वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 150
From जैनकोष
सामायिकश्रितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् ।
भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चारित्रमोहस्य ।।150।।
सामायिकस्य पुरुषों में महाव्रतत्व का दिग्दर्शन―सामायिक दशा को प्राप्त हुए श्रावक के चारित्र मोह का उदय होने पर भी समस्त पाप योग के परिहार से महाव्रत होता है, याने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह―इन पांचों पापों का सर्वदेश त्याग होना सो महाव्रत है । गृहस्थ जिस समय सामायिक कर रहा है उस समय उसकी दृष्टि आत्मस्वभाव पर, परमात्मतत्त्व पर, कारणसमयसार पर जा रही है, कहीं ममता और अहंकार नहीं हो रहा, तो ऐसे जब अपने आपके समता के पुंज ज्ञानस्वभाव पर दृष्टि टिकती है तो उस समय पाप कैसे हों? जब राग द्वेष पर दृष्टि है, कारणसमयसार पर दृष्टि है तो उसके पाप नहीं होता । तो सामायिक करते समय वह गृहस्थ भी मुनियों की तरह है । अगर सामायिक विधिपूर्वक ढंग से हो जाये तो वह भी उपचार से महाव्रती है । यद्यपि उसके प्रत्याख्यानावरण चारित्र का उदय है जिसकी वजह से महाव्रती नहीं हो सकता, सो महाव्रती यथार्थ में नहीं है क्योंकि अभी महाव्रत का आवरण करने वाली कषायें बनी हैं लेकिन जिस समय वह सामायिक कर रहा है और उसका उपयोग अपने आत्मा के स्वभाव में पड़ा हुआ है तब तक समस्त पापों का उसके परिहार हो गया, लेकिन अच्छा आसन मांडकर योग्य काल में सामायिक में बैठा है, अपने आपके अंतस्तत्त्व पर दृष्टि है उस समय वह महाव्रती है ऐसा आचार्यदेव कह रहे हैं । इसी सामायिक के बल से निर्गंथ लिंग धारी ग्यारह अंग के पाठी भी हैं, यद्यपि वे अभव्य है फिर भी अहमिंद्र पद तक सामायिक के बल से प्राप्त करते हैं और जों भव्य हैं वे मुनिव्रत धारकर सच्चे मायने में अपने स्वभाव की आराधना करके मुक्त हो जाते हैं । मतलब यह है कि सामायिक करना बहुत जरूरी चीज है जिससे दृष्टि अपने स्वभाव पर जाये और इस प्रकार की भावना बने कि मैं सबसे निराला, घर से, देह से, संकल्पविकल्प से न्यारा ज्ञानमात्र हूँ । इसकी भावना से आत्मा का लाभ है ।