वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 71
From जैनकोष
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो व उच्छुफुल्लसमो ।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ।।71।।
(144) सिद्धि व सिद्धि का उपाय―अपने को यह सोचना है कि सिद्ध भगवान हुए बिना हमको शांति न मिल सकेगी, क्योंकि भगवान से पहले की याने संसारिक जितनी स्थितियां हैं, अवस्थायें हैं वे सब आत्मा को भली नहीं होती हैं । सिद्ध भगवान नाम किसका हैं? अकेला आत्मा रह जाना उसका नाम है सिद्ध । जैसे अभी हम आप जो बैठे हैं वे सब तीन चीजों के पिंड हैं, तो जब तक ये तीन चीजें मिली हुई हैं तब तक कष्ट है और जब तक यह आत्मा अकेला रह जाये, देह जुदा हो जाये, कर्म जुदे हो जाये, खाली आत्मा रह जाये तो उसे कहते हैं सिद्ध भगवान ꠰ यह आत्मा अकेला रह जाये तो उसे शांति है और जब तक शरीर और कर्म का संबंध है तब तक कष्ट है । तो अब यह सोचो कि वह कौन सा उपाय है कि शरीर और कर्म से आत्मा न्यारा होगा । वह उपाय है यह कि अभी भी देखें तो शरीर और कर्म से न्यारा हूँ मैं । जैसे तीन चीजें मिला दें दूध, पानी और तेल, वे सब चीजें एक गिलास में गड्डमगड्ड हो गई, उनको अलग-अलग अब नहीं निकाल सकते हैं, मगर एक में मिले हुए भी हर एक की सत्ता न्यारी-न्यारी है । दूध में दूध है, पानी में पानी है और तैल में तैल है । ऐसे ही तीन चीजों का संबंध है यहाँं, मगर हैं वे न्यारी-न्यारी चीजें । तो जिसने इस आत्मा को न्यारा देख लिया उसे कहते हैं सम्यग्दृष्टि, और जो देह और कर्म में लिपटा हुआ देखता है उसे कहते हैं मिथ्यादृष्टि । सम्यग्दृष्टि को कभी खेद नहीं होता, क्यों खेद नहीं होता कि वह जानता है कि मेरा आत्मा इस देह से अलग है विभावों से अलग है, परिजनों से अलग है । मेरे आत्मा का शरण मेरा आत्मा ही है, दूसरा नहीं है, तो वह आत्मा की सिद्धि कैसे हो? आत्मा को निराला देखते जावो, देह की खबर छोड़ दो, कर्म के उदय से जो रागद्वेष सुखदुःख भाव होते? हैं, उनसे भी जिसने अपने आत्मा को निराला देखा तो वह आत्मा निराला हो जायेगा ।
(145) बाह्य आभ्यंतर परिग्रह के त्याग के वातावरण में सिद्धि के उपाय की संभवता―देखो सबसे बड़े महत्त्व की बात यह है कि मनुष्य होकर यदि अन्य-अन्य बाहरी कामों में तो लग जाये और अपने आत्मकल्याण की बात में न लगे तो उसका सारा जीवन व्यर्थ है, क्योंकि जिस चीज को छोड़कर जाना है उस चीज में तो लिपटा है यह जीव । जो अपने हाथ रह नहीं सकता उसमें यह लिपट गया और जो अपने साथ सदा रहेगा उसकी खबर नहीं लेते तो यह कितना बड़ा भारी अज्ञान है, मोह हैं । तो यह आत्मा निर्मल कैसे बने कि इस वक्त भी हम देखें तो जो ज्ञान ज्ञान है सो तो आत्मा है और जो यह पिंड है सो देह है और जो दुःख सुख विकल्प की माया है वह कर्म की छाया है । इससे मैं ज्ञानस्वरूप न्यारा हूँ, ऐसी जो ज्ञानस्वरूप की निरंतर आराधना करेगा वह सिद्ध भगवान बनेगा, अन्यथा बताओ एक इस भव में यदि सांसारिक सुख के बड़े-बड़े साधन बना लिये जैसे अच्छे महल, अच्छा रहना सहना, तो बताओ ये इस आत्मा को शांति पहुंचाते हैं क्या? अरे ये सब छोड़ने पड़ेंगे । अब इन्हें छोड़कर जो आत्मा जायेगा वह कैसा रहेगा, कहां रहेगा, किस गति में रहेगा उसकी सुध