वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 11
From जैनकोष
आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि ।
दुक्खाइं मणुयजम्मे पत्तोसि अणंतयं कालं ।।11।।
(20) मनुष्यगति में नाना प्रकार के दुःख―भावरहित क्रियावों के अहंकार से दुर्गतियों में जन्म होता है और कष्ट होता है उन कष्टों के बताने के इस प्रकरण में नरकगति और तिर्यंचगति के कष्टों का निरूपण तो कर चुके । अब इस गाथा में मनुष्यगति के दु:ख बतला रहे हैं । मनुष्यगति में नाना प्रकार के कष्ट हैं और उन कष्टों का यदि कुछ बंटवारा किया जाये तो चार भागों में मिलेगा । (1) आगंतुक (2) मानसिक (3) सहज और (4) साधारण । आगंतुक दुःख वह कहलाता है जो इस जीव में किसी कारण से हो जाता है, चलते जा रहे हैं, कार से एक्सीडेन्ट हो गया, किसी मोटर से साइकिल का एक्सीडेंट हो गया, चलते-चलते किसी भीड़ में किसी भागते हुए पुरुष के द्वारा चोट पा ले या कहीं लड़ाई छिड़ रही है उसमें फंस जाने से कहीं कोई छुरा लग गया या लाठी लग गई या अचानक कहीं बिजली गिर गई, कोई करेन्ट आ गया आदिक नाना प्रकार के आगंतुक दुःख होते हैं, जिसके बारे में कोई हिसाब नहीं है कि अब ऐसा होगा, न किसी को विदित हो पाता है, ऐसा अकस्मात् जो कष्ट आता है वह सब आगंतुक दुःख कहलाता है । मनुष्य को ऐसा चिंतन करके धीर रहना चाहिए कि इस मनुष्य पर न जाने कब कैसा आगंतुक दुःख आ सकता है । थोड़ी यदि मौज है या थोड़ी कुछ लोक में प्रतिष्ठा है तो उसमें भूलें नहीं, क्योंकि यह मनुष्य और यह संसार तो सब दुःखों का घर है । कोई भी आगंतुक दुःख आ सकता है, अचानक ही कोई लकवे का रोग हो गया, अचानक ही कोई आंख का अंधापन आ गया, चलते-चलते कहीं कोई पैर में मोच आ गई, ऐसा गिरे कि हड्डी टूट गई । कितने ही लोग तो कहो खाट पर पड़े हैं और कोई एक हाथ ऊंचे से गिर गए और हाथ पैर टूट गए । तो जहाँ कितने ही आगंतुक दुःख हैं उनको विचारकर कभी अपने में विकल्प न लाना चाहिए । उत्तेजना, अधीरता, दूसरों को अपने अधीन समझना आदिक बातें ये दुर्भाव हैं । ये न आने चाहिए । आगंतुक दुःखों पर ध्यान देने से यह ही तो जीवों को सद्बुद्धि जगती है । इस मनुष्यगति में अनगिनते आगंतुक दुःख हैं ।
(21) मनुष्यों के मानसिक दुःख―दूसरे दुःख मानसिक ढंग के हैं, कोई भी कष्ट नहीं, बस मन ने विचार लिया । बड़े दुःखी हो रहे हैं । ये पुरुष मेरे से उल्टे क्यों चल रहे ? अरे उल्टे चलें चाहे बिल्कुल टेढ़े चलें हमारा उसमें क्या गया या ये पुरुष मेरी तरफ सीधी नजर क्यों नहीं रखते ? हाथ जोड़ कर क्यों नहीं मेरे पास आते, आदिक कुछ भी व्यर्थ विचार लें तो उससे मानसिक दुःख ही बढ़ा लिया और जब एक मानसिक दुःख का वेग आता है और अपनी एक कल्पना बनाता है तो उस कल्पना में भली भी बात हो तो वह पूरे रूप में दुःख करती है । तो इस मनुष्य को मानसिक दुःख भी अनेक प्रकार के लगे हैं, जिससे कुछ मतलब आनंद का नहीं रहता । यदि अपने ज्ञानस्वभाव को निरखकर आनंदघन हूँ, ज्ञानमात्र हूँ, समस्त पर से निराला हूँ, केवल मुझमें मैं ही हूँ और इसका महत्व समझ कर स्व स्व ही रहे, इसमें कल्पनायें न जगें तो इसको कष्ट का क्या काम ? मगर यह बात तो नहीं विचार कर पाता यह संसारी जीव, किंतु ऐसा सोचकर कि इन पर जीवों पर मेरा तो प्रभुत्व है, अधिकार है, सो जरा-जरा सी बात पर इसको मानसिक दुःख होता है । मानसिक दुःख का कारण है अज्ञान । अज्ञान में वृत्ति विरुद्ध होती है । जहाँ ऐसा अज्ञान चलता है―मैं इनमें बड़ा हूँ, इनका मैं मालिक हूँ इनको मेरी पूरी आज्ञा में चलना चाहिए जब ऐसा चित्त में भाव दौड़ आता है तो इसको बौखलाहट होती, मानसिक कष्ट होता और यह दुःखी होता । वह पुरुष यह नहीं सोच