वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 69
From जैनकोष
अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण ।
पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण ।।69।।
(135) भावश्रमणता का प्रभाव―ऐसी नग्न अवस्था जहाँ अकीर्ति जग रही हो, पाप भाव से मलिनता छा रही हो, निंदा मजाक मात्सर्य, कपट, जहाँ अधिकाधिक हो रहे हों ऐसे इस नग्न लिंग से क्या लाभ है? अर्थात् उससे आत्मा की सिद्धि नहीं है । ये जो दृश्य सामने आते हैं कि कहीं मुनि विराजे हैं, सिंह और मृग एक साथ खड़े हैं, वंदना कर रहे है, उनका परस्पर में विरोध नहीं होता है । ऐसी जो अलौकिक घटना सुनते हैं सो वह है क्या बात? कहते तो यों हैं कि वह मुनिराज का प्रभाव है, क्योंकि वह वीतराग मुनि हैं, समता भाव के पुन्ज हैं, आत्मध्यान में रत है, सो यह मुनि का प्रभाव है । यह भी एक तथ्य है, पर साथ में यह भी तो सोचें कि वह हिरण और वह शेर भी तो जीव हैं और जैसा भगवान का स्वरूप है वैसा ही तो इन पशुओं के जीव का भी स्वरूप है । पशुपर्याय में आये हुए इन जीवों का भी तो यही स्वरूप है । जैसे जो बात मुनिराज को पसंद है शांति, वही बात इन जीवों को भी पसंद है, सो ये जीव जब शांत मुद्रा में विराजे समता अभूत का पान करने वाले उस मुनि की छबि का दर्शन करते हैं तो यही शांति उनको भी चाहिए थी ꠰ इसलिए उनका भी हृदय निर्मल हो जाता है और जहाँ हृदय में निर्मलता जगे, वही बैर विरोध अपने आप छूट जाता? । यह बात मुनि की छवि को देखने से बनी, इस कारण यह कहा जाता कि यह मुनि का प्रभाव है, पर वास्तव में तो यह बात है कि वह हिरण और शेर के जीव की भावना का प्रताप है कि मुनिराज के समक्ष उनके भी शुद्धभावना जगी और बैर विरोध को छोड्कर शांतरस में आये । सो जितना भी चमत्कार है, अभ्युदय हैं, उत्तम से उत्तम बात है वह सब निर्मल परिणाम से ही बनती है । बाहरी क्रियाकांडों से अभ्युदय नहीं बनता । बाहरी क्रियाकांड तो करने होते हैं, करने पड़ते हैं, क्योंकि उन व्यवहार की धार्मिक क्रियाओं में रहकर ऐसा वातावरण रहता है कि वहाँ यह चाहे तो अपने भावों को निर्मल बनाने का वह वातावरण भर है, पर मन, वचन, काम की ये चेष्टायें ये स्वयं धर्म नहीं हैं । धर्म तो रागरहित ज्ञान की प्रवृत्ति होना कहलाता है ।
अपने आपको ऐसा ध्यान में लायें कि मैं एक ज्ञानमय पदार्थ हूँ, जाननहार हूँ । जाननस्वरूप से ही रचा हुआ हूँ । यह स्वयं आनंदमय है । यह मैं आत्मा केवल एक जो सहज सत् हूँ वही रहूं । इसमें पर का संपर्क न हो तो यह प्रकट आनंदमय है । ऐसे आनंदमय आत्मा को प्रकट करने के लिए ही साधना की जाती है । यद्यपि यहाँ तीन चीजें मिली हुई हैं शरीर कर्म और जीव । कितनी ही चीजें मिल जायें, सत्ता सबकी न्यारी-न्यारी ही रहा करती है । यह वस्तु का स्वरूप है । किसी की सत्ता किसी अन्य रूप नहीं बन जाया करती है । यदि ऐसा हो सकता तो आज जगत शून्य होता । कुछ दिखता ही नहीं । जगत में जो ये सब पदार्थ दिख रहे हैं यही एक प्रमाण है कि प्रत्येक पदार्थ की सत्ता उसकी उसमें ही रहती हैं । तो मैं आत्मा हूँ, तीन के संपर्क में हूँ, तिस पर भी मेरी