वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 110
From जैनकोष
आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओसि तुम ।
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ।।110।।
(412) संज्ञामोहित जीव का अनादि से संसारभ्रमण―हे जीव ! तू आहार, भय, मन बिना मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं में मुग्ध होकर पराधीन होकर बस संसारवन में अनादिकाल से भ्रमण कर रहा है । जो जीव संज्ञी पंचेंद्रिय नहीं हैं, जिनके मन नहीं है वहाँ एक यह जिज्ञासा हो सकती है कि जिसके मन नहीं वह खाने की इच्छा कैसे करेगा? यह तो मन का काम है कि कुछ चाहे, या अन्य विषयों की अभिलाषा करे? प्रवृत्ति कैसे करेगा? पर मन का काम यह है सो बात नहीं । यह काम तो संज्ञाओं का है । चाहे एकेंद्रिय हो, दोइंद्रिय हो, तीन इंद्रिय हो, चौइंद्रिय हो, चाहे पंचेंद्रिय हो, सैनी हो, यह काम संज्ञाओं का है, पर संज्ञी पंचेंद्रिय में इतनी बात अधिक बन गई जो अज्ञानी हैं कि उन संज्ञावों के बल से अन्य विषयों में प्रवृत्ति हो तो रही थी पर इस मन ने उसमें और तेजी ला दी । इस मन के दोनों ही काम हैं, अच्छी ओर लगना चाहे तो अच्छी ओर लगा दे, बुरी ओर लगना चाहे तो बुरी ओर लगा दे । यद्यपि मन का लक्षण तो यह किया गया है कि जिससे हितोपदेश की शिक्षा ग्रहण कर सके उसे मन कहते हैं, इतनी योग्यता है संज्ञी जीव में कि वह हित और उपदेश को ग्रहण कर सकता है, सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है, पर यही मन संज्ञाओं की ओर अगर आकृष्ट है तो यही मन उन विषयों को और भी कला पूर्वक सेवन कराता है ।
(413) अज्ञानी संज्ञी जीवों में विषयसाधन के लिये मन की प्रेरणा की अधिक विपत्ति― साधारण जीव, मनरहित जीव भी विषयों का सेवन करते हैं, मगर इनको कलायें अधिक याद नहीं हैं कि अच्छे ढंग से विषयसेवन किया जाये । वहाँ एक ही ढंग है, जो संज्ञी तिर्यंच है गाय, बैल, घोड़ा वगैरह इनके यद्यपि मन है और उन दो तीन इंद्रिय आदिक की अपेक्षा थोड़ी इनमें कला आयी है, पर मनुष्य जितनी कलायें इन पशुओं में भी नहीं हैं विषयसेवन की । इन मनुष्यों में विषयसेवन साधना की बहुत अधिक कला है कितने ही साहित्य बनाना, उपन्यास बनाना, सिनेमा थियेटर वगैरह देखकर मन को उत्तेजित करना, विषयों में प्रवृत्ति करना, कितने ही प्रकार के भोजन बनाना आदि । एक चने का बेसन ही ले लो उससे सैकड़ों प्रकार के भोजन के आइटम बनाते हैं । ऐसे ही एक-एक चीज के सैकड़ों आइटम बनाते हैं । तो कितनी कलायें हैं इन मनुष्यों में विषयों का सेवन करने में । इस मन वाले मनुष्य ने बड़ी कलाओं का विकास किया । (हंसी) । तो यह मन विषयसेवन की ओर लगे तो वहाँ भी बड़ी कला के साथ लगता है और यदि यह मन आत्महित की ओर लगे तो यह सर्वविषयों से विरक्त होकर एक सहज ज्ञानानंदधाम सहज परमात्मतत्त्व कारणसमयसार निज अंतस्तत्त्व की ओर झुकता है, निर्णय करता है, तत्त्वज्ञान में बढ़ता है और जो विषयों में प्रवृत्त है उसका मूल पेंच मन नहीं है । उसका मूल पेंच ये संज्ञायें हैं जो एकेंद्रिय आदिक में भी हैं, मनुष्यों में भी है । मन तो ऐसा है कि जैसे चलती हुई गाड़ी में और भी धक्का लगा दे । यह स्वयं विषय सेवन का प्रारंभ नहीं करता । विषयसेवन का प्रारंभ होता संज्ञाओं से पर जिनके मन है, मन का उस कलामें और धक्का लगता । तो ये संसार के प्राणी आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन संज्ञाओं से विमुग्ध हैं । कितने विमुग्ध हैं, इसका उदाहरण लेना है तो मनुष्यों का ले लो । इतना तेज उदाहरण अन्य गति में न मिलेगा । एक मनुष्य का ही उदाहरण ऐसा है कि ज्यादह से ज्यादह बुरे काम के लिए अगर कोई उदाहरण मिलता है तो मनुष्य का मिलता है और साथ ही यह भी बात है कि भले से भले काम के लिए भी उदाहरण मिलेगा तो मनुष्य का मिलेगा ।
