वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 101
From जैनकोष
भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यमक्षमा मोक्तुम् ।
ये तेऽपि शेषमनृतं समस्तमपि नित्यमेव मुंचंतु ।।101।।
सत्याणुव्रत का निर्देश―त्याग दो प्रकार का होता है―एक तो पूर्ण रूप से त्याग और एक एकदेश का त्याग । पूर्णरूप त्याग तो मुनियों के होता है और एकदेश त्याग गृहस्थों के होता है । तो गृहस्थजन अपना कुछ सांसारिक प्रयोजन भी रखते हैं, आजीविका चलाना, धर्म कमाना, बोलचाल करना आदि । उनका सांसारिक प्रयोजन सावद्य वचनों के बिना नहीं चल सकता, पापयुक्त वचन कोई न कोई प्रकार के बोलने में आते ही हैं । व्यापारादिक के वचन धर्म के वचन नहीं हैं, वहाँ कोई न कोई प्रकार सावद्य वचन का दोष लगता है । कोई न कोई प्रकार की पाप भरी बात होती ही है । मान लो व्यापार में हैं तो वहाँ चीजों के उठाने धरने आदि सभी में पाप है । तो आचार्य महाराज कहते हैं कि यदि गृहस्थ समस्त सावद्य वचनों का त्याग न कर सकें तो न सही, परंतु और बाकी झूठ वगैरह का त्याग तो कर सकते हैं । आजीविका के संबंध में या भोगों व भोग के संबंध में यदि वे वचनालाप नहीं छोड़ सकते, सावद्य वचन नहीं तज सकते तो इसके अलावा जो और व्यर्थ की फालतू लड़ाइयां आदिक की बातें करते हैं उनका तो परित्याग करें ही करें ।