वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 66
From जैनकोष
यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः ।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोदनिर्मघनात् ꠰꠰66꠰꠰
स्वयं मृत प्राणी के भी मांसभक्षण में हिंसा का दोष―एक प्रश्न किया जा रहा है कि―मारे हुए जीव का मांस हो उसके खाने में तो दोष होना चाहिये पर जो जीव खुद मर गया तो खुद मरे जीव का मांस खाने में क्यों दोष है? ऐसी शंका हुई उसके उत्तर में कहते हैं कि जो स्वयं मरे हुए जीव का मांस हो उसके भी खाने में दोष है क्योंकि मांस के आश्रय निगोद जीव जो भी उसी जाति के जो जीव उत्पन्न होते रहते हैं तो मांस भक्षण में उन जीवों का घात होता है, अत: चाहे मरे जीव का मांस हो चाहे किसी का घात करके उत्पन्न हुआ मांस हो उसके खाने में दोष ही है । मरे हुए जीव के मांस में भी उसी जाति के अनंत जीव उत्पन्न होते रहते हैं, जिस जाति का वह जीव है । उसी जाति के अनेक जीव और भी उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिये उसके खाने में उन जीवों का घात होता ही है । अत: स्वयं मरे हुए जीव का भी मांस खाने में हिंसा का दोष है ।