वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 64
From जैनकोष
विसयकसायहिं रंगियहिं ज अणुया लग्गंति ।
जीवपएसहिं मोहियहं ते जिणकम्मु भणंति ।।64।।
विषय कषायों से रंजित पुरुषों के जो कर्म परमाणु लग जाते हैं जीव प्रदेशों में, उन्हें जिनेंद्र भगवान ने कर्म कहा है । वे कर्म किसके लग जाते हैं? जो विषयों के अनुरागी हैं और कषायों में लगे होते हैं । ये विषय-कषाय शुद्ध आत्मा के अनुभव से विपरीत भाव हैं । उन विषयकषायों में अनुरक्त पुरुषों को अपना होश नहीं रहता है । लोक में भी अपने स्वार्थ के गर्जी अधिक हैं । उन्हें अपना भी होश पूरा नहीं रहता है । एक अलंकाररूप में कवि एक कल्पना करता है कि एक बार राक्षसों ने ब्रह्मा से देवों की शिकायत की कि तुम बड़े पक्षपाती हो । हर कामों में देवों का तो पक्ष करते हो और हम लोगों का कुछ ख्याल नहीं करते । तो कहा―अच्छा सोचेंगे । एक बार ब्रह्मा ने कहा―देवताओं से तथा राक्षसों से कि लड्डू परोसे जायेंगे सो एक ही पंगत में दोनों बैठ लो । देवता तथा राक्षस आ गए । ब्रह्मा ने सबके हाथ सीधे बांध दिये जिससे कि कोई मुड़ न सके । ऐसे हाथ बांध दिये जैसे पलस्तर लगता है । देवताओं तथा राक्षसों के हाथ बांधकर दो हालों में अलग-अलग बिठा दिये । एक हाल में देवताओं को बिठाया और एक में राक्षसों को । अब पत्तल परोस दिए गये । राक्षसों ने विचार किया कि हाथ तो बंधे हुए हैं, अगर लड्डू भी उठा लें, सीधा हाथ करके व मुँह के सामने छोड़ दें तो यह निश्चित नहीं है कि मुँह में आ ही जायेंगे । राक्षस बड़े हैरान हुए । पंगत में बढ़िया-बढ़िया मिठाई थी, पर यहाँ हाथ कस दिया । अगर हाथ मुड़ते होते तो हम साल भर की कसर निकाल लेते । ठीक है, देवताओं ने क्या किया सो पीछे बतावेंगे । आध घंटे खाने का टाइम जब समाप्त हो गया तो दोनों के दोनों एक साथ मंडप में आ गए । तो देवता लोग तो डकारें ले रहे थे और राक्षस धुन रहे कि पंगत तो दी पर बड़ी चालाकी की । अब भी राक्षस बतलाते हैं कि महाराज आपने यहां भी पक्ष किया । शायद जीमते समय में इनके हाथ खोल दिये होंगे, चुपचाप । सो इन्होंने खूब खाया और हम लोगों के हाथ बंधे रहे । ब्रह्मा बोले या कोई ही बोलो कि नहीं-नहीं; हाथ दोनों के ही बंधे थे । तो ये देवता लोग डकार ले रहे हैं; इनका पेट कैसे भर गया? कहा देवताओं का पक्ष नहीं किया । देवता बोले―महाराज ! तुमने दोनों के हाथ बांध दिए थे । हाथों से हम खा न सकते थे, मगर पास में जो दूसरे देवता बैठे थे उनको खिलाने में कोई तकलीफ नहीं आयी । हममें से एक देवता ने अपने पास के देवता को खिला दिया और उसने दूसरे को खिला दिया । दूसरे को हाथ से उठाकर लड्डू खिला देने में तो कोई अड़चन नहीं आती । तब ब्रह्मा ने कहा―देखो, जो देवताओं की पूछ ज्यादह होती है वह बुद्धि के ही कारण होती है । तुम लोगों को यह अक्ल ही नहीं आयी कि एक पास वाले को लड्डू खिला देता और वह दूसरे को खिला देता । तो देखो ! तुम दोनों में यही तो अंतर है अपने स्वार्थ की मात्रा अधिक हो जाती है तो अपना ख्याल नहीं रहता ।
