वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 83
From जैनकोष
जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु ।
मायाजालूवि अप्पणउ मूढ़उ मण्णइ सव्वु ।।83।।
यह मूर्ख जीव अपने को मानता कि मैं माता हूं । इस आशय में संक्लेश ही पल्ले पड़ता है, क्योंकि बच्चा है स्वतंत्र । उसके परिणाम में आ गया तो माँ की सेवा करे, न आ गया तो न करे । मगर वह यह भाव लिए है कि मैं माँ हूँ । मेरा अधिकार है बालकों पर, और बालकों पर बस चलता नहीं, तो यह प्राणी दुःखी हो रहा है । इसी प्रकार माने कि मैं पिता हूँ । तो पुत्र जब अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं चलता तो यह दुःखी होता है । सर्व दुःख, मान लेने पर ही हो जाते हैं । जब यह जीव मान लेता है कि मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ तब यह दुःखी होता है ।
देखो भैया ! सीताजी की अग्निपरीक्षा हो गई, तब सीताजी ने श्री रामचंद्रजी की भी अपेक्षा नहीं की । मोह, मोह से रिश्ता रखता है । मोह न हो तो कोई रिश्ता नहीं है । विवाह के समय सात-सात वचन होते हैं । हम तुम्हें धर्म से न रोकेंगे, तुम्हारी जीवनभर रक्षा करेंगे, आदि-आदि । और कहो, रात्रि ही गुजर पाये, सुबह होते ही वैराग्य हो जाय तो वह अपना जंगल चला जा रहा है । अरे-अरे ! कहां जाते हो? तुमने तो वचन दिया था कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे । अरे ! वह वायदा मोह ने किया था । वह मोह अब नहीं रहा । मोह से लड़के, मुझ से लड़ने की जरूरत नहीं है ।
मोह जब मिट जाता है, राग जब मिट जाता है ते उस साधु का नाम द्विज है । मानो उसका दूसरी बार जन्म हुआ पहले जन्म से घर में पैदा हुआ था और दूसरी बार तब जन्म हुआ जब घर का त्याग कर दिया । जब श्रावक भाव लिया तब दूसरी बार जन्म लिया । तो जैसे आप हम पहले
कुछ और थे, पता नहीं है । किसी जन्म में दूसरे कोई अच्छे होंगे । हम आप में पहले जन्म में कोई साधु होगा, कोई सेठ होगा, कोई धर्म करने वाला होगा । और उस, पूर्वभव में किसी से कुछ वायदा कर आये हो तो क्या अब उस वायदे को निभा सकते हैं? नहीं, क्योंकि दूसरा जन्म हो गया है । इसी प्रकार साधु महाराज ने पहिले जो वायदे किए हों, साधु हो जाने के बाद जन्म चूंकि दूसरा हो गया, इसलिए वायदा न निभाने को झूठा न कहेंगे । गृहस्थावस्था में किसी को 10 हजार रुपया देने का वायदा किया कि भाई तुम को कल 10 हजार रुपया देंगे―अपना काम चलाना और वह हो गया दो चार घंटे बाद विरक्त । तब क्या यह कहा जायगा कि यह आदमी बड़ा झूठा है? इसने तो देने का वायदा किया और अब हो गए साधु । अरे ! अब तो वह आदमी ही नहीं रहा । अब तो वह हो ग परमेष्ठी, संत, योगी, संन्यासी । सब कुछ छोड़ दिया । अब क्यों उसमें दोष बांधो? जितना भी नाता रिश्ता है वह सब मोह का मोह के साथ है ।
यह मूढ़ जीव मानता है कि मैं मां हूँ, मैं पुत्र हूँ, मैं स्त्री हूँ, मेरा घर है, मेरा पुत्र है, मेरे मित्र हैं, मेरे स्वर्णादिक बहुतसा द्रव्य है । ऐसे इस मायाजाल को भी अपना मानता है । इस अशुद्ध को भी, इस कृत्रिम को भी यह अपना स्वीकार है । कौन? यह मोही प्राणी । देश-विदेश को यह मानना चाहता है कि ये मेरे हैं । इस प्रकार सर्व विश्व पर एकछत्र यह राज्य करना चाहता है । एक् आया कोई राजहंस; तालाब के किनारे बैठा । मेंढक पूछते हैं कहो भाई ! कहां से आए हो? बोला, मानसरोवर से । मानसरोवर कितना बड़ा है? कहा―बहुत बड़ा । पहले उसने अपना पेट फुलाया और कहा कि इतना बड़ा? अरे ! इससे बड़ा है । फिर और पेट फुलाया, कहा इतना बड़ा है? अरे ! इससे भी बड़ा है । फिर तीसरी बार ऐसा फुलाया कि पेट फट गया और प्राण चले गए । अब क्या पूछें कि कितना बड़ा है? तो जीव अपना बड़प्पन गंवा देता है जिन बातों से, उन बातों से अपने को बड़ा मानता है । उन बातों के बड़प्पन की दृष्टि होने से पुण्य क्षीण होता है और पाप बढ़ता है, किंतु अपने आपके रत्नत्रय की वृद्धि से अपना जो बड़प्पन मानता है उसका पुण्य बढ़ता है । तो यह जीव मायाजाल को भी, अशुद्ध को भी अपना सर्वस्व समझता है, पर है यह अपने इस आत्मा से अत्यंत भिन्न ।