(414) संसारी जीव की आहारसंज्ञा व भयसंज्ञा से मोहितता का दिग्दर्शन―कितनी तरह के पकवान बनाकर अपने भोजन की इच्छा को पूर्ण करना यह कला मनुष्यों में है । खूब भरा पेट होने पर भी थोड़ी चाट पकौड़ी खाने के लिए पेट में जगह निकाल लेना यह मनुष्यों से सीखो । इन गाय, बैल, भैंस आदिक में यह कला न मिलेगी । यदि उनका पेट भरा होगा तो कितना ही बढ़िया से बढ़िया भोजन उनके सामने रखा हो तो भी वे उसकी ओर देखते नहीं । इतना संज्ञाओं से पीड़ित है यह जीव । भय संज्ञा से यह जीव पीड़ित है । इसके लिए भी उदाहरण मनुष्य का मिला । उतना डर किसी को नहीं है जितना मनुष्यों को लगा है । जिसके मन है ऐसे पशु पक्षी भी उतना अधिक नहीं डरते । उन पर कोई लाठी चलाये या कोई जोर से बोले तो डरेंगे, पर यह मनुष्य बहुत से गद्दों तकियों पर पड़ा हो, उसके चारों ओर खूब गद्दे तकिये लगे हो, कमरे में कूलर भी फिट हो, पंखा भी फिट हो, अनेक लोग जी हजूरी में लगे हों, हर प्रकार के आराम के साधन हों इतने पर भी उनको डर इतना तेज लगा होता कि बहुत से लोग तो आत्महत्या कर डालते हैं । कहीं चोर डाकुओं का भय, कहीं सरकारी कायदे कानून का भय, कहीं कोई भय, हम से तो ज्यादह आप लोग इस भय के संबंध में बता सकते, क्योंकि आप सबको उनका विशेष अनुभव होना चाहिये ।
(415) संसारी जीव की मैथुनसंज्ञा से मोहितता का दिग्दर्शन―मैथुन संज्ञा का भी सबसे बड़ा उदाहरण मनुष्यों का मिलेगा । मैथुन प्रसंग की जितनी कलायें मनुष्य जानते, उतनी कलायें और जीव नहीं जानते । पशु पक्षी हैं, क्या हैं, जहाँ रहते हैं, ठीक, मगर यह मनुष्य न जाने किस-किस तरह से कमरे सजाता, बढ़िया से बढ़िया पलंग, कोमल गद्दे तकिये और न जाने क्या-क्या नग्न नृत्य किए जाते हैं तो ये सब मैथुन संज्ञा के उदाहरण हैं । और तिस पर भी एक कला और है । पशु पक्षियों के तो साल में कुछ दिन नियत हैं उनके कुछ समय को, दो चार महीने, वे इस मैथुन प्रसंग में आते हैं, पर मनुष्यों को तो साल के बारहों महीनों एक समान । मैथुन संज्ञा का उदाहरण देख लो, कितना पीड़ित हो रहे, फिर एकेंद्रिय आदिक जीव, ये भी है संज्ञाओं से पीड़ित । कुछ पता नहीं पड़ रहा । कर्म के उदय किस ढंग से चल रहे यह पता नहीं पड़ता । यह नहीं आपका भी हमें पता पड़ नहीं सकता । आपका दूसरे को तो पता पड़ सकता । पर चूंकि आप पर भी वही बात बीतती है तो अनुमान से भी वही बात दूसरों की भी समझ सकते हैं । जैसे कभी कोई त्यागी आहार कर रहा हो तो कोई गृहस्थ बोलता, महाराज इस चीज को चटनी के साथ खाइये, तो उससे वह त्यागी यह अनुमान कर लेता है कि इसने इसका ऐसा स्वाद पाया होगा तब ही तो बता रहा, तो ऐसे ही उन मनुष्यों पर जो बात बीतती है वही दूसरों पर भी बीतेगी । अनुमान से जाना परंतु एकेंद्रिय आदिक की संज्ञाओं का अनुमान भी हम मुश्किल से कर पाते, मगर अनुमान से जानते । ये संसारी प्राणी चार संज्ञाओं से बुरी तरह पीड़ित हैं ।
