वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 79
From जैनकोष
पंचविहचेलचायं खिदिसयणं दुविहसंजमं भिक्खू ।
भावं भाविय पुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ꠰꠰79।।
(232) मुनिवरों का पंचविधचेलत्याग―5 प्रकार के वस्त्रों का त्याग करो, जमीन पर सोओ, दो प्रकार के संयमों का पालन करो, आत्मतत्त्व की भावना भावों और इस जिनलिंग को निर्मल शुद्ध करो । वस्त्रत्याग का प्रयोजन यह है कि यह पुरुष, यह आत्मा इतना अधिक विरक्त है, बाह्य पदार्थों से बिल्कुल अलग है कि उसको एक छोटी लंगोटी या तौलिया की भी चिंता न करनी पड़े, उसका ख्याल ही न आये और एक आत्मा-आत्मा का ही निरंतर स्मरण बना रहे इस धुन में है, इसलिए उसका नग्न रूप है । नग्नत्व में खाली देह की ही बात नहीं रहती है किंतु यह भाव तकना कि इसको आत्मा की इतनी तेज धुन हैं कि उसको एक वस्त्र तक का भी ख्याल नहीं रहता । देह की सुध नहीं, वस्त्र का ख्याल नहीं, कोई चिंता ही नहीं रहती । अब कोई नग्नपना तो धारण करे और चिंताओं का भंडार बनाता रहे, जैसे संघ बढ़ाने की भावना―उसमें मिला क्या है? गुस्सा, घमंड, कषायभाव के सिवाय और कुछ प्राप्त होता नहीं । मगर ऐसी उमंग बनी है कि लोग मेरी ऐसी तारीफ करें कि देखो इनके कितने शिष्य हैं । बात यह बतला रहे कि वस्त्र त्यागने का प्रयोजन था अत्यंत निश्चित जीवन रखना और उसकी आड़ में चिंता का भार बनावे तो उसको उपदेश किया है कुंदकुंदाचार्य ने कि हे मुनिप्रवर ! तुम अत्यंत निर्मल होओ, 5 प्रकार के वस्त्रों का त्याग करो, तुम अंग पर कोई चीज मत लपेटो । 5 वस्त्र क्या हैं? (1) रेशमी वस्त्र, (2) सूती वह । (3) ऊनी वस्त्र, (4) छाल के वस्त्र जैसे टाट, पट्टी, चटाई वगैरह और (5) चर्म के वस्त्र जैसे मृगचर्म सिहचर्म आदि । किसी भी प्रकार के वस्त्रों का संग न करो ।
(233) हे मुनिवरो ! भूमि पर शयन करो । भूमि पर शयन करना―बैठना उठना यह तो सर्वोत्कृष्ट बात है, पर कभी काठ पर बैठ गए, चटाई पर बैठ गए, यह उससे कुछ हल्की बात है, विधान में काष्ठ, चटाई भी बतायी गई है मगर भूमि पर बैठना उठना यह उत्कृष्ट बात है जमीन ही उनके लिए सही आसन और शय्या है । मूल गुणों में भूमिशयन आता है, काष्ठशयन नहीं आता, पर चरणानुयोग में काष्ठ का भी विधान बताया है । लोग तो काष्ठ का तख्त रखते, उस पर दूसरा तखत रखते, फिर उस पर काष्ठ का सिंहासन रखते, उस पर मुनिराज विराजते और खुश होते, लेकिन सोचो तो सही कि वह सरलता से कितना दूर हो गए प्राकृतिकता से कितना दूर हो गए? आत्मानुभव की पात्रता होती है विरक्त साधु को । दो प्रकार के संयम को धारण करो । देखिये साधुवों की अपरिग्रहता बतायी जा रही है । कैसा निष्परिग्रह साधु हो? वह निष्परिग्रहता होती है भावों से आत्मा के ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त अन्य किसी तत्त्व में रुचि न जाये । किसी पदार्थ में भाव न जाये, वहाँ होती है निष्परिग्रहता । जितना कष्ट है वह परिग्रहभाव से है । निष्परिग्रहता की सिद्धि के लिए वस्त्र का त्याग है, भूमि पर शयन है ।
