वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 86
From जैनकोष
कृच्छेण सुखावाप्तिर्भवंति सुखिनो हता: सुखिन एव ।
इति तर्कमंडलाग्र: सुखिनां घाताय नादेय: ꠰꠰86꠰।
सुखस्थों को मारने से ये सुखी रहेंगे, इस आशय से सुखियों को मार डालने का कुतर्क और उसका समाधान―इस प्रसंग में वे सब विचार बताये जा रहे हैं कि जिनको करके लोग ऐसा मान बैठते हैं कि यह अहिंसा है और यही धर्म है । कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि सुख की प्राप्ति बड़े कष्ट से होती है । बड़ी-बड़ी तपस्यायें करते हैं, नियम संयम समाधि धारणा बड़ी-बड़ी तपस्यावों के बाद सुख की प्राप्ति होती है । और कोई जीव यदि ऐसे सुख में हो और ऐसे सुख में रहने वाले उस जीव को मार डाला जाये तो उसे सुख ही सुख मिलेगा इसलिए जो सुख में हो उसे मार डालना चाहिए, ऐसा लोग अपना कुतर्क रखते हैं । उनका मतलब क्या? तो सीधे शब्दों में यह समझलें कि जैसे कोई त्यागी व्रती मुनी साधु ऊंचा तपस्वी योगी अगर बड़े ध्यान में स्थित है, बड़ा आत्मीय आनंद भोग रहा है तो फिर उसका सिर काट दो तो वह उसी आनंद में बना रहेगा ऐसा कुछ लोग कहते हैं । धर्म की बात नहीं कही जा रही है । उनका यह विचार बिल्कुल व्यर्थ का है, क्योंकि सुख तो सत्य धर्म की साधना से होता है । अथवा यों समझिये कि उनका यह भी विचार है कि जो वर्तमान में बहुत सुख संपन्न हैं, धन वैभव भी अधिक हैं, बड़े सुख में अपना जीवन बिता रहे हैं, यदि ऐसा कोई भोगी गहल भी हो तो उस मौज में रहने वाले को भी मार दो तो शायद सुख में रहा करेगा ऐसा सोचना मूर्खतापूर्ण बात है क्योंकि सुख तो होता है अपने आपके आत्मा के दर्शन से, परमात्मा की भक्ति से । परमेष्ठी के गुणानुवाद से । उससे ही आत्मीय आनंद की झलक होती है, वह जिसके हुआ वह ठीक है और ऐसा भी नहीं है कि कोई यदि ऐसे धर्मध्यान में संलग्न है और उसका घात कर दिया जाये तो धर्मध्यान चलता रहेगा । प्राणघात का एक ऐसा हिंस्य काम है कि प्राणघात के समय वह सब भूल जाता है और एकदम उपयोग बदल जाता है तो उसको सुख कहाँ से होगा? अहिंसा के बारे में जितने कुतर्क उठाये जा सकते हैं वे सत्र कुतर्क पेश कर करके अमृतचंद्राचार्य उनका समाधान दे रहे हैं । सबका समाधान इतना है कि अपने परिणामों को विशुद्ध रखें, किसी दूसरे जीवों के प्राणों का घात न करें, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, ये हिंसा कहलाते हैं, इनसे बाहर हटे और अपने आप में जो अपना विशुद्ध ज्ञानस्वरूप बसा हुआ है उसका उपयोग रखें और आत्मीय आनंद से तृप्त रहें । यही परम अहिंसा है । इस गाथा में इस बात से सावधान किया है कि ऐसा ज्ञान मत बतावो कि कोई जीव यदि सुख में है, बड़े मौज में रह रहा है तो उसे मार डालो तो शायद उसके मौज ही मौज बना रहेगा । प्राणघात के समय वह संक्लेश परिणाम करेगा तो दुःख पायेगा, ऐसा अज्ञान भरा विचार बनाना ये सब मिथ्यात्व की बातें हैं ।