वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 80
From जैनकोष
धर्मो हि देवताभ्य: प्रभवति लाभ्य: प्रदेयमिह सर्वम् ।
इति दुर्विवेककलितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिस्यौ: ।।80।।
देवताओं के लिये भी हिंसा का दोष―कुछ अज्ञानी लौकिक पुरुष ऐसा विचार रखते हैं कि धर्म तो देवताओं से मिलता है इस कारण उन देवताओं को खुश करने के लिये उन देवताओं को बलि दें, पशुओं की बलि दें, पक्षियों की बलि दे तो यह तो धर्म का ही काम है ऐसा ही अज्ञानी जीवों का विचार रहता है । यह दुर्विवेक है ऐसी बुद्धि के जो वश में हैं वे प्राणी घोर आपत्ति में हैं । देवताओं के लिये भी प्राणियों की हिंसा नहीं करना चाहिये । व्यवहार विमूढ़ पुरुष ऐसा ख्याल करते हैं कि मुझे धर्म देवताओं से मिलता है । अन्य अनेक ग्रंथों में ऐसा लिख भी दिया है कि इंद्र से, ब्रह्मा से धर्म मिलता है । उन्हें धर्म के स्वरूप की खबर ही नहीं है कि धर्म किसे कहते हैं? धर्म नाम है वस्तु के स्वभाव का और इस प्रकरण में धर्मनाम है आत्मा के स्वभाव का । आत्मा का स्वभाव है चैतन्यभाव । वह चैतन्यतत्त्व न किसी के द्वारा किया गया है और स्वभाव दृष्टि से यह चैतन्यतत्त्व रूप धर्म न किसी को उत्पन्न करता है । कार्यकारणभाव से रहित अनादि अनंत सनातन एक रूप जो चिद᳭भाव है, वही आत्मा का धर्म है । और ऐसे चैतन्यस्वरूप की दृष्टि करना, चेतनमात्र अपने आपको मानना, मैं चित᳭स्वरूप हूँ, इस प्रकार की प्रीति करना, उपयोग बनाना यही कहलाता है धर्मपालन । यह धर्म पालन किसी अन्य से नहीं मिलता । इस धर्मभाव को भूला हुआ पुरुष किसी ज्ञानी के उपदेश को सुनकर अपने हृदय में यह निर्णय बनाता है और इस परंपरा से यह ज्ञानप्रकाश उत्पन्न करता है, उतने पर भी ज्ञानी पुरुष की परिणति से यह दूसरा श्रोता ज्ञानी नहीं बना है । इस श्रोता ने अपने आप में ही ज्ञान की कला प्रकट करके ज्ञान का प्रकाश पाया है । धर्म किसी से मिलता नहीं है । हां उस पुरुष को पूर्व में जो साधन मिले, निमित्त मिले उनका आदर है, उनका बहुमान है, उनकी भक्ति है, उनका प्रसाद मानते हैं इस दृष्टि से हम परमेष्ठियों से, साधुजनों से, ज्ञानीजनों से हमें प्राप्त हुआ है, लाभ हुआ है, ऐसा हम व्यवहार करते हैं, पर वस्तुस्वरूप से देखा जाये तो हमें जो धर्मलाभ हुआ है । वह हमारी परिणति से हुआ है । फिर ये लौकिकजन तो निमित्त का भी ख्याल न करके एक सीधा ही मानते हैं । जैसे कोई किसी को कपड़े देता है, पैसे देता है ऐसे ही मानते हैं कि देवताओं से हमें धर्म मिलता है और इस आधार पर और देवताओं के स्वरूप का सही निर्णय न करने से, तथा देवताओं की आवश्यकता समझ लेने से मान लेते हैं कि देवताओं के लिये पशु पक्षी की बलि देना, प्राणियों की हिंसा करना यह धर्म है । ऐसे अनेक लोग जो कि धर्म में धर्म के व्यामोह में विमूढ़ हैं मानते हैं लेकिन प्राणियों की हिंसा हिंसा ही है और देवताओं के नाम पर हिंसा करे तो इसमें तो और अधिक मिथ्यात्व पुष्ट होता है । देवतावों के लिये भी किसी कारण से प्राणियों का घात न करना चाहिये । एक यह आचार का प्रकरण चल रहा है और इसमें मूल में कहां से आचार शुरू करना चाहिये, ऐसा यह भूमि का रूप कहा जा रहा है । हृदय वास्तविक निर्णय को अंगीकार करले तो धर्म के लिये आचार सही बनता है । 8 मूल गुणों का अभी वर्णन आया था उसका आधार भी अहिंसा है । अपने परिणामों में मलिनता न जगे और इसके फलस्वरूप बा में प्राणियों का घात न हो, यही उन अष्ट मूलगुणों का अभिप्राय है । धर्म के नाम पर लोकरूढ़ि में किस-किस प्रकार से हिंसावों में धर्म माना जा रहा है? इसका भी इस कथन में दिग्दर्शन होता जा रहा है । मूर्ख पुरुष ऐसा भी ख्याल रखते हैं कि कोई अतिथि आये तो उनका सत्कार करने में जीव घात कर में कोई दोष नहीं है । देखिये यह कितना मूढ़ता भरा अभिप्राय है । अरे दूसरे जीवों के प्रति कुछ भी दया का भाव नहीं रखते । जिसे अपनी कुछ शुद्ध नहीं है उसे पर का क्या ख्याल हो? पूज्य पुरुषो के लिए, अतिथिजनों के लिये बकरा आदि जीवों का घात करने में कोई भी दोष नहीं है, ऐसा बिचार करके । उनके लिये जीवों का घात करना यह तो एक महामूर्खता भरी बात है ।