वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 99
From जैनकोष
जे खलु इंदियगेज्झा विसया जीवेहिं हुंति ते मुत्ता ।
सेसं हवदि अमुत्तं चित्तं उभयं समादियदि ।।99।।
मूर्तिक पुद्गल―जो जीवों के द्वारा इंद्रियों से ग्रहण में आता है वह विषय तो मूर्तिक कहलाता है और शेष अर्थात् इंद्रियग्राह्य पदार्थों से भिन्न समस्त अमूर्त पदार्थ कहलाते हैं ।जीव स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु इंद्रिय के द्वारा तो उनके विषयभूत स्पर्श, रस, गंध, वर्णस्वभाव वाले पदार्थ उपभोग में ग्रहण किया करते हैं, परंतु श्रोत्र इंद्रिय के द्वारा वे ही अर्थश्रोत्र इंद्रिय के विषयभूत शब्दों के आकाररूप से परिणत हो होकर ग्रहण में आया करते हैं ।अर्थात् यह जीव स्पर्शन इंद्रिय के द्वारा स्पर्श को भोग में लेता है, रसना इंद्रिय के द्वारा रस को भोगता है, घ्राण इंद्रिय के द्वारा गंध भोगता है, चक्षु इंद्रिय के द्वारा रूप भोगता है और श्रोत्रइंद्रिय के द्वारा शब्दों को भोगता है । वे समस्त पदार्थ कभी जब स्थूल स्कंध बन जाते हैं तब तो यह इंद्रियों द्वारा उपभोग में आता है और कभी सूक्ष्म स्कंध हो जाता है और कभी परमाणु अवस्था को प्राप्त हो जाता है । इन स्थितियों में ग्रहण में नहीं आता । लेकिन इंद्रियों द्वारा पुद्गलों को ग्रहण किये जाने की योग्यता इनमें बनी हुई है । ये कभी ग्राह्य स्कंधरूप में आयें तब व्यक्त ग्रहण किये जा सकते हैं । इस कारण जीव के द्वारा ये पदार्थ ग्रहण में आ रहे हों तो और ग्रहण में न आ रहे हों तो मूर्तिक ही कहलाते हैं ।
समस्त पुद्गलों में मूर्तिकता―पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है और शेष समस्त पदार्थ अर्थसमूह चूंकि उनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के अभाव का स्वभाव है अर्थात् जीव, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य इनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण नहीं है, अतएव वे इंद्रियों के द्वारा ग्रहण में नहीं आ सकते । इनमें यह योग्यता भी नहीं है कि इंद्रियों द्वारा ग्रहण में आ सके । अतएव ये पदार्थ अमूर्त कहलाते हैं । तो इंद्रियां मूर्तपदार्थों को ही ग्रहण करती हैं, किंतु मन में ऐसी योग्यता है कि यह मूर्तपदार्थों को भी जान सके और अमूर्त पदार्थों को भी जान सके, लेकिन जानेगा परोक्षरूप से ही । जैसे अमूर्त के बारे में अपने को जान ही गए हैं, आकाश है, जीव है, धर्म अधर्म है, आगम से जाना, अनुमान से जाना । जिस किसी भी प्रकार जाना, मन से जाना तो परोक्ष जाना ।
नियतविषयता व अनियतविषयता, प्राप्यकारिता व अप्राप्यकारिता―वह मन अनियत विषय वाला है अर्थात् जैसे स्पर्शन इंद्रिय का विषय स्पर्श है, छू करके हम रस नहीं जान सकते हैं कि इसमें कैसा रस है? छू करके स्पर्श ही जाना जा सकता है । रसना इंद्रिय से रस ही जाना जा सकता है अन्य बात नहीं । घ्राण से गंध ही जानी जा सकती हैं अन्य बात नहीं । चक्षुइंद्रिय से रूप ही जाना जा सकता है अन्य बात नहीं । श्रोत्र इंद्रिय से शब्द ही जाने जा सकते हैं । जैसे इन इंद्रियों का विषय नियत है इसी प्रकार मन का विषय नियत नहीं है । कुछ भी जान ले, इस कारण मन को अनियत विषय वाला कहा है और यह अप्राप्यकारी है । जैसे स्पर्शनइंद्रिय, रसनाइंद्रिय, घ्राणइंद्रिय, कर्णइंद्रिय ये प्राप्यकारी हैं इसी प्रकार मनप्राप्यकारी नहीं है । देखो भिड़ करके जानने का नाम प्राप्यकारी हे । जब कान में शब्द भरते हैं तो शब्द जाने जाते हैं, जब नासिका में गंध भरती है तो गंध जानी जाती है । रसना से रस जाना जाता, स्पर्शनइंद्रिय से जब स्पर्श भिड़ जाता है तब स्पर्श जाना जाता है, यों चार इंद्रियां प्राप्यकारी हैं,आँखे अवश्य अप्राप्यकारी हैं ।
