वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 82
From जैनकोष
बहुसत्त्वघातजनितादशनाद्वार मेकसत्त्वघातोत्थम् ।
इत्याकलम्य कार्य न महासत्वस्य हिंसनं जातु ।।82।।
जंगम जीव के घात के लिये अज्ञानियों का कुतर्क और उसका समाधान―कुछ लोगों का ऐसा भी ख्याल होता है कि यदि एक ऐसे जीव के मार डालने से अनेक जीवों की रक्षा होती है तो उस हिंसक जीव का घात कर डालना चाहिये । इसका स्पष्ट आशय यह उन्होंने समझा कि जैसे सर्प, सिंह, चीता आदिक जानवर हिंसक हैं ये दूसरों को बाधा पहुंचाने वाले हैं तो इन्हें मार डाला जाये तो दूसरे जीवों को बाधा न रहेगी इसने मारने वाले को पाप नहीं है और पुष्य का ही बंध है ऐसा कुछ लोगों का ख्याल है, लेकिन इस संबंध में दो बातों पर दृष्टि डालिए एक तो यह कि किसी भी जीव को मारते समय चित्त में विकल्प और संक्लेश करना पड़ रहा है या नहीं, पाप तो संक्लेश और मलिन भाव से होता ही है । तो किसी भी प्राणी के मारने में संक्लेश करना पड़ता है । हिंसा का भाव मारने का परिणाम होता है उससे अनुबंध होता ही है । उसे मारकर हम पाप का उपार्जन किसलिए करना? दूसरी बात यह सोचें कि संसार में अनंत जीव है, मिथ्यात्व के वशीभूत हैं, एक दूसरे के घातक हैं । हम यहाँ कहां तक निर्णय और कहां तक व्यवस्था बनायें कि यह जीव दूसरों को मारता है तो इसे मार डालें । अरे एक दूसरे के मारने वाले पड़े हुए हैं । सिंह अगर किसी पशु को खाता है तो वह पशु भी किसी को मारकर खाता है, वह भी किसी अन्य को । तो यों व्यवस्था कहां तक बनेगी, किस किसको मारने का प्रोग्राम बनेगा? इससे भी यह व्यवस्था उचित नहीं है कि एक जीव के मारने से बहुत की रक्षा है तो उस जीव को मार डाले । हां गृहस्थावस्था में विरोधी हिंसा जरूर होती है और उसका त्यागी गृहस्थ नहीं है । सिंह, चोर, डाकू कोई अपना प्राण लेने आया हो तो बचाव के लिए उससे लड़भिड़कर प्रत्याक्रमण करके यदि कदाचित किसी जीव की हिंसा हो जाये तो उसे विरोधी हिंसा कहते हैं । इस विरोधी हिंसा का त्यागी गृहस्थी नहीं है, लेकिन जो ऊपर जितनी बातें हिंसा की बतायी गई हैं वे सब संकल्पी हिंसा हैं । संकल्पी हिंसा ज्ञानीपुरुष के नहीं होती, तो ऐसा ही सोचकर कि एक के मारने से अनेक की रक्षा होती है इस कारण इस जाति के जीव को मारते रहने का ही काम बनाये रहे, यह भी अहिंसा धर्म का मार्ग नहीं है ।