वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 136
From जैनकोष
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट᳭ठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं ꠰
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ꠰꠰136꠰꠰
(534) मिथ्यात्ववासित होने से अनेक शास्त्रों के अध्ययन से भी अभव्यों की प्रकृति में सुधार―अभव्य जीव जिनधर्म को भले प्रकार सुनकर भी अपने में विकार के राग वाले स्वभाव को नहीं छोड़ते, सो ठीक ही है ꠰ जैसे कि दूध पीकर भी सांप निर्विष नहीं हो सकता ! जिसकी जो प्रकृति है वह अपनी प्रकृति नहीं छोड़ता ꠰ ऐसे ही अभव्य जीव की प्रकृति हे विकार में आपा अनुभव करना ꠰ सो अनेक शास्त्र भी पढ़ ले वह तो भी अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता और जो निकट भव्य हैं, पर अभी मिथ्यादृष्टि है तो भी उनकी यह प्रकृति छूट सकती है और वे यह अनुभव कर लेंगे कि ये रागद्वेषादिक विकार मेरे स्वभाव में नहीं, अभव्य अनुभव नहीं कर सकते और जिनके यह ज्ञान बनता कि विकार मेरे स्वभाव में नहीं उसको मुक्ति का मार्ग मिलेगा और जो विकार को ही अपने स्वभाव में माने हुए है उसको मोक्ष का मार्ग न मिलेगा ꠰ इस कारण हे भव्यपुरुष तू अपने आपके सहजस्वरूप की दृष्टि तो कुछ कर जिससे कि विकार का लगाव अत्यंत दूर हो जाये ꠰ चारित्रमोह के विकार में उदय आते हैं, पर विकार आने के समय यह प्रतीति रहे कि विकार मेरे स्वरूप में नहीं ꠰ ये औपाधिक हैं, मैं तो अविकार स्वभाव हूं ꠰ तो इतनी प्रतीति के बल से संसारबंधन नहीं चलता ꠰ जो बंध चलता है वह साधारण है, क्योंकि अपनी सुध बनी है, अपनी संभाल चल रही है ꠰