछ न्यारा है, यह प्रकाश हो तब यह प्रकाश तो अपने प्रकाश के अनुरूप ही काम करेगा ।
जगत की असाररूपता―इस जगत में सारभूत पदार्थ बाह्य में कुछ नहीं है । थोड़ी देर के लिए किसी ने अच्छा बोल बोल दिया, कुछ अपना प्रेम दर्शाया, कुछ सुहावना भी लगा, लेकिन कितने दिन की बात है, और प्रथम तो यही बात है कि यह इसका प्रेम आज के लिए है, कल का कुछ भी ठेका नहीं है कि कैसा चित्त बने? पति-पत्नी, पिता-पुत्र सभी का कोई विश्वास नहीं है कि कब तक प्रेम रहे? यों तो एक विश्वास और कल्पना के आधार पर व्यवहार के बड़े-बड़े काम भी चल रहे हैं । यदि एक भीतर में छल आ जाये तो आपको 20) रु0का मनीआर्डर भी वसूल करना कठिन हो जायेगा । डाकिया कहेगा कि पहिले दस्तखत करो, आप कहेंगे कि पहिले रुपये दो, लेकिन विश्वास के आधार पर यह सब कुछ सधा हुआ है, टिका हुआ है । यों ही विश्वास के आधार पर आप अपने परिजनों को कहते हैं कि ये मेरे हैं, इन पर मेरा अधिकार है, ये आजीवन मेरे अनुकूल रहेंगे, लेकिन दम भरकर कुछ भी नहीं कहा जा सकता ।
अचेतन पदार्थ और व्यामोही की प्रकृति―यह जीव चेतन है, इसमें चैतन्य के सद्भाव का स्वभाव पाया जाता है, किंतु जिसमें चेतन के अभाव का स्वभाव पाया जाये उसे अचेतन कहते हैं । यह भी देख लीजिए । कौन-कौन से द्रव्य अचेतन हैं? एक जीवद्रव्य को छोड़कर शेष5 द्रव्य अचेतन हैं । यह जीव चेतन पदार्थ में भी व्यामोह करता है और अचेतन पदार्थ में भी व्यामोह करता है । और बात तो दूर रहो, किसी समय कोई पुरुष धर्म अधर्मद्रव्य जैसा सूक्ष्म अमूर्त पदार्थ की चर्चा कर रहा हो तो उसके खिलाफ कुछ अन्य प्रकार से स्वरूप बताने वाला कोई दूसरा विवाद करने लगे तो अमूर्त धर्मद्रव्य की चर्चा के विवाद के प्रसंग में भी गाली-गलौज और झगड़े भी हो सकते हैं । यह विडंबना धर्मद्रव्य के मोह में हुई है । देखिये―जो दिखता नहीं है, जिसकी हम स्पष्ट सिद्धि भी नहीं कर सकते, प्रत्यक्ष दिखा भी नहीं सकते, केवल आगम के आधार पर जानकर हम चर्चा कर रहे हैं और उसकी चर्चा के विकल्प में ही मेरा-तेरा लगा है । कितना व्यामोह घुसा हुआ है इस संसारी प्राणी में?