ज्ञान की पद्धति के ज्ञान के लिये दृष्टि का दृष्टांत देने का कारण―दूर रखी हुई चीज को ये आँखें भिड़े बिना जानती हैं और इसी कारण इस आत्मा के उस ज्ञातादृष्टा स्वभाव को बताने के लिए आँखों का अनेक जगह उदाहरण लिया जाता है । जैसे ये आँखें दूर रहने वाली चीजों को बिना भिड़े जान जाती हैं, ऐसा कई जगह दृष्टांत दिया है । जैसे ये आँखें दूर रखी हुई चीज को नहीं करती हैं, नहीं भोगती हैं, किंतु जानती भर हैं, इसी प्रकार यह ज्ञान दूर रहनेवाले पदार्थों को न करता है, न भोगता है, किंतु जानता मात्र है, यह उदाहरण दिया जाया करता है । तो ये आँखें भी अप्राप्यकारी हैं, ऐसे ही मन अप्राप्यकारी है । यह मन किसी परपदार्थ से भिड़कर नहीं जानता, यही मन उनके बारे में अपने चिंतन से उन्हें जान जाता है । यह मन मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का साधनभूत है । मन के द्वारा श्रुतज्ञान भी होता है, मतिज्ञान भी होता है । हाँ मन मूर्त और अमूर्त पदार्थों को जानता है । इस गाथा में मूर्तिकता का व अमूर्तिकता का स्वरूप बताया है―जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाये जायें उसे मूर्त कहते हैं और जिसमें ये न पाये जाये वे अमूर्त हैं । देखो यह आत्मा भी अमूर्त है, सबसे न्यारा केवल अपने स्वरूपमात्र है । ऐसा अमूर्त होकर भी यह आत्मा आज कितना भयशील है, बंधन में पड़ा है? ये सारी स्थितियां इसकी बन रही हैं, यह सब बड़े विषाद की बात है । आत्मा के स्वरूप को निरखो तो यह तो विशुद्ध ज्ञान और आनंदस्वरूप है । इसमें कोई भय, शंका, खेद, विपदा किसी की भी गुंजाइश नहीं हैं, लेकिन हम अपने ऐसे स्वरूप को सम्हालें तब ऐसी वृत्ति बने ।हम अनादि मोह से मलीमस होकर, परपदार्थों में ममता बनाकर अपने आपकी निराकुलता को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, किंतु जब भी इस जीव का सुधार होगा इस ही उपाय से सुधार होगा ।विषयों के सेवन से, विषयों की प्रीति से सुधार नहीं हो सकता है । बात कठिन लग रही है, परंतु कोई क्षण ऐसा आयेगा कि मोह का त्याग, परिग्रह का त्याग यह कुछ कठिन न लगेगा, बल्कि मोह और परिग्रहों की ओर उपयोग भी न ढूंककर देखेगा । हो दृढ़ता से अपने ज्ञानप्रकाश का अनुभव,अपने आपकी सम्हाल से ही अपना कल्याण है ।
हमारा कर्तव्य―भैया! हम अधिकतर अपने इस अमूर्त स्वरूप की ओर दृष्टि रक्खें ।निज को निज और पर को पर जानने की जब दृढ़ता नहीं रहती है तब ही आकुलतावों की उद्भूति होती है । अनादि से लेकर अब तक जो आकुलतावों का तांता लगा आया है, इसका कारण यह है कि इन समस्त परपदार्थों से भिन्न इस निजस्वरूप की प्रतीति नहीं की । जब भी शरण होगा तो हमारे लिए, हमारी विशुद्ध प्रवृत्ति ही शरण बनेगी । यहाँ तक 5 द्रव्यकायों का वर्णन किया गया । अब इस अधिकार में 5 अस्तिकायों से बचा गया, जो एक कालद्रव्य है उस कालद्रव्य का व्याख्यान करते हैं ।