नहीं लेते । तो जो अपने आत्मा की सुध लेता है और प्रयत्न करता है कि सिद्ध बनूं तो उसका प्रयत्न है मुनि बनना । गृहस्थी में भी प्रयत्न चलता है, मगर कम चलता है, क्योंकि गृहस्थी में दंदफंद अनेक हैं, अनेक शल्य रहते हैं । चिंतायें रहती हैं, बाधायें रहती हैं, और मुनि को कोई चिंता नहीं, कोई शल्य नहीं कोई बाधा नहीं, उसके सामने कोई दंदफंद नहीं, किसी से उसको कुछ मतलब नहीं । तो मुनि अवस्था एक ऐसी अवस्था है कि जिससे संसार से पार होने का उपाय बना सकता है ।
(146) छर्मदूरवर्ती जीव के परिणाम की निष्फलता व निर्गुणता―अब कोई ऊँचा मुनि का भेष तो रख ले और काम करे नीचा तो उसके लिए यहाँ कुंदकुंदाचार्य कह रहे हैं कि जिसका धर्म में चित्त नहीं है, धर्म से जो दूर रहता है तथा निंदा, चुगली, हिंसा, अहंकार आदि दोष जिसमें रहते हैं, वह ईख फूल के समान है । न उसमें सुगंध आती है न फल । प्रकृत्या ऐसे ही निष्फल और निर्गुण है इक्षुपुष्प कि वहाँ न सुगंध है, न उसमें फल होते हैं । इसी प्रकार वह मुनि जो निर्ग्रंथ पद को धारण कर ले और उसके परिणाम हों क्रोधादिक विकारों रूप तो वह नट के समान है । जैसे नट अपना खेल दिखाता है इसी प्रकार वह मुनि भी अपना खेल दिखाता है । भीतर आत्मा में उसका चित्त नहीं है, क्योंकि वह धर्म से दूर है । धर्म नाम किसका है? तो धर्म के चार लक्षण किए गए हैं । वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं । जिस पदार्थ का जो स्वभाव है वह उसका धर्म है । आत्मा का स्वभाव क्या है? ज्ञान, सिर्फ जनना । जानन सिवाय अन्य कुछ बात नहीं । रागद्वेषादि तो कर्म की छाया है । इनसे अपने को निराला समझे, सिर्फ जाननहार रहे तो वह है वस्तु के स्वभाव में आना याने यह जीव अब धर्म में आया । जिसे धर्म करना है उसे यह यत्न करना पड़ता है कि रागद्वेष न हों और ज्ञाताद्रष्टा रहे । इसके मायने हैं धर्म । जैसे मंदिर में पूजा करते समय लोग भावना करते कि हे भगवान में भी आप जैसा रागद्वेष रहित हो जाऊं और आपके स्वरूप में मग्न हो जाऊं, तो इसे कहते हैं धर्म करना और केवल मंदिर के अंदर आये, कुछ थोड़ा सी पूजा पाठ पढ़ लिया और कुछ ऊपरी बातें कर लीं तो उतने से अभी धर्म नहीं हुआ । थोड़ा तो अच्छा हुआ कि अन्य जगह जो पाप की बातें आती थीं वे न आयी, मगर धर्म नहीं हुआ । धर्म होता है इसमें कि रागद्वेष छूटे, ज्ञानस्वभाव में रुचि जगे ꠰
(147) आत्मरुचिक पुरुषों की निर्मलता―जिसको आत्मस्वभाव में रुचि जगति है उसको यह ही ध्यान में रहता है कि मैं ज्ञान ज्ञानरूप हूँ, ज्ञानसिवाय मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, मैं हूँ, अपने प्रदेश में हूँ, अपने प्रदेश से बाहर नहीं हूँ, मैं खुद स्वयं आनंदमय हूँ । कष्ट तो कर्म की छाया है आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है । तो ऐसे ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा को अपनी दृष्टि में लेवें तो वह धर्म का पालन करना कहलाता है । तो यह ही वस्तु का स्वरूप है । कैसे जाना कि आत्मा का स्वभाव ज्ञान है? तो देखिये जो स्वभाव होता है वह सदा रहता है और जो विभाव है, स्वभाव नहीं है वह सदा नहीं रहता । जैसे क्रोध, मान, माया, लोभ आदि ये कषायें सदा नहीं रहती, अभी क्रोध कर