वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 149
From जैनकोष
रजनीदिनयोरंते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् ।
इतरत्र पुन: समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ꠰꠰149꠰।
सामायिक की बहूपयोगिता―रात के और दिन के अंत में एकाग्रतापूर्वक सामायिक अवश्य करना चाहिए । फिर यदि अन्य समय में भी किया जाये तो वह भी गुण के लिए है । गृहस्थों को सामायिक कम से कम दो बार तो अवश्य करना चाहिए वैसे तो सामायिक सदा की जाये, प्रभु का नाम जपना, अपने आत्मा का चिंतन करना, तत्त्व का चिंतन करना, यह तो जब चाहे कितनी ही बार करे, वह लाभ के लिए हैं । पर अधिक न बन सके तो कम से कम दो समय सुबह और शाम अवश्य सामायिक करना चाहिए । सामायिक के लिए एक तो योग्य क्षेत्र देखे, जगह प्रासुक, पवित्र, जंतुरहित हो, स्थान एकांत का हो । जहाँ अन्य अज्ञानी जनों का संचार न हो, दूसरे योग्य काल होना चाहिए । सामायिक का समय सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय के पहिले का है, उस समय का ध्यान बहुत उत्तम होता है । गृहस्थजन ऐसा विचारते हैं कि जब नहायेंगे, मंदिर जायेंगे तब जाप देंगे, मगर तब का काम वह नहीं है । ध्यान का समय तो प्रातःकाल है । पहिले सुबह उठकर दूसरा कोई काम ही नहीं है । घर का यदि विशेष कार्य हो तो उसको करके पहिले नहाना, सामायिक करना, मंदिर पूजन करना यह सबने पहिला काम है और यात्रा का यही लाभ है, उससे यह सीखें कि यात्रा को लोग 5 साल में महीना भर को निकले, फिर न खबर लें सामायिक की, स्वाध्याय की, धर्म नियम की तो वह तो उत्तम बात नहीं है । घर पर बारहों महीने सुबह शाम धर्मध्यान का विचार जरूर रखना चाहिए और फिर मान लो कई काम घर के अंदर हैं तो उसका हिसाब लगा लेना चाहिए कि इतना समय तो हम धर्मध्यान में लगायेंगे, इतना समय घर के कामों में लगायेंगे, पर सामायिक का जो समय है वह उसी समय में होना चाहिए । योग्य आसन होना चाहिए । बैठें तो पद्मासन से बैठें, कायोत्सर्ग से बैठें, क्योंकि सामायिक में मन, वचन, काय―इन तीनों को । स्थिर करना पड़ता है । तो सबसे पहिले काया की स्थिरता की बात कही है । काया स्थिर करें, फिर इसके बाद वचन स्थिर करें मायने खराब बोलना बंद करें, भीतर में जो एक जल्प उत्पन्न होता है उसे बंद करें और मन को स्थिर करें, मन यहाँ वहाँ न दौड़ाये, विकल्प न करें, अपना मन अपने में सावधान रहे, योग्य विनय करें, विनय से बैठे, विनय से नमस्कार करें । जब प्रभु का ध्यान करें, परमेष्ठियों का ध्यान करें तो उनके प्रति बहुत बड़ा भारी विनय भाव रखें । भक्ति पूजा की शोभा तो विनय से होती है । योग्य विनय होना चाहिए । मन, वचन, काय शुद्ध हो, मन की शुद्धि है किसी भी चीज का बुरा न विचारना, सबका भला सोचना, सभी जीव सुखी हों, किसी जीब को मेरे द्वारा पीड़ा न हो और प्रयत्न भी यही करें कि जिसमें जीव का हित हो । वचन शुद्ध रखें, वचन बोलें तो ऐसे विनयपूर्वक बोलें, हितमित, प्रिय बोलें कि दूसरों को सुखसाता हो और कल्याण का उन्हें मार्ग मिले । काया शुद्ध होनी चाहिए । काया की शुद्धि स्नान से भी है और जितना बाह्य आडंबरों से दूर रहें, निर्लेप रहें उतना ही काया की शुद्धि है । विशेष संपर्क न रखें सो काया शुद्ध है, यह अनुकूल बात रखकर सामायिक करें । सामायिक में अगर इतनी बातों का ध्यान नहीं रखा जाता तो परिणाम निर्मल और निश्चल नहीं हो सकते ।