वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 81
From जैनकोष
पूज्यनिमित्तं घाते छागादीनां न कोऽपि दोषोऽस्ति ।
इति संप्रधार्य कार्यं नातिशये सत्त्वसंज्ञपनम् ।।81।।
अतिथि के निमित्त भी हिंसन में हिंसा का दोष―अब कुछ तर्क वादियों का वर्णन आ रहा है । कुछ लोग ऐसा कुतर्क करते हैं कि अन्न आदिक के आहार में अनेक जीव मरते हैं तो उनके बदले एक बड़े भारी जीव का मार डालना, खा डालना अच्छा है, ऐसा एक उनका कुतर्क है, उन्हें जीवों की जाति की कुछ पहिचान ही नहीं है । एकेंद्रिय जीव में स्पर्शन, कायबल, आयु, श्वासोच्छ᳭वास―ये चार प्राण होते हैं । एकेंद्रिय जीव के शरीर में मांस नहीं होता है । मांस के आधार में अनंत उस जाति के जीव उत्पन्न होते रहते हैं । मांस रहित चार प्राणों वाले एकेंद्रिय जीव का शरीर होता है, दौ इंद्रिय जीव के स्पर्शन, रसना, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ᳭वास, ये 6 प्राण होते हैं । दो इंद्रिय जीव के शरीर में मांस होता है । त्रस जीवों में उनके शरीर में मांस होता है । केवल एक भोगभूमियां देव नारकी के शरीर में नहीं होता और परमौदारिक शरीर, आहारक शरीर इनमें मांस नहीं होता, शेष त्रस जीवों के शरीर में मांस होता है । घ्राणेंद्रिय जीवों में 7 प्राण, इसमें नाक और बढ़ गई, चारइंद्रिय में 8 प्राण नेत्रइंद्रिय और बढ़ गई, असंज्ञी पंचेंद्रिय में 9 प्राण, इसमें श्रोत्र और बढ़ गये तथा संज्ञी पंचेंद्रिय में 10 प्राण होते हैं वहां मनोबल और बढ़ जाता है । इस प्रकार इन जीवों में प्राणों का विभाग है । तो कम प्राणों वाले जीवों के घात मे अधिक प्राणों वाले जीवों के घात में अधिक हिंसा है । यह एक प्राण की ओर से उत्तर हुआ और दूसरा अपनी ओर से उत्तर देंगे तो अधिक प्राणों वाले जीवों के घात में इस शिकारी को संक्लेश परिणाम अधिक करना पड़ता है । अनेक एकेंद्रिय स्थावर जीवों के घात से या यों कह लीजिये कि अनंत काय, अनंत स्थावर जिसमे पाये जाते हैं ऐसी चीजों के भक्षण में जो हिंसा होती है उससे असंख्यातगुनी हिंसा दोइंद्रिय जीवों का घात करने से होती है । उसकी और इसकी सदृश्यता नहीं हो सकती कि अनेक स्थावर जीवों के घात से गाय, भैंस, बकरी आदिक बड़े जीव का घात करले तो उसकी अपेक्षा अच्छा हुआ, ऐसी कोई तुलना नहीं है । एकेंद्रिय जीवों का शरीर मांसरहित है, चार प्राणों वाले हैं, उसकी तुलना में एक बड़े जीव का मारा जाना अच्छा बताना मूर्खतापूर्ण कुतर्क है, तो ऐसा भी ख्याल करना योग्य नहीं है जैसे आजकल के लोग भी जो मांसभक्षी हैं वे ऐसा कुतर्क करते हुए पाये जाते हैं । वे ऐसा ही कुतर्क करते हैं । जीवों की जाति की पहिचान करना और फिर उनकी हिंसा से हटना यह सब अपने आपकी सुध लेने का वातावरण है, जिनका उपयोग जीवों का घात करने में लगा है उनके उपयोग में आत्मा की सुध लेने की योग्यता नहीं है । अहिंसाव्रत पालने के लिए यह आवश्यक है कि जीवों का घात न करें । किसी भी प्राणी की हिंसा करना हिंसा ही है, उससे पाप का ही बंध होता है । भविष्य में इन कुकर्मों के कारण दुःख भोगना पड़ता है, जन्ममरण की परंपरा ही बढ़ती है ।