वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 65
From जैनकोष
पंचवि इंदियअण्णु मणु अण्णुवि सयलु विभाव ।
जीवहँ कम्मइँ जणिय जिय अण्णु वि चउगह ताव ।।65।।
5 तो इंद्रियां व मन तथा समस्त विभाव, चारों गतियों के संताप ये सब कर्म द्वारा जनित हैं । जीव ने इसे स्वरसत: नहीं उत्पन्न किया । यहाँ यह बतलाते हैं कि शुद्धनिश्चयनय से देखो तो ये विभाव-विकार कर्मों से जनित नहीं है । और व्यवहार से कर्मों के तत्त्व से उत्पन्न होते हैं, ऐसा वर्णन तो बहुत सुना गया । यहाँ परंतु कहते हैं कि शुद्धनिश्चयनय से ये कर्मत्वजन्य हैं । जैसे नींद आना यह भी कर्मोदयजनित है । फिर यह कैसे ठीक हो? तो इसे कहते हैं विवक्षित एकदेश-शुद्ध निश्चयनय । नय चक्र बहुत दुस्तर हथियार है और जो नयचक्र में प्रवीण हो गया वह जिन सिद्धांत के मर्म को जान गया । जिनको नयचक्र की साधना नहीं होती वे यथार्थ ज्ञान नहीं कर पाते । और कर्म शत्रुओं पर विजय नहीं कर सकते । यह प्रकरण बहुत मार्मिक है । यदि इसे कहने लगे तो और रूखा लगेगा । सो यह तो अध्ययन की चीज है, जिसको लगन से अध्ययन करें ।
एक किताब मेरठ से आती है जिसका नाम है अध्यात्मसहस्री । बड़े श्रम से उसकी रचना की गई थी । उसमें 20-22 परिच्छेद हैं तो आध्यात्मिक 1001 प्रश्न है और उनके उत्तर हैं । वहाँ एक परिच्छेद नयचक्र का भी है । नय कितने होते हैं? उनके क्या लक्षण हैं? क्या-क्या चिह्न हैं? और भी कुछ विलक्षण विषय हैं । एक परिच्छेद का विषय है, जितने दर्शन हैं वे सब दर्शन इस नय से निकले हुए हैं । और इन नयों में दृष्टि लगाकर देखें तो वस्तु के बारे में जितने भी दर्शन हैं, सब सच हैं । ईश्वर सृष्टि करता है यह भी सच है; पर नयचक्र की साधना बिना यह बात समझ में नहीं आ सकती । ईश्वर की मर्जी बिना पत्ता नहीं हिलता यह भी सच है । तो नयचक्र की साधना बिना यह बात समझ में नहीं आती । जो गूढ विषय हैं उनका सीधा वहीं अर्थ न लगाना चाहिए जो सुना है । सीधा सुन लिया ईश्वर की मर्जी बिना पत्ता नहीं हिलता और यही सीधा अर्थ वहाँ लगा दिया तो कुछ मर्म न पाया कि इसमें किस ढंग का क्या मतलब है । सो बुद्धि लगाकर नय चक्र के प्रताप से सब ज्ञात हो जाता है । और भी एक परिच्छेद ऐसा है कि जीव सकषाय है कि अकषाय है? जीव सबंध है कि निर्बंध है? ऐसे-ऐसे अनेक प्रश्न करके उनके उत्तर हैं ।
प्रकरण यह था कि नयचक्रों की साधना के बिना वस्तु का मर्म नहीं पाया जा सकता । ग्रंथों में पढ़ ले शुरु से अंत तक और अनेक ग्रंथों को रट लें, याद कर लें, पर नयचक्र की साधना बिना कुछ भी ज्ञात नहीं हो सकता । एक कथानक है कि राम रावण के युद्ध के समय बंदरों ने समुद्र को भी लांघ दिया था और उस पार पहुंच गये थे । बातें बढ़ाकर लिखी जाती हैं । हम इसको नहीं बतला रहे हैं, किंतु सारे बंदरों ने समुद्र को लांघ तो दिया पर समुद्र में क्या-क्या भरा है, इसका पता तो नहीं पड़ सकता । लांघ दिया पर समुद्र में क्या सार है? क्या रत्न है? क्या गहराई है? यह सब पता क्या हो जायेगा? नहीं हो सकता । इसी तरह शास्त्रों को भी लांघ लिया ज्ञान द्वारा, शुरु से अंत तक पारायण कर लिया, शब्द बाइ शब्द बोल दिया; पर नयचक्र की दृष्टि बिना यह नहीं जाना जा सकता कि इसमें क्या सार है? क्या तत्त्व है? विवेकी पुरुष, तत्त्व के रुचियाजन कहो किसी दिन तीन चार घंटे तक, 4 पंक्तियों का ही स्वाध्याय कर पायें; किंतु उनके एक-एक शब्द की जो योजना है उसका मर्म जानकर मन ही मन मुसकराते रहते हैं, प्रसन्न रहते है, समय बीत जाता है । जो आनंद विषयों में भोजन आदिक में नहीं है वह आनंद ज्ञानदृष्टि से प्राप्त होता है । वह आनंद जगत् के किसी भी पदार्थ में नहीं है ।
जितने भी इंद्रिय मन चारों गतियों के संताप विभाव हैं वे सब जीव के कर्मजनित जानो । किस नय से? एक शुद्ध, निश्चयनय से । वाह रे, वाह निश्चयनय; इसका विषय तो एक पदार्थ है । वह तो दो पर दृष्टि ही नहीं देता और न इन जीवों के दुःखों को कर्मजनित बताते । यह तो एक ओछा व्यवहार है । शुद्ध निश्चयनय कहां? तो इस शुद्ध निश्चयनय का अर्थ करते हैं―विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चयनय । अर्थात् इस जीव को तो सुरक्षित स्वच्छ ज्ञानमात्र स्वभावमय देखना है और फिर यह समस्या हल करो कि इस क्रोध को किसने उत्पन्न किया? तो उत्तर मिलता है कि कर्मों ने उत्पन्न किया । इस भाव को कर्मों ने उत्पन्न किया? यह बल नहीं देना है? किंतु आत्मा तो शुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र है, यह दृष्टि देना है । इस लोक में अपने लक्ष्य का पता न रहे तो बात बुरी बनती जाती है और बतंगड़ हो जाता है, दूसरे बुरा मान जाते हैं । ससुराल में तो गाली भी चाहे दी जाये, पर और जगह गाली सुने तो कलह हो जाये । दृष्टि की ही तो बात है । दृष्टि वहाँ स्नेह भरी है तो कुछ भी कह दें तो उसे समान माना जाता हैं और दृष्टि ही विपरीत है लोगों की, तो जरा भी कह दिया तो, वह बुरे रूप रख लेता है ।
माँ अपने बच्चे से इतना तक भी कहे ‘‘नास के मिटे, होते नहीं मर गया;’’ तिस पर भी न सुनने वाले बुरा माने, न लड़का बुरा माने और भले भाव में रहकर उस लड़के के दो चार मुक्के भी मारो तो वह हंसेगा, रोवेगा नहीं और बुरी दृष्टि से एक अंगुली भी छुवा दो अथवा क्रोध भरी दृष्टि से ही देख लों तो बच्चा चिल्लाकर भागता है । यह आत्मा तो शुद्ध ही दिखता है । उसके तो शुद्धता के अनुभव की ही रुचि जगी है और यह समस्या भी हल करना है कि ये रागद्वेष संताप पर्याय किसने उत्पन्न की है । तो कहते हैं―कर्मों ने उत्पन्न की है । इस कथन में भीतर छिपी हुई रुचि का आदर करते हैं जिसे मां का अपने बच्चे पर बहुत अनुराग है उस बच्चे के गुण ही माँ देखती है, दोष नहीं देखती, और अनुराग जिससे न हो उसमें गुण कितने ही हों, उस पर दृष्टि नहीं जा सकती दोष ही दोष दिखते हैं ।
