वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 120
From जैनकोष
जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति ।
छिंदंति भावसमणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं ।।120।।
(480) द्रव्यश्रमणों की इंद्रियसुखव्याकुलता एवं संसारविषवृक्षछेदन की अशक्यता―जो कोई भी द्रव्यश्रमण है, सम्यक्त्वहीन द्रव्यश्रमण, वे इंद्रियसुख में व्याकुल होकर इस संसार का छेदन नहीं कर पाते । द्रव्यलिंगी मुनि अनेक प्रकार के होते हैं । मूल लक्षण यह है कि भेष तो निर्ग्रंथ दिगंबर है, पर छठे 7वें या ऊपर के गुणस्थान का परिणाम नहीं है वह द्रव्यलिंगी है । 5 वां गुणस्थान हो ऐसा निर्ग्रंथ दिगंबर द्रव्यलिंगी है, चतुर्थ गुणस्थान वाला मुनि हो वह दिगंबर द्रव्यलिंगी है, तीसरा, दूसरा पहला किसी भी गुणस्थान में हो, वे सब मुनि द्रव्यलिंगी कहलाते हैं । यहाँ मिथ्यात्ववासित द्रव्यलिंगी मुनि को कह रहे हैं कि इंद्रियसुख में व्याकुल होकर वह संसारवृक्ष को नहीं छेद सकता, किंतु भावश्रमण ध्यानकुठार से संसारवृक्ष को छेद देता है । जिसको अपने आपके सहज स्वरूप का परिचय नहीं है वह कहां रमें? दर्शन, ज्ञान चारित्र इनके परिणमन प्रत्येक जीव में चल रहे हैं, चारित्र का परिणाम है रमना । खुद का जिसे पता नहीं, जो स्वयं ज्ञानानंदस्वरूप है उसका जिसने परिचय पाया नहीं और रमण सो अवश्य होगा ही, सो उनके बाह्य विषयों में रमण चलता है । बाह्य विषयों में रमण नहीं है परमार्थत: वहाँ भी निश्चयत: खुद में ही रमण हो रहा है, मगर वह खुद अखुदसा बना, जो यथार्थस्वरूप है उस रूप में अपने आपको नहीं पा रहा । क्रोध, मान, माया, लोभ, इच्छा, ऐसे जो भीतर में ज्ञानपरिणाम जग रहे हैं उन कषाय परिणामों में रम रहा है, पर वे बाह्य परिणाम व्यग्र हो रहे हैं बाह्य पदार्थों का उपयोग बनाने से ꠰ अत: यह कहा जाता है कि यह अज्ञानी विषयों में रम रहा । निश्चयत: तो बाह्य विषयक उपयोग बना बनाकर जो व्यक्त कषाय हो रही हैं उन कषायों में रम रहा । सीधीसी बात है कि कोई जीव कषायों में रम रहे कोई अविकार स्वभाव में रमते । रमते हैं वे खुद के ही परिणाम में । तो जिन जीवों को निज सहज ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्त्व का परिचय नहीं हुआ उनका उपयोग बाह्य विषयों में ही रमण करता है और बाह्य में रमने का फल है व्याकुलता ।
(480) इंद्रियसुखों के भोग में व्याकुलता का दिग्दर्शन―जीव किसी भी इंद्रिय का विषयकषाय भोगे तो वहाँ आकुलता ही पायी जाती है, और जो लोग थोड़ा मौज मानते हैं वह भी व्याकुलता पूर्ण परिणति है, शांति की परिणति नहीं है । जैसे मानों एक रसनाइंद्रिय का भोग भोगा तो भोगने के समय निरीक्षण करके निरख लो कि कोई शांतिपूर्वक खाता है या क्षोभपूर्वक । जो मौज माना जा रहा वह भी क्षोभ । एक ग्रास मुख में है, एक हाथ में है, एक को उठाने का विकल्प बन रहा कि कौनसी चीज उठायी जाये? तो देखिये उसके भोगने में भीतर में