सत्ता मेरे में ही है, मेरा कुछ मेरे से बाहर नहीं । बाहर का कुछ मेरे में आता नहीं, ऐसा यह आत्मा अपने को भूलकर बाह्य पदार्थों को अपना अपनाकर तृष्णा में आकर अपने को व्याकुल करता रहता है, और संसार जन्म मरण के दुःख पाता रहता है । जिसके यह भेदविज्ञान हो जाता है वह समग्र पदार्थों से विरक्त रह कर अपने आत्मा के सत्यस्वरूप की धुन में रहता है और वह इस साधना में बढ़ता है तो उसका सब कुछ छूट जाता है । घर भी छूटे, वस्त्रादिक भी छूटे, निर्ग्रंथ दिगंबर स्वरूप आता है और उस मुद्रा में रह कर अपने आत्मा की साधना करता है । यह तो है ज्ञानी जीव की कथा । अब कोई अज्ञानी पुरुष उन ज्ञानियों की पूजा प्रतिष्ठा देखकर उसकी भी चाह हो जाये कि मैं भी मुनि बनूं, और लो, नग्न हो गया और जैसा शास्त्र में बताया या ज्ञानी मुनि की बाह्यक्रियायें देखी, उस तरह की बाहर में सब क्रियायें भी कर रहा, लेकिन जहाँ अज्ञान बसा है वहाँ आत्मा की संभाल कैसे हो सकती है? उस भेष में भी अनेक भीतर ऐब बसे हुए हैं, जैसे अपने को सबसे ऊँचा मानना, दूसरों को तुच्छ समझना, दूसरों की निंदा करना, दूसरों का मजाक करना, किसी से ईर्ष्या रखना, छल कपट के अनेक ढंग रचना, यह बातचित में बसी रहती है । तो उसके प्रति आचार्य कहते हैं कि अरे अकीर्ति के पात्र ! जो पाप से मलिन है, उसके नग्न वेष से क्या लाभ है?
(136) पैशून्यादि दोषपूरित द्रव्यलिंग की अकीर्तिपात्रता―जो दिगंबर मुद्रा का भेष रखकर खुद भीतर पैशून्यादि दोषों से भरा है, वह दुर्गति में जाता है और उसकी सेवा करने वाले लोग भी दुर्गति में जाते हैं । जैसा कि आचार्यों ने कहा कि 33 करोड़ मुनिभेष में रहकर अपने अशुद्ध परिणाम के कारण नरक जायेंगे और उनके सेवक भी जायेंगे । यहाँ यह कहने का उद्देश्य नहीं है । आचार्यदेव अपने साथ के मुनियों को समझा रहे हैं कि तू आत्मदृष्टि रख । अपने ज्ञानमात्र स्वरूप को उपयोग में रमाकर संतोष पा ले अन्यथा दुर्गति होगी । केवल भेष से कुछ लाभ नहीं होता । इस गाथा में इस नग्न भेष को अकीर्तिका पात्र कहा है । अज्ञानी की नग्नता को अकीर्ति का घर कहा है उससे धर्म की प्रभावना नहीं होती । लोग उदाहरण दे देकर धर्म की निंदा करते हैं, उसी को लक्ष्य करके एक कवि ने कहा है कि हे चंद्रमा, तू लांछन वाला हुआ तो क्यों हुआ? यदि तू सारा का सारा काला होता तो किसी की दृष्टि में ही न रहता, मगर उज्ज्वल चांदनी का स्वरूप रखकर फिर तेरे भीतर जो थोड़ी कालिमा आयी है, जैसे कोई लोग कहते हैं कि चंद्र में हिरण है कोई कहता है कि चरखा कातती हुई बुढ़िया है, कोई कुछ कहता है कोई कुछ उस चंद्रमा में, यदि चंद्रमा सारा काला होता तो किसी की दृष्टि में न आता, उसकी निंदा न होती, चंद्रमा की इस तरह अकीर्ति न होती, मगर चंद्रमा सारा तो है उज्जवल और बीच में है कुछ कलंक, तो उस कलंक के कारण चंद्रमा का अपयश है । साहित्यकार चंद्र को कलंकी कहा करते हैं । तो ऐसे ही कोई पुरुष अगर सारा का सारा अनेक दुर्गुणों से भरा है, अज्ञान है अपने साधारण भेष में है तो उससे धर्म का अपवाद नहीं होता, क्योंकि वह पूरा का पूरा अपने दुर्गुण वाले भेष में रहता है, किंतु कोई मुनिभेष रखकर अज्ञान की बात करता हो, निंदा के वचन बोलता हो, दूसरों से ईर्ष्या करता हो, अपनी प्रशंसा चाहता हो, तो उससे धर्म का अपवाद है । तो ऐसी नग्नता की जहाँ भाव मुनिपना नहीं है, सम्यक्त्व नहीं है, आत्मदृष्टि नहीं है ऐसा नग्नपना अकीर्ति का पात्र है, उससे अपयश ही फैलता है ।
