वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 141
From जैनकोष
जीवविमुक्को सबओ दंसणमुक्को य होह चलसवओ ꠰
सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चल सबओ ꠰꠰141꠰꠰
(542) जीवविमुक्त मुर्दा और चलता फिरता मुर्दा―जिस शरीर में से जीव निकल जाता है उस शरीर को बोलते हैं मुर्दा ꠰ वह मुर्दा चलता फिरता तो नहीं है ꠰ जहां का तहां पड़ा रहता है ꠰ और जिस जीव को सम्यग्दर्शन नहीं है, जो सम्यग्दर्शन से रहित है वह है चलता फिरता मुर्दा ꠰ जो जीव निकल गया वह तो है मुर्दा और जिसके सम्यग्दर्शन नहीं वह है चलता हुआ मुर्दा ꠰ तो बताओ ऐसे चलते फिरते मुर्दे क्या आप लोगों ने कभी देखे ? हां देखे, ये सब जो सम्यक्त्वरहित प्राणी इस संसार में दिख रहे वे सब चलते फिरते मुर्दे ही तो हैं ꠰ अब जिनको सम्यग्दर्शन नहीं है, भीतर में ज्ञानप्रकाश नहीं है वे संसार में जिंदगी से जीते तो हैं, पर उन्हें पता ही नहीं कुछ कि कहां जाना है, क्या करना है, कहां शांति है, हम किसलिए जी रहे हैं ? बस मौज उड़ाने के लिए अपनी जिंदगी समझते हैं ꠰ तो जिनके सम्यग्दर्शन नहीं है उनको ये आचार्यदेव बतलाते हैं कि वे तो चलते फिरते मुर्दे हैं ꠰ अच्छा अब एक बात और समझें ꠰ जिसमें से जीव निकल गया वह मुर्दा देह पूज्य है या अपूज्य ? अपूज्य ꠰ ठीक है वह तो एक इसी भव में अपूज्य है, पर चलते फिरते मुर्दे तो भव-भव में अपूज्य रहेंगे ꠰ सो यदि अपने जीवन को सफल करना है, तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करो ꠰ यह सम्यग्दर्शन 8 वर्ष की उम्र के बालक में भी हो सकता है, इसके बाद भी हो सकता ꠰ 8 वर्ष से कम वाले के संभव नहीं ꠰ किसी बालक को अपने आत्मा का ज्ञान जग गया―मैं आत्मा ज्ञानस्वरूप हूं ꠰ तो वह पवित्र हो गया, और बड़ी उम्र तक भी सम्यग्दर्शन न हो तो वह अंधेरे में है ꠰ सम्यग्दर्शनरहित ये चलते फिरते मुर्दे इस भव में भी अपूज्य हैं और आगे खोटी गति ही तो मिलेगी, सो वहां भी ये अपूज्य रह गए ꠰
(543) गुरुनिंदक मिथ्यादृष्टियों की भयावह दुर्गति―अच्छा एक तो है मिथ्यादृष्टि और फिर दूसरे वह करता हो गुरुओं की निंदा तो अब उसमें डबल ऐब आ गए ꠰ एक तो मिथ्यात्व नहीं छोड़ा, मिथ्यादृष्टि हैं और फिर हैं गुरुनिंदक, तो उनका होनहार क्या होगा ? बहुत कठिन दुर्गति ꠰ और, यह होता ही आया है, क्योंकि संसार कभी खाली नहीं होता ꠰ जो आज त्रस पर्याय में है वह आगे न चेता तो वह भी निगोद में आ जायेगा और छह माह आठ समय में निगोद से निकलते हैं 608 जीव सो इतने ही मोक्ष जाते हैं, संसार खाली नहीं होता ꠰ निगोद जीव अनंतानंत हैं, तो ऐसे ही मिथ्यादृष्टियों से भरा हुआ यह संसार है ꠰ और गुरुओं की निंदा मिथ्यादृष्टि जीव ही तो करेंगे, सम्यग्दृष्टि जीव नहीं कर सकते ꠰ आजकल