(234) द्विविधसंयम का पालन―दो प्रकार का संयम है । संयम दो कौनसे हैं-―(1) प्राणिसंयम और (2) इंद्रियसंयम । किसी जीव की हिंसा न हो वह तो है प्राणिसंयम, न तो पृथ्वी, जल अग्नि, वायु वनस्पति इन स्थावरों की हिंसा हो और न दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय इन त्रस जीवों की हिंसा हो, वह तो है प्राणसंयम । और इंद्रियसंयम क्या है कि इंद्रियविषयों में राग न आना, प्रवृत्ति न होना, उनसे दूर रहना । वास्तविकता यह हैं कि जिसको ज्ञानगुण का स्वाद आया है और ज्ञानमात्र आत्मस्वरूप की अनुभूति जगी है उसको कुछ सिखाने की जरूरत नहीं । उसका सब व्यवहार स्वयं चरणानुयोग के अनुसार बनेगा । और जिसके ज्ञानानुभूति नहीं हुई, उस पुरुष को कितना भी सिखाया जावे, वह बाहरी बातों को ही पकड़ेगा, आंतरिक ज्ञानस्वरूप को न पकड़ेगा । मुनिव्रत का मूल है आत्मज्ञान । ज्ञानानुभव । जिसको ज्ञानानुभव हुआ वह जानता है कि मेरे ही समान सर्व जीव हैं, किसी भी जीव को मेरे से बाधा न हो । जिसने अपने ज्ञानानुभव का स्वाद लिया उसका यह दृढ़ निर्णय है कि किसी भी बाह्य पदार्थ का व्यवहार मान का कारण है और उस तत्त्वज्ञान के बल से दो प्रकार का संयम मुनि के होता है । इस तरह अपने आपकी दया करने वाले मुनि का व्रत शुद्ध है और जैनधर्म की प्रभावना का कारण है ।
(235) अपरिग्रहत्व का दर्शन―भैया, सभी को अपरिग्रहता का भाव रखना चाहिए घर में है, कोट, कमीज कपड़ों से लदे हैं, किसी भी स्थिति में हैं । यह ज्ञान जब ज्ञानस्वरूप को जानने चलेगा तो उसे अनुभव ज्ञान का आयेगा । उस ज्ञान को तको, वह ज्ञान स्वभावत: निस्तरंग है । आत्मा का जो लाक्षणिक स्वरूप है उस स्वरूप में किसी भी बाह्य पदार्थ का संबंध नहीं है, अकेला, निःसंग । उस ज्ञान के अनुभव लिए कई निष्परिग्रहता है । और जिसने सब से निराले अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया उसने अपने को अपरिग्रह पाया । जैसे कहते हैं कि कपड़े के भीतर सब नग्न हैं, ऐसे ही जब ज्ञानद्वारा अपने आत्मा के स्वरूप को देखें तो पता पड़ेगा कि सारे चक्कर के अंदर भी आत्मा अपने स्वरूपत: शुद्ध है । सत्ता उसकी शुद्ध हैं । किसी दूसरे की सत्ता मिलकर सत्ता नहीं बनी, जीव की स्वतंत्र सत्ता है, तो अकेलेपन का ही तो नाम है निःसंग । अपने आत्मा को निःसंग अनुभव करो । सर्व दुःखों का जाल है परपदार्थों का परिग्रहण । और धर्मपालन भी इसी में है कि निष्परिग्रह रहें, सो इस धर्म का पालन मुनिजन पूर्णरूपेण कर पाते हैं, गृहस्थों को परिग्रह परिमाण बताया है, फिर भी गृहस्थ अपने को पूरा निष्परिग्रह अपने स्वरूप में तकता है ꠰