कितनी विह्वलता मच रही । इसका बहुत अच्छा स्वाद है, इसे जल्दी खाना चाहिए, इसको बाद में खा लेंगे, यों कितनी ही आकुलतायें मचायी जा रहीं । शांतिपूर्वक कहां भोगा जा रहा? जो मौज माना जा रहा वह एक दुःख की कमी का मौज है । शांति और आनंद वहाँ नहीं है, किंतु क्लेश कम रह गया वह भी मौज कहलाता है । जैसे किसी को 105 डिग्री बुखार चढ़ गया था और अब उतरकर 101 डिग्री रह गया । अब उससे कोई आकर पूछता कि कहो भाई कैसी तबीयत है? तो वह कहता है कि अब तो ठीक है, बड़ा चैन है? अरे कहा चैन है? अभी तो 101 डिग्री बुखार चढ़ा है । बात वहाँ यह है कि बुखार कुछ कम हुआ उससे वह चैन मानता है, वस्तुत: तो चैन नहीं हैं । यही बात सभी इंद्रियसुखों की है । इन इंद्रियसुखों में व्याकुलता भरी है । तो यह सम्यक्त्वहीन द्रव्यश्रमण इंद्रियसुख में व्याकुल होकर इस भव वृक्ष का छेदन नहीं कर सकता । और भावश्रमण छठवें और 7वें से ऊपर के गुणस्थानवर्ती श्रमण इस ध्यानरूपी कुठार से संसारवृक्ष को काट डालते हैं ।
(481) मोही और निर्मोही की वृत्ति―मोह एक बड़ी भारी विपत्ति है । मिथ्यात्व मोह, अज्ञान ये सब एक ही अर्थ को बताने वाले हैं, जिसको अपना परिचय नहीं वह व्याकुल ही रहता है और चूंकि यह परमैश्वर्य स्वभाव वाला है तो यह कुछ ज्ञान भी इसका रहता है कुछ आनंद भी मानता है । तो जो कुछ यह प्रवृत्ति करता है वह मोहवश मिथ्या भ्रम को दृढ़ करता हुआ प्रवृत्ति करता है । जगत में ऐसा कौनसा पदार्थ है जो अनेक बार देखा न गया हो या इस ही भव में मिल जाये । अनेक बार देखा है फिर भी आज देखने को कुछ नया देखना मानता है, सिनेमा, थियेटर, रूपादिक बहुत-बहुत देखे जाने पर भी ऐसा समझते हैं कि मैं आज कुछ नया सा देख रहा हूँ, रोज-रोज वही खाना खाने पर भी ऐसा समझते कि आज कुछ नया सा भोग रहा हूँ, तो ऐसा कौन पदार्थ है जो नहीं देखा गया मगर इसे यह मोही नया ही मानता है । अनेक बार स्पर्श किया सभी पदार्थों का, पर यह मानता कि मैं आज कुछ नया सा स्पर्श कर रहा हूँ । नया ही कुछ स्वाद ले रहा, नया ही सुन रहा । परंतु जिनका मन सरलता से संपन्न है उनके किसी भी भोग में अभिलाषा नहीं । कर्मविपाक है, होता है, भोगना पड़ता है मगर विरक्ति साथ चलती है, ऐसी अनेक घटनायें मिलेगी कि जो करनी पड रही हैं, पर अभिलाषा नहीं है करने की । विरक्ति चल रही हैं । जैसे कैदी को चक्की पीसनी पड़ती, फावड़ा चलाना पड़ता या जो भी काम दे दिया गया सो करना पड़ता, और उस काम को करने में कुछ कमी करे तो ऊपर से उस पर डंडे भी बरसते, तो देखिये उसे कैद में रहकर परिस्थितिवश सब काम करने पड़ते हैं, पर उसे उनमें कुछ राग नहीं हैं, बल्कि वह तो उन दंदफंदों से हटना चाहता है । कैसा विलक्षण परिणाम है कि भोग भोगते हुए भी उस भोग से हटा हुआसा रहता है । कैसा विपाक है कि प्रवृत्ति भी करनी पड़ती और कैसा अद्भुत ज्ञानबल है कि उससे वह हटा हुआ भी रहता । तो समतासुख से संपन्न पुरुष कामभोग में आसक्त नहीं होता ।