वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 64
From जैनकोष
अभिमानभयजुगुत्साहास्यारतिशोककामकोपाद्या: ।
हिंसाया: पर्याया: सर्वेऽपि च सरकसन्निहिता: ।।64।।
मद्यपायी के अनेक भावहिंसायें―जीव में जो खोटे भाव उत्पन्न होते हैं जैसे घमंड आदि वे सब हिंसा के ही पर्याय हैं, परिणमन हैं । किसी को तुच्छ मानना अपने को बड़ा समझना यह वृत्ति प्रकृत्या लग जाती है, मद्यपायी घमंडी भी होता है । डर भी हिंसा है, किसी का भय माना तो अपने आपकी हिंसा की और भय मदिरा पीने वालों के रहता ही है, किसी से डर माना, उससे अपना दिल दुःखा तो डर मानना भी हिंसा है । डर लगने का दोष मद्यपायी के आ ही जाता है, अत: अहिंसा धर्म पालने के लिए मद्यपान का त्याग करना चाहिये । एक है ग्लानि करना, दूसरे से ग्लानि अर्थात् घृणा करना यह भी हिंसा है । जहाँ अपने परिणाम बिगाड़े वह सब हिंसा है । ग्लानि करना भी हिंसा है । मदिरा पीने वालों में यह दोष पैदा हो जाता है कि वे दूसरों से ग्लानि करने लगते हैं, कुछ डर जाते हैं, घमंड बगराते हैं वह सब हिंसा हे । हंसी करना भी हिंसा है, और ऐसी हिंसा मदिरापान करने वाले के होती ही है, इस कारण से जो अहिंसक पुरुष हैं उन्हें मदिरा का पान न करना चाहिये । एक हे द्वेष करना । किसी से बैर करना यह भी हिंसा ही है, यो यह बैर करना भी मद्यपायी पुरुषों के हुआ करता है । अत: मद्यपान में हिंसा है । क्षोभ करना, शोक करना आदिक भी मद्यपायी में हो जाते हैं । शोक भी एक आत्मा का घात करने वाली बात है और यह शोक मद्यपायीयों के लगा ही रहता है । तो जिसे हिंसा न चाहिए, अपनी बरबादी न चाहिये उसे मदिरापान छोड़ना चाहिये, ऐसे ही खोटे विचार आये, मायाचार आयें ये सब बातें भी मदिरापान करने से बढ़ जाती हैं । तो ऐसी भी हिंसा जो न चाहें उनका कर्तव्य हें कि मदिरापान का परित्याग कर दें । मद्यपान करने से जितने भी दोष उत्पन्न होते हैं वे सब मदिरापान से हैं । ये सभी दोष मद्यपान करने से हो जाते हैं, अत: इन दोषों से बचने के लिये मद्यपान का परित्याग करना चाहिये ।