वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 91
From जैनकोष
अप्पा पंडिउ मुक्खु णवि णवि ईसरु णवि णीसु ।
तरुणउ बूढ़उ वालु णवि अण्णुवि कम्मविसेसु ।।91।।
आत्मा न तो पंडित है और न मूर्ख है, न यह ईश्वर है और न यह निर्धन है । न यह जवान है न बूढ़ा है, न बालक है, न और-और प्रकार के कर्मों की विशेषता वाला है । यह तो जीव का स्वरूप ही नहीं है । तो जीव किस स्वभाव वाला है अथवा ये पंडित आदिक बातें किस स्वभाव की हैं? बतलाते हैं कि ये सब चीजें कर्मजनित विभाव पर्यायें हैं । यद्यपि पंडित आदिक सभी भाव
व्यवहारनय से जीव के स्वतत्त्व हैं । पंडित बने तो कौन? यह आत्मा । मूर्ख बने तो कौन? यह आत्मा । पंडित आदिक भावों को शुद्ध निश्चयनय से बताया जायतो यह इस शुद्ध आत्मतत्त्व से भिन्न हैं । अपने आपको केवल निरखो, मैं स्वयं अपने आपमें क्या हूं? मेरी ही शुद्धि के कारण मेरा मुझमें क्या ढंग है? दूसरे का तो कुछ भरोसा नहीं है ना? तो दूसरे की क्या आशा करना?
भैया ! खुद ही यह प्रभु तो अनंत सुख का निधान है । मेरा सर्वस्व मंगलपूर्ण मनोरथ मुझमें ही है । मुझ से बाहर नहीं है । मैं किस परतत्त्व की बात करूं? शुद्ध आत्मद्रव्य से भिन्न सर्वप्रकार से हेयभूत इन सब विभाव पर्यायों को यह बहिरात्मा अपने आपमें लगाए फिरता है, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ । सुख, शांति, अपने सहजस्वरूप की दृष्टि में ही है । लाख उपाय आप कर लो, शांति नहीं प्राप्त हो सकती है । अपने आपके लक्ष्य को छोड़कर बाहर में कहीं भी कुछ भी दृष्टि करके, यत्न करके शांति चाहो तो नहीं मिल सकती है । शांति तब मिलेगी जब अपने आपमें ही मिलेगी और अपने आप में जैसा सहज मैं अपने आप स्वयं हूँ उस तरह से निरखो तो शांति मिलेगी । यद्यपि व्यवहारनय से यहाँ जीव में है रागादिक भाव, परंतु वे हेयभूत हैं ।
जिसे अपने रागरहित चैतन्यस्वभाव का संवेदन न हो, ऐसा बहिरात्मा ही अपने आपमें उन पर्यायों को जोड़ता है । अंतरात्मा उन विभावों को प्राय कर्मों से जोड़ता है । ये रागादि भाव परभाव हैं, इनमें मोह न करो । ये आए हैं, निकलने के लिये आए हैं, इन्हें निकल जाने दो । इन रागादिकों को जकड़ कर, पकड़ कर मत रह जाओ । यह आत्मा तो शुद्धचैतन्यस्वरूप है । पंडिताई तो अधूरे ज्ञानविकास की बात है। मूर्खपना अज्ञान की बात है । धनी, समर्थ, ईश्वर होना यह पुण्यकर्म के उदय की बात है । दरिद्र हो जाना यह पापकर्म के उदय की बात है । जवान, बूढ़ा, बालक हो जाना, ये शरीर की अवस्थाएं हैं । हे आत्मन् ! इस रूप तू नहीं है । अपने स्वरूप केंद्र से चिगकर इस परिणति में यदि आत्मीयता की बुद्धि करेगा तो तू समझ कि संसार में जन्ममरण और क्लेश ही भवितव्य में निश्चित हैं । बड़े साहस का काम है कि सर्व परवस्तुविषयक विकल्पजाल को छोड्कर शुद्ध अभिन्न स्वभाव चैतन्यमात्र सहज जो निजतत्त्व है उसरूप मानकर स्थित हो जाय यह आत्मा, कि लो मैं तो यह हूँ ।
व्यवहार में जितने जीवों का पालन होता है, पोषण होता है वह सब उनके कर्मों के उदय के अनुसार होता है । किसी जीव का भार आपकी आत्मा पर नहीं है । सब जीव अपना भार संभाले हुए हैं । पर मोह में यह कल्पना हो जाती है कि मैं ही तो इन सबको पालता हूँ, मैं ही तो इन सबकी रक्षा करता हूँ । इस अज्ञानभाव से यह जीव सबका बोझ लाद लेता है और परमार्थ से यह स्वभाव से बोझ लाई हुए नहीं है, किंतु अपने आप में स्वयं होने वाले विकल्पों का बोझ लदा हुआ है । यह आत्मा इन किन्हीं भी पर्यायोंरूप नहीं है, केवल एक प्रतिभासमात्र है । बहुत सूक्ष्म जो अपने को सूक्ष्म से सूक्ष्म कह लेता है उसको अव्वल नंबर मिलता है । जैसे जब बालक लोग खेलते हैं, गोली खेलते हैं तो शुरू-शुरू में बालक यह बोलते हैं कि मैं पानी से पतला हूँ । दूसरा बालक बोलता है कि मैं हवा से पतला हूँ । उनका मतलब यह है कि जो अधिक पतलेपन की बात अपने को लादे उसका अव्वल नंबर आता है । जरा अपने को अत्यंत पतली, अत्यंत सूक्ष्म समझ लो तो प्रथम नंबर होगा, अर्थात् कल्याण में अग्रणीय नंबर होगा । तब यह समझ में आये कि यह मैं लो, आकाश की ही तरह अमूर्त हूँ ।
भैया ! यह आत्मा चैतन्यस्वभाव को लिए हुए है सो प्रतिभासात्मक केवल प्रतिभास हुआ । शेष तो ये सब सूक्ष्म हैं, अमूर्त हैं । उनका पिंडनिमित्त नहीं है, छिदने-पिटने का निमित्त है, उसे कोई रोक सके ऐसा निमित्त नहीं । इस जीव को कोई रोके हुए नहीं है शरीर रोके हुए नहीं है । यह जीव ही खुद शरीर को रख करके रुका रहता है । तो इसमें दूसरा क्या करे । ऐसा मैं अमूर्त केवल प्रतिभासस्वरूप आत्मा हूँ । इस आत्मतत्त्व की जिन ज्ञानियों को श्रद्धा है वे बहुत-बहुत संकटों के बीच भी अपने आपको सुरक्षित पा लेते हैं । उनके डर नहीं रहता, डर उन्हें रहता है जिन्हें किसी प्रकार की आशा लगी है । एक तो धन-वैभव की आशा और एक जीने की आशा; ये दो आशायें जिन्हें लगी हैं उनको डर है । और उनके लिये कर्म, कर्म है । पर जो आत्मा से ही अपना संबंध रखता है, न तो धन वैभव की आशा करता है और न जीवन की आशा करता है; उसके लिए कर्म, कर्म नहीं है । उसे किसी प्रकार का भय नहीं है । यह ऐसा आत्मा अपने संबंध में और क्या जानता है?