वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 102
From जैनकोष
अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् ।
तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ।।102।।
चौर्य पाप का स्वरूप और उसमें हिंसा दोष का कथन―यहां तक झूठ बोलना नामक पाप का वर्णन किया, अब चोरी के पाप का वर्णन कर रहे हैं, कि प्रमाद कषाय के संबंध से बिना दिए हुए परिग्रह का ग्रहण कर लेना सो चोरी है और वह जीवबंध का कारण है इसलिये हिंसा है । जो मनुष्य किसी की चीज को चोरी करने का परिणाम करता है तो वह बिना कषाय किए चोरी नहीं करता । उसे कितना सजग होकर रहना पड़ता है, कितनी कषाय करनी पड़ती है? इस कषाय के ही कारण खुद की वह कितनी बड़ी हिंसा करता है । चोरी करने में हिंसा है क्योंकि वह चोरी करने वाला कषाय करके अपने चैतन्य प्राणों की हिंसा करता है? चोरी करने वाला अपने स्वरूप की सुध खो देता है । अपने आप में वह नहीं रह सकता और बाहरी पदार्थों में ही उसकी दृष्टि रहती है तो चोरी करने में नियम से हिंसा है । चोरी करने वाला यदि पाप का परिणाम न करता तो उसके ज्ञान और आनंद का विकास होता । पूर्ण ज्ञान और आनंद को भोगता । तो ज्ञान और आनंद का जो विकास रुक गया यह तो अपने आपकी बहुत बड़ी हिंसा कर ली । तो चोरी करने में भावप्राण का तो घात होता ही है और जिसकी चीज चुरायी उसके द्रव्यप्राण का घात है । कोई थोड़ा 10-20-50 रुपये भी काट ले तो उसको कितना खेद होता है और अपने हाथ से दान दे तो उसमें कितनी प्रसन्नता होती है? दूसरे की चीज चुराने में जिसकी चीज चुराई उसका भी प्राणघात होता है और चुराने वाले के भावप्राण का घात होता है, इसलिए चोरी की हुई वस्तु में नियम से हिंसा है ।