वह क्या मनुष्य है जो अपने पंचेंद्रिय के विषयों की वासना की पूर्ति में ही जुटा रहे । ये तन, धन सब विनाशीक हैं, मिट जायेंगे, आपके देखते-देखते मिट सकते हैं । जब पाप का उदय आयेगा तो देखते-देखते यों ही खतम हो जायेंगे । जैसे हाथी केला खाता है, पूरा खा लेता है । बस, जब लीद करता है तो पूरा बेल निकल आता है । लीद में भी बेल खोखला रहता है, उसका रस, उसका गूदा सब खींच लेता है और वह कही से नहीं फूटता; तो ज्यों का त्यों निकल आता है । वह खोखला रह जाता है । इसी तरह पापों के उदय में आपको पता ही पड़ेगा कि धनवैभव कहा से निकल गया । वह निकल जाता है, खोखला रह जाता है हेतु का पता नहीं पड़ता । जो विषय-कषायों में रंगे हुए है उनका जीवन बड़ी गरीबी का जीवन है । भैया ! पूर्ण प्रसन्नता ही तो चाहिए । यह मोही जीव विषयों के परिणाम कर के प्रसन्न रहना चाहता है और परोपकारी जीव पर सेवा करके प्रसन्न रहते हैं । दुनिया में प्रसन्नता की जाति में भी बड़ा अंतर है । कल्पना का ही तो सुख है । कितने ही विवेकी लोग ऐसे होते हैं कि भोजन बनाया तो औरों को खिला दें, फिर अपन खावें । बढ़िया बना तब तो ये लोग समझे कि सेठजी इतना उत्तम खाते हैं । इनको हमारे सुख का पता ही नहीं है तो वह क्या सुख है? और जो विषयों में अधिक आसक्ति रखते हैं वे तो हड़प-हड़पकर चाहे कुछ सोचते हों जीजी न आ जाये, नहीं तो अच्छी चीज उसे भी देना पड़ेगा । विषयासक्त पुरुषों का जीवन दुःखपूर्ण है और वहाँ जो कार्माणवर्गणाओं का बंध हुआ उसे ही कर्म कहते हैं ।
‘‘जो जस करहि सो तस फल चाखा ।’’ जो जैसा करता है उसे वैसा फल मिलता है । भैया ! देखो कि जैन सिद्धांत में प्रारंभ से अंत तक यही वर्णन, है कि मोह छोड़ो, मोह छोड़ो । पर जैसे-जैसे आचार्य हर एक ग्रंथ समझाते हैं कि मोह छोड़ो, वैसे ही ये मोह और बिरादरी के पीछे अधिक बढ़ते जाते हैं । जरा दृष्टि पसार कर देख लो अन्य जनों में जिन्हें हम कुछ भी कहें, सिख हो, मुसलमान हो, ईसाई हो उनके वैभव और परिवार में मोह नहीं होता है । अनुमान लगा लो खुद का ही तो दिल है । खुद की ही तो कहते हैं, मन में सोच लो । क्या गजब हो गया । जैसे छोटे बच्चों को ऊधम करने से मना करते हैं तो बच्चे और ज्यादह ऊधम करते हैं । ऐसे ही बच्चे तो हम और आप भी बन रहे हैं । जैसे-जैसे आचार्यों ने हम से कहा मोह छोड़ो । तैसे-तैसे मोह और बढ़ता जाता है । मोह कहते हैं एक भीतर की लगन को जिसके यह हिम्मत नहीं रहती कि मैं अकेला रह जाऊं तो आनंद से रह सकूंगा । मैं अकेला रह जाऊं तो सुखी हो सकूंगा अथवा आनंद से रह सकूंगा । ऐसा साहस उन पुरुषों के नहीं होता । तो जिनके मोह में विषयासक्ति लगी है उनके ये कर्म लग जाते है, स्वसंवेदन तो उनके है नहीं । आकाशवत् निर्लेप चित् चमत्कार मात्र निज की प्रभुता का दर्शन तो होता है नहीं । तब मोह कर्म के उदय से परिणत उनका उपयोग होगा । उन जीवों के तब कार्माण वर्गणा योग्य स्कंध बंध को प्राप्त होता है । जैसे तेल लगे हुए पुरुष के शरीर में मैल बंध जाता है इसी प्रकार उन विषयों के चिकने पुरुषों में 8 प्रकार के ज्ञानावरणादिक कर्मरूप से ये कार्माणवर्गणाऐं परिणत हो जाती हैं । देखो विषयकषायों के संबंध में जो आत्मा ऐसे कर्मों का उपार्जन करता है वही अपनी इस ज्ञानपरिणति को बदल कर वीतराग निर्विकल्प समाधि की अवस्था को पाकर परमात्मा होता है । वही परमात्मतत्व साक्षात् उपादेय है । इस प्रकार गत चार सूत्रों में कर्मों के स्वरूप का कथन किया है । अब यह बताते हैं कि शुद्ध निश्चयनय से ये समस्त विभाव और चारों गतियों के संताप कर्मजनित हैं । आत्मा को उन्होंने नहीं उत्पन्न किया, ऐसा मन में अभिप्राय रख कर कहते हैं ।