तो बहुसंख्या में ऐसे जैनी मिलेंगे जो कि गुरुनिंदा करने को ही अपना धर्म मान रहे और उसी की एक पार्टी बन गई जो कि गुरुओं की निंदा करते और कहते कि उन्हें पानी मत पिलाओ, खाना मत दो, ऐसा ही प्रकट कहने लगे तो वे यह बतायें कि वे सब सम्यग्दृष्टि हैं क्या ? अरे सम्यग्दृष्टियों की इतनी अधिक संख्या तो नहीं बतायी गई ꠰ उनमें से कोई एक आध ही हो सकते हैं ꠰ तो एक तो हो मिथ्यात्व का उदय और दूसरे अपने को सबसे बड़ा समझें तो बताओ ऐसी हालत में उनकी क्या गति होगी ? वे तो चलते फिरते मुर्दा हैं ꠰ जैसे सिनेमा के पर्दे में चलते फिरते बोलते चित्र दिखते हैं मगर वे सब हैं अजीव, अज्ञानी ꠰ तो ऐसे ही जो मिथ्यादृष्टि पुरुष हैं वे चलते फिरते मुर्दे हैं और अज्ञानी हैं ꠰ फर्क इतना है कि उन फोटो में तो आहर, भय, मैथुन, परिग्रह आदि संज्ञायें नहीं हैं और इन चलते फिरते मुर्दों में ये संज्ञायें लगी हैं सो ये फोटो से भी खोटे हैं ꠰
(544) भावरहित जीवन की व्यर्थता―आचार्यदेव समझाते हैं कि सम्यक्त्व के बिना जो जिंदगी है उसे बेकार समझें ꠰ वह सब मायामय खटपट है ꠰ एक बार कोई पुरुष अपने किसी रिश्तेदार के घर गया तो वह रिश्तेदार था कुछ कंजूस टाइप का ꠰ सो उस पुरुष के घर आ जाने पर उस कंजूस व्यक्ति ने विचारा कि कोई ऐसा उपाय रचें जिससे यह हमारे घर अधिक दिन न टिक सके ꠰ सो क्या किया कि अपने घर के रसोइया को समझा दिया कि देखो एक काम करना है, हम लकड़ी से खटपट की आवाज करेंगे और तुम रोना ꠰ बस यह काम करना है ꠰ ठीक है ꠰ अब रात के समय में वह कंजूस पुरुष आँगन में खड़ा होकर किसी लकड़ी से खटपट की आवाज कर रहा था और वह रसोइया रो रहा था, यह घटना देखकर वह पुरुष घर से बाहर भग गया यह सोचकर कि ऐसी हालत में इस घर में क्या रहना जहां मार पिटैया रोना धोना चल रहा हो, मगर कुछ दूर जाकर विचार किया कि ऐसे तो हमारा घर से भागकर आना ठीक नहीं रहा ꠰ कम से कम घर के मालिक से बताकर आना चाहिए था, सो वह पुन: वापिस आ गया ꠰ सो जब वह आँगन में आ गया उस समय उस मालिक और नौकर में बातचीत चल रही थी ꠰ मालिक बोला―देखो मैंने तुम्हें पीटा तो नहीं ꠰ तो रसोइया बोला―और मैं भी रोया तो नहीं, झूठ मूठ ही तो रोया था, सो वह तीसरा पुरुष पीछे से बोला―मैं भी गया तो नहीं, झूठ मूठ ही तो गया था ꠰ तो ऐसे ही समझो कि ये संसार के सब जीव अपने-अपने विषयों के खातिर चतुर बन रहे ꠰ कोई कैसी ही प्रवृत्ति करता और कैसी ही ? तो यहाँ यह बतला रहे कि जो मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव हैं और जैन शासन की निंदा करते हैं ऐसे निंदक पुरुष तो सहवास के योग्य नहीं हैं ꠰ सो हे मुने, अपने सम्यक्त्व से शुद्ध होकर व्रतों को पालो और किसी भी समय किसी की निंदा के शब्द कानों में मत सुनो―