(137) सम्यक्त्वरहित मुनिवेष की अनर्थक्रियाकारिता―यह नग्नपना जहाँ कि सम्यक्त्व नहीं है तो वह पापभाव से मलिन रहता है । सबसे बड़ा पाप तो मिथ्यात्वभाव है, निज और पर की सुध न रहना, मैं क्या हूँ और परपदार्थ क्या है इसका बोध न रहना यह सबसे बड़ा पाप है ꠰ और दुःख भी जगत में है सबसे अधिक दुःख मिथ्यात्वभाव में हुआ करता है, क्योंकि उसे कोई रास्ता ही नहीं सूझता । जिसको ज्ञान है उसके सामने शांति का मार्ग बराबर रहता है । और कैसी ही विपत्तियां आयें उन सब विपत्तियों से अपने को परे रखता है । बड़ा भारी नुक्सान हो गया । बाहरी पदार्थ यह न रहा और कहीं रहा मेरा तो मेरे स्वरूप से बाहर कुछ है ही नहीं । बाहर का कुछ भी मेरे स्वरूप में आता ही नहीं । उनसे मेरा क्या बिगाड़? जगत में बाह्य पदार्थों का कुछ भी परिणमन हो उससे मेरे में कोई बिगाड़ नहीं होता । मैं अपने स्वरूप में हूँ और अपने स्वरूप में परिणमता रहता हूं । मेरा कुछ भी बाहर नहीं है । ज्ञानी को धैर्य रहता है, और जो अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, कुछ भी बाह्य पदार्थ में बिगाड़ हुआ कि वह अपने को समझता है कि मेरी दुनिया लुट गई । तो सबसे बड़ा पाप, सबसे बड़ा क्लेश मिथ्यात्व है । जिनको सम्यग्दर्शन हुआ, स्वपर का विवेक हुआ, उन्होंने वह वैभव पाया जिसके समक्ष तीन लोक के वैभव भी मिल जाये तो वह तृण समान है। आत्मा का ज्ञान आत्मा का दर्शन, आत्मा में रमने की बुद्धि ये किसी बिरले भव्य पुरुष को ही प्राप्त होते हैं । बाकी बाहरी चीजें तो ये बाहरी पदार्थ हैं, आये तो क्या, गए तो क्या, मगर ये मिथ्यादृष्टि अज्ञानी उससे विह्वल रहते हैं । तो जो अज्ञान द्रव्यलिंगी मुनि हैं, जिन्होंने नग्नता का भेष तो धारण किया, पर मिथ्यात्व भीतर से नहीं हटा, तो ऐसे पाप मलिन नग्न भेष से कोई लाभ नहीं है ।
(138) परनिंदा हास्यवचन आदि दुर्गुणों से पूरित पुरुष के मुनिव्रत की अनर्थक्रियाकारिता―जहाँ अज्ञान बसा है वहाँं परनिंदा की प्रवृत्ति बनी रहती है, क्योंकि उसने उस भागवत् रूवरूप का दर्शन नहीं किया कि जिसमें वह संतुष्ट रहता । संतोष तो उसे मिल नहीं रहा बाह्य दृष्टि ही बनी हुई है तो यह प्रकृत्या मन में बात आती है कि मैं सबसे बड़ा हूँ और इसे अभिमान के कारण दूसरों की निंदा करना उसके लिए एक प्रकृति की बात बन जाती है । सो जो दूसरों के दोषों को निरखता है, दूसरे के दोषों को ग्रहण करता है वह कभी आत्महित नहीं कर सकता । वह पुरुष धन्य है जिसकी जिह्वा दूसरों का दोष कहने में मौन व्रत धारण करती है । यह होता है अपने अभिमान के कारण दूसरों के दोष कहकर । तो जो नग्न भेष रखकर सम्यक्त्व से हीन है और यों पाप से मलिन है उस भेष से न उसको लाभ है और न दूसरों को लाभ है । अपनी उन्नति करना है तो सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का लाभ लीजिए । घर में भी रह रहा हो कोई और सम्यग्दर्शन है, जान रहा है कि मैं आत्मा अपने आपके स्वरूप में ही हूँ वही मेरा सर्वस्व है, इतना ही था, इतना ही हूँ, इतना ही रहूंगा, अन्य से मेरा कुछ संपर्क नहीं, ऐसा जिन्होंने अपने आत्मा का परिचय पाया वे तो पवित्र हैं, निराकुल हैं, कर्मों का प्रतिक्षण क्षय करने वाले हैं और जिनको सम्यक्त्व नहीं है वे कितने ही भेष धरें, उससे उनका कोई उत्थान नहीं होता । तो मिथ्यात्वसहित जो द्रव्यलिंग है वह अनेक दोषों से भरा रहता है । दूसरे का हास्य करना, दूसरों की ठगाई करना, छल कपट करना, कहना कुछ, करना कुछ । जिसके हृदय का कुछ पता ही न पड़े, सदा कषायों से भरा हुआ हो, तो ऐसे नग्न भेष से उत्थान नहीं होता ।
(139) सरल सहज अंतस्तत्त्व की दृष्टि पाये बिना जीवन की निष्फलता―ध्यान देना चाहिए उस नग्नता का जहाँ यह आत्मस्वरूप प्रकृत्या नग्न रहता है, याने आत्मस्वरूप समग्र परपदार्थों से निराला ही है । कहां है? अपने ज्ञान से देखो, ज्ञान के स्वरूप को देखो, पर पदार्थों को माया जानकर उनसे विरक्त हो तो अंत: सहज ही भगवान के दर्शन होते हैं । यह तत्त्व जिन्होंने नहीं पाया उनकी प्रवृत्ति में माया भरी हुई है । मायाचार से लोगों ने बड़ा अपयश पाया । एक दृष्टांत प्रसिद्ध है कि युधिष्ठिर कभी असत्य न बोलता था । एक बार जब कौरव पांडवों का महायुद्ध हुआ और उस समय कौरव बहुत बढ़े चले आ रहे थे तो उनके नेता श्रीकृष्ण ने सलाह दी कि देखो इस समय कौरवपक्ष का एक हाथी जिसका नाम अश्वत्थामा था वह मर गया है, तुम सिर्फ इतना कहो कि हाय अश्वत्थामा मर गया, किसी पुरुष या हाथी का नाम ही मत लो । आखिर युधिष्ठिर ने वैसा ही किया, तो इतनी सी मायाचारी से युधिष्ठिर का बड़ा अपयश हुआ उनमें स्वयं में बलहीनता हो गई । तो जो परवंचचना का भाव रखता है वह मुनि होकर भी मोक्षमार्ग से दूर है, वह अपने आपकी बरबादी करता है ।
(140) मिथ्यादृष्टि मायादिवहुल द्रव्यलिंगी के वनवास की भी व्यर्थता―मिथ्यादृष्टि पुरुष वन में भी रहे तो भी इस मलिनता को वह कैसे दूर कर सकता है ? जब तक ज्ञान नहीं जगा तब तक उसकी बरबादी ही है, जिसको ज्ञान जगा है वह सम्यग्दृष्टि पुरुष घर में भी रहे तो भी इंद्रियनिग्रहरूप तप उसके बराबर बना हुआ है । जिसके राग नहीं है उसका घर ही तपोवन है जिसके मिथ्यात्वभाव है वह वन में रहकर भी क्या पायेगा? तो ऐसे अपने एक सही स्वरूप का दर्शन पाने के लिए इस जीव को सारे जीवन प्रयत्न करना चाहिए―सत्संगति, स्वाध्याय, आत्ममनन, एकांतवास इन कर्तव्यों के अधिकाधिक प्रयोग से अपने को ज्ञान में वासित रखना चाहिए । फिर सम्यक्त्वसहित होकर गृहस्थी में रहे तो वहाँ पर भी प्रगति है, विशेष प्रगति हो तो मुनि बने, वहाँ भी प्रगति है । जहाँ सम्यक्त्व नहीं है तो उसके ऐब को कौन निकाल सकेगा । इससे यहाँ कुंदकुंदाचार्य भावपाहुड़ ग्रंथ में अपने सहवासी मुनियों को उपदेश करते हैं कि तू देह की दृष्टि छोड़कर आत्मा की दृष्टि कर, अपने को ज्ञानस्वरूप अनुभव कर, इस ही ज्ञानस्वरूप में रमने का पौरुष कर, इससे सिद्धि होगी ।