वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 24
From जैनकोष
गहिउज्झियाइं मुणिवर कलेवराइं तुमे अणेयाइं ।
ताणं णत्थि पमाणं अणंतभवसायरे धीर ।।24।।
(36) देहममत्व छोड़ने के लिये मुनिवर को संबोधन―हे मुनिश्रेष्ठ, हे धीर वीर तुमने इस अनंत भवसागर में इतने शरीर ग्रहण किये और छोड़े जिनका कोई परिमाण नहीं है, मगर जिस शरीर में गया उस ही शरीर से तूने स्नेह किया । इस भव से पहले जो शरीर था, जिसे छोड़कर यहाँ आये तो इसके लिए उस शरीर का कोई महत्त्व भी है क्या ? कुछ भी महत्त्व नहीं है, तो ऐसे ही जो वर्तमान में शरीर है इसे भी छोड़कर जायेगा तो इस शरीर का भी कोई महत्त्व है क्या ? कुछ भी महत्त्व नहीं, मगर मोह का अंधेरा ऐसा विकट छाया है कि जिस शरीर में पहुंचता है उस ही शरीर को तू अपना सर्वस्व मान लेता है । तो जिस शरीर से तू स्नेह करना चाह रहा है ऐसा शरीर तो तूने अनंत बार छोड़ा और अनंत बार ग्रहण किया । इस अनंत भवसागर में याने जब काल की कोई आदि नहीं कि कब से समय लग रहा है और जीव की सत्ता की भी आदि नहीं कि अमुक क्षण से यह जीव बना है । अनादिकाल से जीव है, आदिकाल से यह संबंध है और अनादिकाल से भवभ्रमण है । तो अब समझ लीजिए कि कितने भव इस जीव ने पाये । अनंतानंत भव इस जीव ने पाये । तो अनंतानंत भवों में अनंतानंत शरीर पाये और छोड़ा तो उस शरीर से अब क्या ममत्व करना ? क्या स्नेह करना ? यह शरीर तेरा कुछ नहीं है । शरीर से निराला जो ज्ञानमात्र अंत: पदार्थ है उसकी ही उपासना में रहना है ।