रहे, थोड़ी देर में मान हो गया, फिर थोड़ी देर में माया हो गई, फिर लोभ हो गया, मगर यह ज्ञान सदा चल रहा, जब क्रोध कर रहे तब भी ज्ञान चल रहा, जब मान किया तब भी ज्ञान चल रहा, इसी तरह माया, लोभ आदि कषाय किया तब भी ज्ञान चल रहा । तो ज्ञान सदा चलता है, इससे सिद्ध है कि ज्ञान है आत्मा का स्वभाव । जो स्वभाव है उससे कष्ट नहीं होता और जो विभाव है, विकार है उससे कष्ट होता है विकार हमेशा परपदार्थों के संबंध से होता है । तो पर से निराला अपने आपको तको, वहां कोई प्रकार के कष्ट नहीं हैं ।
(148) धर्मवेश में निम्नाचरण का फल दुर्गति―जो मुनि जैसा ऊंचा पद रखकर भी धर्म से दूर है, वस्तुस्वभाव ध्यान में नहीं है तो कहते हैं कि वह निष्फल है, निर्गुण है ? क्योंकि वहाँ दोषों का निवास है, दोष क्या? विषय और कषाय, विषय की भावना हो यह दोष है, कोई कषाय उमड़ जाये तो दोष है । तो दोष में जो रहता है और पद रख लिया मुनि का, तो कहते हैं कि वह नग्न मुनि जो है वह तो नग्न ही है । यहाँ मुनि की उत्कृष्टता बतला रहे हैं, कोई निंदा की बात नहीं कर रहे, क्योंकि मुनिपद इतना ऊँचा पद है कि वह मुनि सदा आत्मा के ध्यान में रहता है । तो ऐसे श्रेष्ठ मुनि परमेष्ठी कहलाते हैं और जो मुनि का भेष रखकर भीतर में विषय के भाव कषाय के भाव करता है वह स्वयं दुर्गति में जाता है और उसकी सेवा करने वाले जो गृहस्थ हैं वे भी दुर्गति में जाते हैं । तो वह मुनि जो दोषों का घर बना हुआ है वह निष्फल है और निर्गुण है, ऐसा जानकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप में बहुत दृढ़ता से रहना चाहिए ।
(149) प्रभु की पूजा अर्थात् ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की पूजा―बतलाओ पूजा में आप किसकी पूजा करते हैं ? शरीर की पूजा नहीं करते, किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र की पूजा करते हैं । भगवान अरहंतदेव की पूजा की तो समझो कि वह ज्ञानस्वरूप की पूजा है, जो सम्यग्दृष्टि है, सम्यग्ज्ञानी है, आत्मा में लीन है, आत्मा की बुद्धि है, वहाँं शरीर की पूजा नहीं, इसी तरह मुनि की भी कोई पूजा नहीं किंतु मुनि की दशा में हमने मुनि की छवि देख कर जिसकी स्थापना की है उसकी पूजा करते हैं, मूर्ति की पूजा नहीं करते । कोई भी दर्शन करने वाला ऐसा नहीं कहता है कि हे भगवान । तुम जयपुर की खदान से निकले हुए पत्थर से बनाये गए हो, अमुक कारीगर ने बनाया है, वह तो यों दर्शन करता है कि हे आदिनाथ जिनेंद्र आपने इंद्रियों को जीता, विषयों को जीता और अपने आपमें मग्न हुए....। तो पत्थर का नाम लेकर कोई भगवान के दर्शन नहीं करता । तो इससे मालूम होता है कि जितने भी लोग दर्शन करने वाले आते हैं वे मूर्ति के दर्शन नहीं करते, किंतु मूर्ति में भगवान की स्थापना करके भगवान के दर्शन करते हैं और मुनि जिनलिंग कहलाता है, याने जिनेंद्रदेव का जैसा स्वरूप है वैसा ही स्वरूप है उसका नाम है मुनि । मुनि तो भगवान के निकट का पद है और ऐसी मुद्रा रखकर अगर कोई स्वच्छंद रहता है और अपने विषय कषायों का पोषण करता है तब तो वह गृहस्थ से भी गया बीता है, तब मुनि को भी और गृहस्थ को भी अपनी शक्ति न छिपाकर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक᳭चारित्र में लगना चाहिए ।