भैया ! इन समस्त परपदार्थों की परिणति से इस मेरी आत्मा का कोई सुधार नहीं होता । शुद्ध आत्मा से ये अत्यंत भिन्न हैं । माता आदिक परस्वरूप है, हेय हैं, साक्षात् उपादेयभूत निराकुलतारूप परमार्थिक सौख्य से भिन्न हैं । ऐसे इस वीतराग परमानंदमय आत्मा के एक स्वभाव से गड़बड़ को यह गड़बड़ प्राणी जोड़ता है । पर अपने स्वरूप को देखो, यह इंद्रियों द्वारा गम्य नहीं है । इंद्रियाँ अपना व्यापार छोड़ सकें तो आत्मा का ज्ञान हो सकता है । इंद्रियों से आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता है । यह आंखों से देखा नहीं जा सकता है । किसी भी इंद्रिय से आत्मा को जाना नहीं जा सकता है । यह आत्मा तो अतींद्रिय है और अतींद्रिय ज्ञानद्वारा गम्य है । जैसे में रागद्वेष उत्पन्न न हों ऐसा समता परिणाम ही उपादेय है ।
माता, पिता, पुत्र, स्त्री, घर आदिक जितने भी परस्वरूप हैं वे भिन्न हैं और वे हेय हैं तथा जो नरकादिक दुःख हैं उनके कारण हैं, फिर भी यह अज्ञानी उनको अपने आत्मा में जोड़ता है । कहां तो आत्मा का शुद्ध ज्ञानमात्र स्वभाव; जिसके ध्यान में योगीजन सदा रमण करते रहते है, जो वास्तविक सुख से अभिन्न है, अनंत सुख का भंडार है, उपादेयभूत अनाकुलतारूप परमार्थ सुखमय है । किंतु यह बहिरात्मा उसमें नानारूप लगाये फिरता है कि मैं मां स्वरूप हूँ, पिता स्वरूप हूँ, पुत्र स्वरूप हूँ । जैसे कभी कोई ऐसी समस्या आ जाय कि अपनी ही चीज पर अपना बस न रहे तो कैसा दुःख होता है कि अपनी ही तो चीज है और अपना बस नहीं चलता । जैसे कभी सरकार कन्ट्रोल लगा दे कि 5 तोले से ज्यादा सोना काई नहीं रख सकता है और घर में रखा है 100 तोला सोना, तो वह बेकार है । अगर दिखाते हैं, बेचते हैं या पहिनकर दिखाते हैं तो इस अपराध में सरकार पकड़ लेगी । तो अपनी ही चीज है और उस पर अपना अधिकार नहीं है । इसी तरह इससे और निकट की बात अपनी आत्मा की बात है, पर उस पर भी अपना अधिकार नहीं जान रहे हैं कि मुक्ति का मार्ग यह है । रागद्वेषरहित निर्विकल्प ज्ञानस्वभावमय उपयोग जमाना यह सब झंझटों से मुक्ति का उपाय है; किंतु यह नहीं किया जा सकता । ऐसी कर्मविपाक की प्रेरणा है । इसलिये यह मोही आत्मा अपने शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना से च्युत होकर मिथ्याआशय से प्रेरित होकर यह मैं क्या हूं? मूर्ख हूँ, पंडित हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, मां हूँ, बाप हूँ, या और-और रूप अपने को मानने लगता है । और है क्या वहां? केवल ज्ञान (चैतन्यप्रतिभास) और कुछ है नहीं, इसके अतिरिक्त । मगर कल्पना ऐसी बना ली कि अपने को नानारूप समझता है ।
आत्मा तीन प्रकार की होती है―(1) बहिरात्मा, (2) अंतरात्मा, (3) परमात्मा । बहिरात्मा तो वह है जो अपने से बाहर में अपना आत्मा माने और अंतरात्मा कहते हैं अपने ही अंतरंग में अपनी आत्मा मानने को । परमात्मा उसे कहते हैं कि जिस आत्मा का पूर्णविकास हो गया हो । अब तीनों प्रकार की आत्माओं में से यह बतलाओ कि कौनसा हेय है और कौनसा उपादेय है तो हेय क्या है? इन तीन प्रकार की आत्माओं में से बहिरात्मा हेय है, जो बाहर में अपना आत्मा माने । मित्र है तो मैं हूँ, पुत्र है तो मैं हूँ, मकान है तो मेरा है, परिवार है तो मेरा है, शरीर मेरा है; ऐसी जिसकी बुद्धि है उसे कहते हैं बहिरात्मा । तो हेय दूर करने लायक एवं नित्य है बहिरात्मा । उपादेय क्या है? पाने के योग्य क्या है, इन तीनों आत्माओं में से? पाने के योग्य है परमात्मा । अब बचा अंतरात्मा, वह क्या है? वह है एक माध्यम । अंतरात्मा बनकर दोनों काम निभाये जाते हैं । बहिरात्मा को छोड़ना और परमात्मा को ग्रहण करना ।
इन दोनों के पाने का उपाय है अंतरात्मा होना । इस तथ्य से अनभिज्ञ यह बहिरात्मा निजशुद्ध आत्मद्रव्य की भावना से शून्य होता हुआ मन, वचन; काय के व्यापार में परिणत होकर अपने आपमें नाना पर्यायों को लगाता फिरता है । और क्या करता है?