जीव का विकार व विकार का अपनायत―यह व्यामोही प्राणी अचेतन से भी मोह करे, चेतन से भी मोह करे, और अपने आपके चेतन में बसे हुए जो चिदाभास विकल्प वितर्क विचार रागादिक भाव हैं उनसे भी मोह करता है । जो मैं कहता हूँ सो ठीक है, यह भी मोह की बात है कि नहीं? जो उसका विकल्प है, जो उसका विचार है उसे ठीक कह रहा है । अरे यह मालूम है कि जितने भी विचार हैं, जितने भी विकल्प हैं ये सब परभाव हैं, और परभावों को यह अपना रहा है तो यह मोह की बात हुई ना? इस चेतन पर बड़ी जिम्मेदारी है । उन 5द्रव्यों का क्या बिगाड़ है? कहीं कुछ हो । धर्म, अधर्म, आकाश और काल―इन 4 का तो कुछ बिगाड़ ही नहीं है । रही पुद्गल की बात सो पुद्गल जल जाये, मिट जाये, छिद जाये, भिद जाये, इसको ही तो हम आप जीव लोग बिगाड़ कहा करते हैं । उन पुद्गलों की ओर से कोई देखे तो उनका क्या बिगाड़? ढेला रहे तो क्या, चूरा रहे तो क्या, लकड़ी रही तो क्या, राख रही तो क्या? बिगाड़ तो सारा जीव का है, और लोक में किसी का भी बिगाड़ नहीं है । इस जीव का बिगाड़ विकार है । विकार से ही बिगड़ा शब्द बिगाड़ है । इसने अपना बिगाड़कर लिया, इसका सीधा अर्थ तो यही है कि इसने अपना विकार कर लिया । जो स्वभाव से परिणमना था, जो शुद्ध वृत्ति होनी थी, उस शुद्ध वृत्ति से विपरीत चला गया, यों यह जीव मोहवश अपना बिगाड़ किये चला जा रहा है।
जीवद्रव्य की व्यवहार से मूर्तिकता―इन 6 द्रव्यों में आकाश, काल, जीव, धर्म और अधर्म―ये 5 अमूर्त पदार्थ हैं, उनमें भी किसी पदार्थ में मूर्तिकता की किसी रूप में संभावना हो सकती है तो वह जीवद्रव्य में । वह किस तरह? यद्यपि यह जीवद्रव्य निश्चय से अमूर्त अखंड एक प्रतिभासमय है, अमूर्त है स्पष्ट । तो भी जब यह जीव रागादिक विकाररहित सहजआनंद एकस्वभावरूप आत्मतत्त्व की भावना से रहित होने के कारण इस जीव के द्वारा जो उपार्जित मूर्तिक कर्म हैं उस कर्म के संसर्ग से यह जीव बंधन की दृष्टि से मूर्तिक भी होता है । देखो ना, जैसे कि यह जीव शरीर में बँधा फंसा है, शरीर जले तो जीव भी जले, ऐसा बंधन किसी अन्य अमूर्त पदार्थ में है क्या? किसी पुद्गल के बँध जाने से या जीव के बँध जाने से कभी इस आकाश में भी विचलितपना हो जाता हो, धर्म और अधर्म काल में भी विचलितपना हो जाता हो, कहीं युक्ति में उतरता है क्या? केवल जीवद्रव्य ही ऐसे बंधन को प्राप्त हो गया । उस बंधन की दृष्टि से यह जीवद्रव्य मूर्तिक कहा जाता है । तो उस कर्म के संसर्ग से यह जीव व्यवहार से अमूर्तिक भी होता है । पुद्गलद्रव्य तो स्पष्ट मूर्तिक है ।
उपादेय तत्त्व―इन 6 द्रव्यों में चेतक पदार्थ, जीव ही उपादेय है, क्योंकि अपने और परपदार्थ के परिच्छेदन करने में समर्थ चेतनभाव से परिणत जीव पदार्थ ही हुआ करता है । अब इस ही चेतकता को जब हम इस दृष्टि से निरखें कि जो संशय विपर्यय अनध्यवसायरहित निज का और पर का परिच्छेदन रूप चेत रहा हो वह तो परमार्थत: चेतन है और इस प्रकार जो अपने को न चेत रहा हो वह परमार्थत: अचेतन है । यहाँ जीव जीव में ही घटाइये । जैसे किसी जीव को कह देते हैं कि यह तो अज्ञानी बन रहा है, यह तो अचेतन बन रहा है, जड़ हो गयाहै । तो जब इसकी चेतकता पर दृष्टि डालते हैं तो जहाँ शुद्ध चेतकता न हो उसे भी अचेतक कह सकते हैं । लेकिन चेतन और अचेतन का निर्णय स्वभाव से होता है, न कि परिणमन से ।इसीलिए तो यह बात कही गई है कि जिसमें चेतने के सद्भाव का स्वभाव हो वह है चेतन और जिसमें चेतने के अभाव का स्वभाव हो वह है अचेतन । जीव के सिवाय अन्य 5 द्रव्यों में स्व और पर का प्रकाश करने वाला चैतन्यभाव नहीं है; इस कारण ये शेष द्रव्य अचेतन हैं । इस प्रकार इन द्रव्यों में मूर्त अमूर्त और चेतन अचेतन का विभाग बताया गया है ।