पाता कि ऐसे बेढंगे भावों के कारण से जो मेरे पुण्य का नाश होगा और पाप का रस बढ़ेगा उस पापरस के उदयकाल में जो मुझ पर विपदा पड़ेगी वह तो कई गुना दुःख वाली विपदा होगी । वह आगा पीछा कुछ नहीं देखता, न वस्तु के स्वरूप का ध्यान रखता । किंतु अन्य जीवों पर अपना कुछ अधिकारसा मानता है और उस विपत्ति में रहने के कारण नाना ढंग का मानसिक दुःख बना बनाकर बढ़ाता है । इसके अतिरिक्त विषयों की वांछा वाली वेदना तो यह मोही निरंतर बनाये रहता है । परवस्तु की आशा रखना, निदान करना यह निरंतर इसके बसी रहती है । तो विषयों की इच्छा और परजीवों पर प्रभुत्व मानने से अनुकूल बात न होने के कारण वेदना, ये सारे दुख, मानसिक दुःख इस मनुष्य को अभिभूत कर डालते हैं । तो यह सब क्यों हुआ ? हे मुने ! आत्मा का जो स्वभावभाव है, शाश्वत स्वरूप है उस रूप में अपने को न निरखा इस कारण स्वरूप से चिगकर ऐसे कष्ट में आना पड़ा । तीसरे प्रकार का दुःख है सहज दुःख । दुःख तो सहज नहीं होता, सहज तो आनंद हुआ करता है क्योंकि आत्मीय आनंद अनैमित्तिक होता, मगर सहज का यहाँ अर्थ बिना विशेष खटपट के साधारण बातों में जो दुःख होता है उनको बताया गया है । माता पिता आदिक को जो सहज उत्पन्न हुआ है । जैसे बच्चे को माता पिता जरा जरासी बात में डांट दे, बुरा बोल दें, ललकार दें, झकोर दें यह उनका सहज दुःख है, ऐसे ही जो कुटुंब में या किसी संघ में रहता है तो जब निरंतर रहता है तो परस्पर का ऐसा कोई व्यवहार हो ही जाता कि जिसमें कोई न कोई तरह का कष्ट अनुभवा जाता है । वहाँ कोई खास घटना नहीं हुई, न कोई लड़ाई होती है, न कोई बात हुई किंतु अनेक दुःख ऐसे सहज मान लिए जाते हैं । तो अनेक दुःख तो साधारण रूप से होते ही रहते हैं । चौथे प्रकार का कष्ट है शारीरिक कष्ट । शरीर में कोई रोग हो गया, बुखार हो गया या खून खराब हुआ, फोड़ा हंसी हुआ करोड़ों प्रकार के रोग हुआ करते हैं । कोई बड़े रोग का वेग हो गया तो वहाँ शारीरिक दुःख हो गया । कोई लोग तो इसमें ही दुःख मान लेते कि हम को भूख कम लगती । तो भूख कम लगना अच्छा ही तो हुआ । भगवान के तो बिल्कुल ही भूख लगने की बात खतम हो जाती । भूख कम लगने का अर्थ तो यह समझिये कि भगवान के निकट पहुंचने लगे । लोग तो अनेक प्रकार के ऐसे उपाय करते हैं कि जिससे भूख लगे । तो कितनी तरह के कष्ट इस मनुष्यगति में लगे हुए हैं । इन दुःखों के अलावा अन्य भी दुःख हैं जिन्हें इस गाथा में च शब्द डालकर निर्दिष्ट किया है । जैसे मेरे रहने को बढ़िया मकान नही है, अनेक प्रकार के भय भी उत्पन्न होते हैं । जैसे कोई ऐसा कानून न बन जाये कि हमारी संपति चुरा ली जाये । यदि ऐसा हो गया तो फिर हमारी जिंदगी कैसे चलेगी ? मेरे घर में कोई रक्षा का साधन नहीं है । कहीं से भी चोर आ सकते हैं । मेरा कहीं मरण न हो जाये । पता नहीं मैं कब तक जीऊंगा । यों कितनी तरह के अटपटे दुःख बना डालते हैं वृद्ध हो गए फिर भी किसे पूछेंगे कि अभी मेरी उम्र कितनी है ? कुछ पता ही नहीं पड़ता कि कहता क्या है, मन में क्या है ? कितनी तरह के जाल हैं इस संसार में, वे सब दुःखरूपी हैं । तो ये सब दुःख क्यों मिले ? हे मुने, भावरहित होकर जो द्रव्यलिंग धारणकर आजीविका को बनाये, उस सबका फल है कि ऐसे खोटे दुःख सहने पड़ते हैं, सो परमार्थभूत अंतस्तत्त्व की उपासना के बिना जो मन, वचन, काय की वृत्तियां बनाया है उन प्रवृत्तियों के कारण ऐसे मनुष्यभव में अनंत काल तूने दुःख पाया याने अब तक अनंतकाल व्यतीत हुआ । भले ही वहाँ मनुष्यभव पाने के बहुत कम बार हैं पर कितने ही कम बार हों, यदि यह जब चाहे मनुष्य होता आया है तो यह अनगिनते बार मनुष्य हो चुका और उनमें कठिन दुःख भोगा है ।