कोई बच्चा कुछ दिनों से तास खेलने लगा और कुछ हार जीत पर कुछ पैसे भी खोने लगा तो लोगों ने उलाहना दिया कि तेरा बच्चा व्यसनी बन गया, जुआरी बन गया । तो मां जवाब देती है नहीं, नहीं मेरा बच्चा तो बड़ा ही सलोना है । यह तो जुआरी की आदत बच्चे की लग गई, किसी का नाम बता दिया । हम नाम ले लें किसी लड़के का तो बुरा मानेगा । तो कुछ ही समझलो मेरा बच्चा जुआरी नहीं है, यह तो आदत उस लड़के की लगी है । देखो, बच्चे के प्रति माँ का प्रेम । बुरी आदत होने पर भी मां को वह बच्चा गुण भरा ही नजर आया । तो देखो इस सम्यग्दृष्टि पुरुष की रुचि को । उसको तो अब भी यह आत्मा शुद्धज्ञानमात्र ही नजर आ रही है । प्रश्न करने वाले आफत ले रहे हैं सम्यग्दृष्टि की । पूछ रहे हैं यह कहा से संताप लग बैठा? बहुत-बहुत सताते हैं तो एक हल्की गुस्सा जिसे कहते झुंझलाहट, वह आ जाती है । हल्की गुस्सा वाले को यह शब्द याद रहता है । वह झुंझला करके कहता है कि यह कर्मों के उदय से लग गया है । सम्यग्दृष्टि की रुचि तो देखो । इस आत्मा को शुद्ध ही निरखे जा रहा है यह विभाव-विकार अशुद्धनिश्चयनय से तो उत्पन्न हुआ और शुद्ध निश्चयनय से इसे मना किया जा रहा है । यथा ये जीव के नहीं हैं । ये पांच इंद्रिय तो अतींद्रिय शुद्ध आत्मा के बिल्कुल विपरीत हैं । कहां तो मेरा इंद्रियरहित स्वरूप और कहां ये लग बैठी हैं इंद्रियां । कितना इसमें अंतर है । ये इंद्रियां मेरे द्वारा उत्पन्न नहीं की गई, कर्म से उत्पन्न होती हैं । दूसरे के मन के भावों शब्दों को नहीं उत्पन्न किया । शब्दों का प्रयोजन मन के भावों तक पहुंचने का है इस प्रकार कह रहे हैं कि यह कर्मजनित है । यह मन अनेक संकल्प-विकल्पजालोंरूप है । यह मेरी आत्मा से बिल्कुल विपरीत है । 36 के अंक की तरह है । 36 का अंक देखो । एक का मुंह है इस तरफ और दूसरे का है इस तरफ, 36 हो गए और 63 देखा है, मुँह में मुँह जुड़ा हुआ है । जैसे विवाह आदिक में स्त्रियां गीत गाती हैं तो मुँह पास ले जाती हैं । इसी तरह से 63 का मुँह जुड़ा हुआ है । तो भगवान् की भक्ति में तो बने 63 और इस जगत् के वैभव से बने 36 । तब तो जीवन अच्छा चलेगा और वैभव में बन जाए 63 और भगवान् से बन जायें 36; तो आनंद न मिलेगा ।
भैया ! आनंद बाहर में नहीं मिलता । आनंद तो आत्मा का स्वरूप है; वहीं से प्रकट होता है । आत्मा है शुद्धस्वभावी संकल्प-विकल्प से रहित । और यह मन है संकल्प-विकल्प जन्मरूप; तो कितना अंतर है? यह मन कर्मोदयजनित है, आत्मा की चीज नहीं है । ये इंद्रिय और ये मन शुद्ध आत्मा के अनुभव से विपरीत हैं । ये समस्त विभाव पर्यायें और चारों गतियों के संताप, दुःखों की दाहें; ये सबके सब शुद्ध निश्चयनय से कर्मों के द्वारा निर्मित हुए हैं क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञान नहीं है । प्रकरण में यह बात बतायी है कि ये पंचेंद्रिय आदि के समस्त विकल्प समूह ये शुद्ध परमात्मतत्त्व के बिल्कुल विपरीत हैं, वे सब हेय हैं । शुद्ध आत्मतत्व, जो कि इंद्रियों की अभिलाषादिक समस्त विकल्पों से रहित है वही साक्षात् उपादेय है, । परमसमाधि के संबंध में यह परमात्मतत्व उपादेय है । अब यह निराकरण करते हैं कि सांसारिक समस्त सुख और दुःख भी शुद्ध निश्चयनय से कर्म उत्पन्न करते हैं ।