वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 5
From जैनकोष
परिणामम्मि असुद्धे गंथे मुंचेइ बाहरे य जई ।
बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ ।।5꠰।
(11) अशुद्ध परिणाम के होने पर बाह्मपरिग्रहत्याग से सिद्धि की असंभवता―कोई मनुष्य साधु तो हो गया, मगर परिणाम उसके अशुद्ध ही चल रहे हैं व ऐसे भाव के होने पर वह परिग्रह को छोड़ता है, धन धान्य मकान आदिक बाह्यपरिग्रहों का त्याग करता है, सो यह बाह्य परिग्रह का त्याग भावरहित मुनि का क्या लाभ कर सकता है ? परिग्रह तो वास्तव में मूर्छा को कहते हैं । कहा भी तो है―मूर्छा परिग्रह: । प्रमाद और कषाय के वश किन्हीं भी बाह्यपदार्थों में अहंकार, ममकार होने के कारण जो आत्मा की एक बेहोशी होती है, जिसमें आत्मस्वरूप का कुछ भी भान नहीं रहता, मात्र बाह्य परिग्रह की ओर ही आकर्षण रहता है, ऐसी स्थिति को कहते हैं मूर्छा । मूर्छा ही परिग्रह है । किसी ने बाहरी परिग्रह तो त्यागा, मगर देह का परिग्रह विकट बांध लिया । देह यद्यपि छोड़ने योग्य वस्तु नहीं है उस समय, लेकिन देह में ममता हो, देह में आत्मबुद्धि हो, यह तो होती है अज्ञान की स्थिति में और देह को पुद्गल आदि का प्रचय समझे और आत्मा को अत्यंत भिन्न स्वभाव वाला देखे, ऐसा देखने से जो देह के प्रति उपेक्षा है यह ज्ञानी के होती है । तो देह छोड़ा नहीं जा सकता, फिर भी इस देह को देह ही जानें । अमूर्त चिदानंद स्वरूप आत्मा से भिन्न जानें व जड़ मूर्तिक, रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड समझें । इसे तो किया जा सकता है, पर अज्ञानी जीव जिसने बाह्य परिग्रह को त्याग दिया, पर देह में विकट आत्मबुद्धि है । धर्म का आयतन है दिगंबरी मुद्रा, उसको धारण करके भी जिसके ममता बन रही हो देह में, भेष में, यह ही मैं सब कुछ हूँ, वह तो विकट मूर्छा है । तो ऐसे अंतरंग परिग्रह को जब यह जीव छोड़ता नही, तो बाह्य परिग्रहों का कैसा ही त्याग किया हो उसको फल याने कल्याण की बात नहीं मिल सकती । सम्यग्दर्शन आदिक परिणाम हुए बिना कर्मनिर्जरा हो ही नहीं सकती, फिर कल्याण कहां से हो ? इससे भावों की निर्मलता बढ़े, उसके लिए ज्ञानाभ्यास व अविकार ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की उपासना बढ़ावें ।