(416) संसारी प्राणी की परिग्रहसंज्ञामोहितता का दिग्दर्शन―परिग्रह संज्ञा-बाह्य तत्त्व को अपनाना यह है बाह्य का परिग्रह । तो यह परिग्रह संज्ञा एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय संज्ञी तक सर्व जीवों में लगी है । हम नहीं समझ पाते कि एकेंद्रिय में क्या परिग्रह पड़ा है वहाँ मन भी नहीं और एक ही इंद्रिय है फिर भी परिग्रह संज्ञा लगी है । तो ये संज्ञायें सभी संसारी जीवों को प्रेरित करती हैं । वृक्ष में नीचे मूल (जड़) में खाद डाले, अच्छी मिट्टी डाले, पानी डाले तो उनको वृक्ष ग्रहण करता हे, यह तो सब लोग जान रहे हैं । जैसे कि यह मनुष्य है ना तो इसकी जड़ ऊपर है और शाखायें नीचे हैं और वृक्ष बिल्कुल सीधा खड़ा है । यह मनुष्य वृक्ष से उल्टा है, वृक्ष की जड़ नीचे है और वहीं से वह अपना आहार पानी ग्रहण करता है और शाखायें सब जगह पुष्ट होती हैं । किंतु मनुष्य की जड़ ऊपर है, यह मुख लगा है अगर यह मनुष्य शीर्षासन करे तो यह वृक्ष की तरह सीधा मनुष्य बन जायेगा, मगर यह उल्टा है, इसकी जड़ ऊपर है और शाखायें नीचे फैल रहीं है, हाथ पैर आदिक । वेद में एक-एक शब्द आया है―ऊर्ध्वमूलमधःशाखम् । यह मनुष्य अपनी जड़ से आहार ग्रहण करता है तो वृक्ष भी अपनी जड़ से आहार ग्रहण करते हैं, उनके भी परिग्रह संज्ञा है । दो इंद्रिय आदिक की संज्ञा कुछ अधिक ज्ञान में आती है और मनुष्य का तो फिर कहना ही क्या है । लाख का धन है तो भी तृष्णा लगी है कि करोड़ होना चाहिए, करोड़ का धन है तो अरब की तृष्णा, यों तृष्णा कर रहे और उसी में अपना सारा जीवन व्यतीत कर रहे । अरे मर जाने पर एक धेला भी तो साथ न जायेगा । इस परिग्रहानंद का दूसरा नाम है विषयसंरक्षणानंद । याने प्रत्येक विजय के संरक्षण में आनंद मानना । सभी प्रकार की संज्ञाओं से पीड़ित होकर यह जीव अनादि काल से पराधीन होकर इस संसार में भ्रमण करता रहा और अनेक प्रकार के दुःख भोगे, फिर भी यहीं यह रमता है ।
(417) मोहनशा का उत्पात―अहो, मोह का नशा तो देखिये कि यह जीव दुःख भी पाता जाता और उन्हीं दुःख की बातों में लगता जाता । दुःख हो रहा है मोह से । इस समय भी देख लो अपनी जिंदगी में जब-जब भी कोई दुःख आता है तो उसका कारण बनता है मोह । मोह से दुःख आता है और उस दुःख से पीड़ित होकर इस मनुष्य को दुःख से छूटने का उपाय मोह करना ही समझ में आता है । सो मोह से दुःखी होता जाता है और मोह करता जाता है । साथ ही अपने को बुद्धिमान भी मानता जाता । सो यह जीव इन संज्ञाओं से पीड़ित होकर इतनी कठिन विपत्ति में पड़ा है । एक ऐसा कथानक है कि चार लोगों ने कोई एक चोरी की । चारों ही उस चोरी में पकड़े गए । जज ने उनसे बयान लिया और चारों को समुचित दंड दिया ꠰ तो उनमें से एक को बस इतना दंड दिया कि कहा धिक्कार-धिक्कार है तुझे जो ऐसा खोटा काम किया । इतनी बात सुनकर उसने बड़ा पछतावा किया और अपने घर की कोठरी में जाकर आत्महत्या कर ली । यों ही दूसरे चोर को कुछ दंड दिया, तीसरे को कुछ । और चौथे को यह दंड दिया कि उसका मुख काला करके गधे पर बैठाकर नगर की गलियों में घुमाया जाये । सो जब वह नगर की गलियों में मुख काला करके गधे पर बैठकर घूम रहा था सो रास्ते में उसका भी द्वार पड़ा । उस द्वार पर उसकी स्त्री भी खड़ी हुई उसको उस दशा में देख रही थी । वह भी बड़ी शर्मिंदा हो रही थी, मगर वह पुरुष इतना निर्लज्ज था कि उसको कुछ भी शर्म नहीं लग रही थी, बल्कि द्वार पर खड़ी हुई अपनी स्त्री से बोला-देखो पानी गरम करके रख लो मुख धोने के लिए, बस थोड़ी सी जगह में घूमना और शेष रह गया है । तो हमको तो यह दिखता कि ये संसारी जीव प्राय: उस चौथे पुरुष की तरह हैं, जो कि मोह करते जाते, मोह से ही दुःखी होते जाते, फिर भी उस मोह को ही अपनाते जाते ।
