वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 94
From जैनकोष
अण्णु जि दंसणु अत्थि णवि अण्णु जि अस्थि ण णाणु ।
अण्णु जि चरणु ण अत्थि जिय मेल्लिवि अप्पा जाणु ।।94।।
इस आत्मा को छोड़कर और कुछ दर्शन नहीं है, न और कुछ ज्ञान है, न और कुछ चारित्र है । आत्मा ही सम्यग्दर्शन आदि रूप है । यद्यपि व्यवहारनय से 6 द्रव्य, 5 अस्तिकाय, 7 तत्त्व और 9 पदार्थ; इनका परिज्ञान निश्चय सम्यक्त्व का कारणभूत है । सोये सब शुद्ध भावों के कारण ये व्यवहार से सम्यक्त्व कहलाते हैं । फिर भी निश्चय से देखा जाय तो वीतराग परमानंद स्वरूप एक स्वभाव है जिसका, ऐसा शुद्ध आत्मा ही उपादेय है इस प्रकार की रुचि रूप परिणामों से परिणत शुद्धआत्मा ही निश्चय सम्यक्त्व होता है । जैसे धर्म कहीं देखा है किसी ने? किसी जगह रखा हो धर्म, मंदिर में, मूर्ति में, पुस्तक में; कहीं किसी ने देखा हो कि लो यह धर्म आज इस अलमारी में बैठा है, या किसी भी जगह देखा हो तो बताओ? धर्म तो आत्मा की एक निर्मल परिणति का नाम है । सो निर्मल परिणति में परिणत आत्मा ही धर्म कहलाता है । धर्म और कुछ नहीं है । धर्मी जीव का नाम धर्म है । धर्मात्माजन न हों तो धर्म किसका नाम होगा? इसी प्रकार सम्यग्दर्शन क्या किसी जगह देखा है? सम्यग्दर्शन की परिणति से परिणमता हुआ आत्मा ही सम्यग्दर्शन कहलाता है ।
ज्ञान क्या कहलाता है? शास्त्रों के ज्ञान का नाम तो व्यवहार से ज्ञान कहा है, क्योंकि वास्तविक ज्ञान तो है निश्चय परमार्थभूत आत्मतत्त्व का संवेदन । आत्मतत्त्व के संवेदनरूप ज्ञान के कारणभूत होने से व्यवहार से शास्त्रज्ञान को ज्ञान कहा है तो भी निश्चय से वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान में परिणत शुद्धआत्मा ही वास्तव में निश्चयज्ञान कहलाता है । सो ज्ञान भी आत्मा ही है । आत्मा को छोड़कर ज्ञान कहीं अन्यत्र नहीं है । इसी प्रकार चारित्र भी आत्मा ही है । यद्यपि मूलगुण का नाम अर्थात् गुण का व्यवहार से चरित्र रखा गया है, क्योंकि वह मूलगुण और चरित्रगुण निश्चयचरित्र का साधक होता है । फिर भी निश्चयनय से चारित्र को देखा जाय तो शुद्ध आत्मा के अनुभवरूप वीतराग चरित्र से परिणत निज शुद्ध आत्मा ही चरित्र कहलाता है । इसी प्रकार भेदरत्नत्रय में परिणत आत्मा ही उपादेय है । यह इसका भावार्थ हुआ । यह सब आत्मा के वैभव का वर्णन है ।
भैया ! तुम वैभव अन्यत्र कहां देखते हो ? वैभव स्वयं यह आत्मा ही तो है । इस आत्मा की पहुंच के लिये बड़े-बड़े योगीश्वरों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानी को, सब कुछ छोड़ा, वन में गये । केवल एक ब्रह्म की धुन लगाये रहे । पर किसी को यह ब्रह्मस्वरूप साधारण से यत्न में ही नजर आ गया और किसी को ब्रह्मस्वरूप अनेक यत्न करने पर भी नजर नहीं आता । यह सहज कला का फल है । यह आत्मा ही मोक्षमार्गी है, मोक्ष है, रत्नत्रय है और जो-जो भी गुण प्रशंसा के योग्य हैं वे-वे सब आत्मा ही हैं । अब आगे के दोहे में यह बतलाते हैं कि निश्चय से वीतराग भावों में परिणत निज शुद्धआत्मा ही निश्चय तीर्थ है ।