वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 6
From जैनकोष
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण ।
पंथिय सिवपुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण ।꠰6꠰।
(13) शिवपुरपंथ प्रथमलिंग परमार्थ भाव से रहित पुरुषों के द्रव्यलिंग की व्यर्थता―हे मुने, शिवपुरी का जो पंथ है वह तो भाव ही है, ऐसा जिनेंद्र देव ने बताया है याने मोक्षमार्ग भाव है, जिस भाव में समस्त बाह्य पदार्थों की उपेक्षा है और अपने निज अंतस्तत्त्व में उपयोग है, तो यह भावस्थिति मोक्षमार्ग है, इस कारण हे मोक्षपुरी के पथिक अर्थात् मोक्षमार्ग में चलने वाले पुरुष ! तू भाव की ही प्रथम बात को जान । परमार्थभूत बात जान । जीव है केवल भावस्वरूप । तो भावों की विशुद्धि से ही जीव की शुद्धि हो सकती है । भावरहित मुनि द्रव्यलिंग मात्र धारण करे, उससे उसको कुछ सिद्धि नहीं । इससे हे कल्याणार्थी जनो मोक्षमार्ग जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है उसकी आराधना करना, क्योंकि केवल द्रव्यलिंग से कुछ भी सिद्धि नहीं । यद्यपि द्रव्यलिंग कल्याणमार्ग में चलने वाले के आता ही है, क्योंकि वह बाह्य पदार्थ का संबंध रखता, संयोग रखता तो यह विकट विकल्प का ही कारण बनता है और मोक्षमार्ग में चलने की कोशिश करने वाला निकट भव्य विकल्प मात्र को हेय मान रहा । सारे विकल्प छूटे और अपने आपमें अपना ज्ञानस्वरूप ही समाया रहे ऐसी स्थिति चाहने वाला भव्यपुरुष द्रव्यलिंग में आयगा ही, मगर जो लोग इस द्रव्यलिंग में ममता रखते हैं, इसको ही साधन जानकर इन वचन काय की क्रियावों में ही लगे रहते हैं और उस ही के अनुरूप मन को जुटाये रहते हैं उनको सिद्धि नहीं होती ।