(418) अज्ञानमोहित प्राणियों की बेसुधी―मोही प्राणियों को अपने आत्मस्वरूप का कुछ पता नहीं, मैं क्या हूँ यह बात उनके ज्ञान में नहीं है, जो मैं हूं―उसके अतिरिक्त जो भी पदार्थ हैं उनमें बुद्धि कर रहे कि मैं यह हूँ । देखो कितनी सी गल्ती है? बस जरा सी? जैसे कोई चीज एक सूत इस तरफ नहीं धरी है तो कहते हैं कि एक सूत जरा यहाँ आ जाये, तो कोई अधिक अंतर है क्या? ऐसे ही यह उपयोग भीतर ही भीतर है बाहर किसी का उपयोग नहीं है । बाह्य में उपयोग कहीं नहीं गया । यह तो उपचार कथन है । यह उपयोग भीतर ही भीतर रहकर जिस-जिस पदार्थ को विषय करता है, जो-जो पदार्थ ज्ञेय बनते हैं उनका क्षेत्र भी नाम लेकर बोला जाता है कि यह उपयोग बाहर घूमता रहता है । अज्ञानी का भी उपयोग बाहर कहीं नहीं घूमता किंतु यह अपने ही प्रदेशों में रहता हुआ बाह्य पदार्थ विषयक कल्पनाओं का व्यायाम करता रहता है । इसी को कहते हैं कि उपयोग बाहर गया । सो यह जीव यहीं अंदर जो स्वयं है उसको नहीं समझ पा रहा और यहाँ ही जो सहज, शुद्ध अंतस्तत्त्व है आत्मस्वरूप, उसके अतिरिक्त जो बाह्य पदार्थ हैं उनमें आत्मीयता की बुद्धि कर रहा । मूलत: तो यहाँ यह बात हुई कि कर्मों का अनुभाग खिला उस काल में उन कर्मों में बुरी बात गुजरी, क्योंकि जो कर्म बड़े आराम से सत्ता में रहते हुए एक परमात्मतत्त्व के क्षेत्रावगाह हो रहे थे और सत्ता में रहते हुए उनमें समता थी, क्षोभ न था, कोई बात न थी, तो इस स्थिति को छोड़कर जब वह जा रहा है तो यह बेचारा क्षुब्ध होकर ही तो जायेगा, एक अलंकार में समझिये, और होता क्या? यहाँ जो अनुभाग बंध हुआ था कर्मबंध के समय में तो उदय के मायने यह है कि वह अनुभाग खिल जाता है । जैसे कुछ महीने की धरी हुई कलई की डली अपना समय पूरा करनेपर खिल जाती है ऐसे ही ये कर्म भी खिल गए, मायने अनुभाग का उदय हुआ, उस काल में यहाँ एक ऐसा वातावरण बना कि वह प्रतिफलित हुआ और उसे इस जीव ने अपना डाला । यहाँ बाह्य तत्त्व को अपनाया । तो जिसने अपने घर के भीतर ही गड़बड़ी मचायी है और योग्य ही नहीं कि घर की सम्हाल बना सके तो वह बाह्य पदार्थों को विषय करके यहाँ गड़बड़ी मचाता है और सम्हाल नहीं कर पाता । तो यह जीव एक स्वयं अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप को भूला है ।
(419) बाह्यतत्त्वमुग्धता हटने पर ही शांति की संभवता―सहज ज्ञान में ज्ञान की शुद्धवृत्ति चले, जाननमात्र, जहाँ विकल्प नहीं, राग नहीं, द्वेष नहीं, ऐसी अंतर्वृत्ति, यह ही इसका काम था किंतु इस जीव ने उस बाह्य तत्त्व को अपनाकर अपने सहज स्वरूप को तो ढक दिया और उस ज्ञानवृत्ति को एक मलिन रूप में बना डाला, पर यही इसकी एक छोटी सी कहानी है, जिसके आधार पर लंबी-लंबी कथायें बन गई हैं । तो यह जीव इन चार संज्ञाओं से व्यामुग्ध होता हुआ अपने आपके वश नहीं रहता, क्योंकि इसमें अपना लगाव ही नहीं, इसकी सुध ही नहीं, अनात्मवश होकर पराधीन होकर यह संसारवन में अनादि से अब तब भ्रमण करता चला आया । सो हे मुनिजनो ! जीव की ऐसी कथा जानकर और वर्तमान में दुर्लभ इस जैनशासन को पाकर और ऐसे बाह्य परिग्रह के त्याग की मुद्रा में आकर एक ही ध्यान बनावे कि आत्मा को जानना और उस आत्मा की ओर ही, उस ज्ञानस्वरूप की ओर ही सुन बनाये रहना, इस विधि से आत्मा का कल्याण होगा ।