वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 12
From जैनकोष
सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं ।
संपत्तौसि महाजस दु:ख सुहभावणारहिओ ।।12।।
(22) देवगति में मानसिक दुःख―इस गाथा में देवगति का दिग्दर्शन कराया गया है । हे मुने, शुभ भावना से रहित होकर तूने देव बनकर भी कठिन मानसिक दुःख पाये । यहाँ महाराज कहकर मुनि का यों संबोधन किया है कि तूने साधु परमेष्ठी का बाना रखा था जिसके आदर सत्कार के कारण धर्म बंधुवों में तेरा महान यश फैल गया है, सबने पूज्य दृष्टि से देखा है । इतना बड़ा यश पाकर भी यदि तू अपनी भावना शुद्ध नहीं रखता और कुछ थोड़ा बहुत बाह्य पापों से बचकर उस साधना में लग रहा है तो उसका फल यह होगा कि तू देवगति में उत्पन्न होगा, मगर वहाँ भी तू पा क्या लेगा ? ऐसे-ऐसे अनेक बार द्रव्यलिंग धारण करके भावशून्य होने के कारण अनेक बार देवगति में उत्पन्न हुए, वहाँ भी बहुत प्रकार के मानसिक दुःख हैं । जैसे यहाँ जो गरीब पुरुष हैं दिन भर मेहनत करें तेज, तब आधा पौन पेट भोजन पा सकें ऐसे पुरुषों को शारीरिक दुःख ही विशेष है अगर कोई ऐसा रईस हो, जिसे कुछ कमाना भी नहीं पड़ता, स्वयं सब मुनीम लगे है, कमा रहे हैं, वह कहीं एक गद्दी पर पड़ा मौज कर रहा है, ऐसा कोई रईस रह रहा है, उस रईस को मानसिक दुःख इतने हैं कि तुलना अगर की जाये तो उस गरीब के शारीरिक दुःखों में जो वेदना है उससे कई गुनी वेदना है । मानसिक दुःख बहुत बेतुका दुःख है । अरे तुझे खाने की तकलीफ नहीं, रहने की तकलीफ नहीं, मौज से सब कुछ बात बन रही है अब मन को बढ़ा बढ़ाकर, मन के अनुकूल कुछ न देखकर कष्ट मानना, यह बहुत बेतुका दुःख है अर्थात् देवगति में सारे बेतुके दुःख हुए । वहाँ मुख्य दुःख है देव और देवों के उपयोग के संबंध का । बाकी दुःख तो सारे ऊट पटाँग है, मानसिक हैं, किसी के ऋद्धि, विहार बहुत अधिक देखे तो उसी में मानसिक दुःख हो जाता कि हाय मैं ऐसा क्यों न हुआ ? इसके बहुत वैभव हैं, वहाँ जो बड़े देव है, इंद्र प्रतींद्र है और इस प्रकार के जो प्रधान देव हैं वे तो दूसरों को आज्ञा दे देकर दु:खी रहते हैं और जो छोटे प्रकार के देव हैं वे आज्ञा मानकर दु:खी रहते हैं । आज्ञा मानने में, आज्ञा मानकर चलने में जितने कष्ट अनुभवे जाते हैं, भैया, उससे कई गुना कष्ट आज्ञा देने वाले के रहता है, क्योंकि उसके बहुत विबूचन, बहुत उल्झन पापारंभ, बहुत बड़ा काम, और उसमें दूसरों पर हुकूमत करने का संकल्प उसमें कठिन दुःख होता है । तो इस देवगति में यद्यपि शारीरिक कोई दुःख नहीं है लेकिन खाली बैठे रहने के कारण मन जो बेढंगा चलता रहता है उससे यह मानसिक कष्ट बढ़ जाता है । उन देवी देवताओं का वैक्रियक शरीर है, क्षुधा, तृषा आदिक की कोई वेदना होती नहीं है । हजारों वर्ष में क्षुधा, तृषा आदिक की वेदना होती है सो उनके कंठ से ही अमृत झड़ता है और वेदना शांत हो जाती है । जहाँ खानेपीने का कोई कष्ट नहीं वहाँ कमाने की क्या आवश्यकता ? वस्त्राभूषण उनको कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाते हैं । जब उनको कमाई करने का कोई कष्ट नहीं करना पड़ता तो अब सोच लीजिए कि वे 24 घंटे ठलुवा ही तो रहा करते हैं और जो ठलुवा रहेगा उसके मन नाना प्रकार के चलते रहेंगे और वह अपने में कष्ट का अनुभव करेगा । तो देवगति में नाना प्रकार के मानसिक तीव्र दुःख प्राप्त होते हैं । वियोगकाल में तो कठिन ही दुःख है । खुद के मरने का कठिन दुःख । 6 महीना पहले से माला मुरझा जाती है और वह जान जाता है कि अब मैं मरूंगा । मनुष्यों को तो कुछ पता नहीं रहता अचानक ही अगले सेकेंड में मरण हो सकता । यदि विदित हो जाये कि 6 माह बाद हम मर जायेंगे तो उसे तो रोज-रोज कष्ट बढ़ता ही रहता है । तो एक तो खुद के मरण का दुःख, दूसरे देवी के रहते हुए देव गुजर गया या देव के रहते हुए देवी गुजर गई तो बहुत समय के व्यवहार के फल में वियोग के समय कष्ट तो होगा ही । तो हे मुने, शुद्ध भावों से रहित होकर, तूने कुछ अकाम निर्जरा के बल से देवगति को प्राप्त कर लिया तो ऐसे भी वहाँ नाना प्रकार के दुःख भोगे हैं ।